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ठंडे जी का स्टार्टअप

अब साल पूरा होने में केवल दो ही दिन बचे थे। न - न ...आज कोई उनतीस दिसंबर नहीं था। आज तो अठारह दिसंबर ही था। लेकिन आप सोच रहे हैं न कि फ़िर साल ख़त्म होने में बस दो ही दिन कैसे बचे? अभी तो पूरे तेरह दिन बाक़ी थे।
बात दरअसल ये है कि हम पूरी दुनिया के कलेंडर का साल ख़त्म होने की बात नहीं कर रहे। हम तो केवल मिस्टर ठंडे के रिटायर होने के बाद एक साल ख़त्म होने की बात कर रहे हैं।
वो पिछले साल बीस दिसंबर को अपने कॉलेज से रिटायर हुए थे जहां वो पिछले लगभग पैंतीस साल से लाइब्रेरियन थे। अर्थात पुस्तकालय अध्यक्ष।
हम जानते हैं कि आपके दिमाग़ में पहला खटका तो यही हुआ है कि ठंडे भी भला कोई नाम हुआ? आख़िर कौन गांव, कौन देस के वासी हैं ठंडे जी? क्या जाति, क्या धर्म है उनका?
वैसे हिंदी में एक मशहूर कहावत है कि अगर आप कोई भी अजीबो- गरीब नाम ले लें तो उस नाम का महाराष्ट्र में कोई न कोई सरनेम और गुजरात में कोई न कोई व्यंजन ज़रूर होगा।
लेकिन ठंडे जी का कोई संबंध न तो महाराष्ट्र से था और न ही गुजरात से।
वो तो यहीं भोपाल की पैदायश थे और पूरी ज़िंदगी यहीं नौकरी करते रहे। उनका असली नाम कालभैरव प्रसाद श्रीवास्तव था। पर भारत में जब लोगों ने महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू तक को संक्षेप में बापू और चाचा कर लिया तो कालभैरव प्रसाद श्रीवास्तव जी को इतना फुटेज भला कैसे देते?
लिहाज़ा कॉलोनी वालों ने उन्हें हल्के में पुकारने की मुहिम भी छेड़ दी। उसी समय ये पाया गया कि कालभैरव प्रसाद जी रोज़ रात को लाइब्रेरी देर से बंद होने के चलते घर देर से आते थे और अपने बच्चों से केवल रविवार को ही ठीक से मिल पाते थे। बच्चे उन्हें संडे पापा कहते थे। और सबसे छोटा चार साल का छोटू तो संडे भी बोल नहीं पाता था, बेचारा तुतला कर "ठंडे पापा" बोलता था।
पूरी कॉलोनी को यही नामकरण भाया और तभी से वो अपनी मित्र मंडली में ठंडे जी, या मिस्टर ठंडे के नाम से मशहूर हो गए।
यद्यपि उनका नामकरण करने वाला छोटू अब खुद दो बच्चों का पिता बन चुका था।
यही मिस्टर ठंडे अपनी नौकरी से पिछले साल सेवानिवृत हुए थे।
लेकिन अपनी पुस्तकालय की नौकरी में ठंडे जी को कई बेहतरीन किताबें भी समय- समय पर पढ़ने को मिली थीं और उन्होंने कहीं पढ़ा था कि आदमी रिटायर चाहे जब भी हो, वो बूढ़ा होना तो तभी शुरू होता है जब वो काम करना छोड़े। यदि कुछ न कुछ काम करता रहे तो अस्सी साल का आदमी भी बूढ़ा नहीं होता। तो उन्होंने तभी से ये ठान लिया था कि वो कॉलेज से रिटायर होने के बाद भी कभी ख़ाली नहीं बैठेंगे, कुछ न कुछ ज़रूर करते रहेंगे।
हां, ये बात अवश्य थी कि लंबी और उबाऊ नौकरी पूरी निष्ठा से करते रहने के बाद वो कुछ समय तक केवल आराम ही करना चाहते थे। अतः उन्होंने मन ही मन तय किया था कि पूरे एक साल तक वो और कुछ न करके केवल आराम ही करेंगे। खूब सोएंगे, खूब खाएंगे, खूब घूमेंगे, खूब मिलना- जुलना करेंगे और वो सब करेंगे जिसके लिए वो जीवन भर समय नहीं निकाल पाए। लेकिन पूरे एक साल बाद वो फ़िर किसी काम में जुटने के लिए कमर कस लेंगे।
तो उनके आराम- विश्राम का यही एक साल खत्म होने में अब केवल दो दिन बाकी थे।
उन्होंने मन ही मन सोच लिया था कि अब वो कोई दूसरी नौकरी तो नहीं खोजेंगे बल्कि घर में ही रहते हुए एक नया "स्टार्टअप" चालू करेंगे।
उनका अनुभव कहता था कि रिटायरमेंट के बाद भी कोई दूसरी नौकरी करते रहने से समाज में अच्छा संदेश नहीं जाता। लोग आपको मजबूर समझने लगते हैं। आपकी संतान भी अकारण ही संदेह के घेरे में आ जाती है। लोग सोचते हैं कि बच्चे ठीक से गृहस्थी संभाल नहीं पा रहे हैं इसलिए बुढ़ऊ अब भी चप्पल घसीटते घूम रहे हैं। लोगों में आलस्य और कर्तव्यहीनता इतनी घर कर गई है कि वो कर्म करते रहने का महत्व समझ ही नहीं पाते।
ठंडे महाशय ये भी जानते थे कि जीवन की दूसरी पारी में अगर कोई इंसान फ़िर काम करने की सोचता है तो उसके सामने दो रास्ते होते हैं।
या तो वो ऐसा काम करे जो वो मन में इच्छा होते हुए भी ज़िन्दगी भर कर नहीं पाया, या फिर वो काम करे जो वो करता रहा और जिसका वो विशेषज्ञ बन गया।
ठंडे जी को तो एक लाभ और भी हुआ। लाइब्रेरियन होने के कारण अपनी सीट पर बैठे- बैठे एक से एक बढ़िया किताबें और पत्रिकाएं उन्हें हमेशा पलटने को मिलती रहीं। इसलिए एक से एक नायाब और उम्दा विचार भी उनके जेहन में आते ही रहे।
वरना लोग तो खुद कुछ पढ़ते - लिखते नहीं और जरा - जरा सी बात पर दूसरों से परामर्श करते घूमते हैं। अब दूसरे तो दूसरे ही ठहरे। वो क्यों आपको बेहतरीन सलाह देने लगे?
और दूसरों से सलाह लेने जाओ तो काम पीछे शुरू हो, सारे में बतंगड़ पहले बन जाए। आपके डैने खुले नहीं कि दूसरों का अंधड़ फूंकना शुरू। दूसरे तो आपको शेखचिल्ली के मकबरे ही बना कर दे सकते हैं।
आपको फलते- फूलते देखना थोड़े ही दूसरों को सुहाता है।
लेकिन ठंडे जी के दिमाग़ की गर्मी अभी मंद नहीं हुई थी। दो दिन बीते और उनका पूरा प्लान तैयार हो गया।
ठंडे जी अच्छी तरह जानते थे कि आदमी दो तरह से कमाता है।
या तो कुछ करके चार टके कमाए, या फिर अपने खर्चों में कमी कटौती करके चार टके बचाए। बरकत दोनों ही में है।
तो ठंडे जी का स्टार्टअप यही था कि वो घर के हर ख़र्च में अपना दखल बना कर अपनी और अपने बेटों की मेहनत की कमाई को बचाएंगे। उन्हें हमेशा से ये लगता रहा था कि घर में अनाप- शनाप खर्च होता है और नई पीढ़ी इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती।
हालांकि ये काम पर्याप्त जोखिम भरा था, लेकिन जोखिम के बिना कौन सा उद्योग फलता है।
उन्होंने तय किया कि वो अख़बार या टीवी में आंखें गढ़ाए बैठे रहने वाले सेवानिवृत्त लोगों की लकीर पर नहीं चलेंगे, बल्कि घर के खर्च में एक- एक कौड़ी को दांत से पकड़ कर घर भर पर अपनी जिम्मेदारी की छाप छोड़ेंगे।
ठंडे जी ने अपनी मुहिम शुरू की।
अगले दिन से ही घर की सारी व्यवस्था में एक जलजला सा आ गया।
पत्नी, दोनों बेटे, बहुएं और पोते- पोतियां मानो आज एक नए दादा जी को देख रहे थे।
ठंडे जी ने अपने कमरे को घर के स्टोर रूम में बदल दिया। अपनी मेज कुर्सी को एक ओर खिसका कर बाजार से नई रैक्स लाकर जमाई गईं। उन पर पर्चियां चिपका कर अलग - अलग सेक्शंस बनाए गए। बिल्कुल वैसे ही जैसे वो कभी किताबों के लिए कई खंड अपनी लाइब्रेरी में बनवाया करते थे।
तेल, साबुन, मंजन, शैंपू का खंड, दालों, मसाले, चावल, चीनी और अनाज का खंड, चाय, बिस्किट, नमकीन,पापड़, चिप्स अचार का खंड सब बने।
काम वाली बाई और बहुओं के साथ- साथ उनकी श्रीमती जी को भी ये निर्देश मिले कि अब से वो सब लोग ज़रूरत का सामान इशू करा कर ठंडे जी से ही लें।
ठंडे जी का दावा था कि महीने के अंत में हर मद में भारी बचत देखने को मिलेगी।
सबके दबे - छिपे हंसी- ठट्ठे के बीच ठंडे जी का स्टार्टअप शुरू हो गया।
अब आलम ये था कि घर के बाक़ी लोग रजाई में मुंह ढक कर सोए रहते और ठंडे जी सुबह- सुबह चाय पत्ती, चीनी आदि किफायत से इशू करने के चक्कर में अपने रजिस्टर में सिर गढ़ाए खपे रहते।
उन्हें कभी - कभी ऐसे झटके भी लगते। एक दिन घर में कोई मेहमान थे, किन्तु जब चाय आई तो मेहमान की प्लेट में ठंडे जी को गर्म पकौड़े रखे दिखे और खुद उनकी प्लेट में दो बिस्कुट रखे हुए थे। इधर- उधर देखने पर उन्हें कुछ ही दूरी पर आंखें तरेरती श्रीमती जी को देख कर ये अहसास हुआ कि ये भेदभाव उनके सुबह किफायत से बेसन इशू करने का परिणाम है। वे कुछ न कर सके।
ख़ैर, कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। ठंडे जी ऐसी छोटी - मोटी बातों पर ध्यान न देने के अभ्यस्त होते जा रहे थे।
कहते हैं कि छोटे- छोटे संकटों पर समय रहते ध्यान न दिया जाए तो उन्हें बड़े संकट बनने में देर नहीं लगती।
इस महीने जब बड़ा बेटा महीने का राशन लेकर आया तो उसमें कुछ भारी बड़ी बोरियां भी थीं। एक मजदूर जब उन्हें ठंडे जी के स्टोर में रख कर चला गया तब बेटे ने आकर खुलासा किया कि थोक में अनाज खरीदना बहुत सस्ता पड़ा, बस इसे साफ़ कराके पिसवाना होगा। पैकेट्स तो साफ किए हुए ही आते हैं पर वो काफी महंगे होते हैं।
उसने ठंडे जी से कहा- आप अनाज की सफ़ाई का एक सेक्शन और खोल लीजिए पापा।
ठंडे जी का दिमाग़ एकाएक ये समझ नहीं पाया कि ये उनके स्टार्टअप की प्रगति है या खुद उनकी दुर्गति? पर वो बेटे का उत्साह देख कर चुप रह गए।
घर के सभी सदस्यों का एक दूसरे से इस बचत के बारे में रस ले लेकर बात करना उन्हें अपने ख़िलाफ़ कोई षड्यंत्र जैसा लगने लगा। वे कुछ मायूस हुए। पर कुछ बोल न सके।
अब उनके चौकन्ने रहने के अनुभव ने उन्हें सचेत किया कि उन्हें जल्दी ही कुछ करना चाहिए वरना अपने स्टार्टअप में वो अपनी लाइब्रेरी की नौकरी से भी ज़्यादा व्यस्त होकर फंस जाएंगे।
एक दिन तो हद ही हो गई। ठंडे जी के साढू की सबसे छोटी बेटी की शादी तय हुई थी। उनकी पत्नी फ़ोन पर उन्हें और अपनी बहन को बधाई दे रही थी कि ठंडे जी ने सुना, पत्नी कह रही थी - हां हां, हम सब लोग तो शादी में आयेंगे ही, पर ये तुम्हारे जीजा जी नहीं आ पाएंगे क्योंकि इन्होंने नया नया "स्टार्टअप" डाला है, इन्हें तो बिल्कुल फुरसत ही नहीं मिलती है। बहुत काम है, ये तो हिल भी नहीं सकते हैं यहां से।
ये सुनकर ठंडे जी जैसे आसमान से गिरे।
उन्होंने कभी अपनी नौकरी के दिनों में सुना था कि अगर कोई कर्मचारी चाहे तो वह सेवानिवृत्ति होने से पहले भी अपनी नौकरी छोड़ कर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले सकता है।
ठंडे जी ने आज ही अपनी पत्नी से मिलकर तत्काल फिर से रिटायर होने का प्लान बना डाला, ताकि उन्हें बुढ़ापे में इस झंझट से मुक्ति मिले।
उनकी आंखों में भी नज़दीक के पार्क में जाकर मोहल्ले भर के वरिष्ठ नागरिकों के साथ बैठ कर गप्पें लड़ाने के सपने कुलबुलाने लगे।
- प्रबोध कुमार गोविल