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एकलव्य 2

2 द्रोणाचार्य और गेंद का प्रसंग

जीवन में जब जब प्रोढ़ता यानी कि मृत्यु की निकटता अनुभव होती है, तब तब मानव के चित्त पर पूर्व के कृत्यों की झांकी भाषित होने लगती है। वही झांकी दुःख से निवृत होने के बाद भी कुछ समय तक चित्त में अपना स्थान बनाये रखती हैं।

आचार्य द्रोण प्रतिदिन की तरह चिन्तन में डुबे हुये गंगा स्नान के लिये निकले। उस समय सभी राजकुमार नित्य की तरह उनके साथ थे। ध्यानमग्न आचार्य स्नान करने के लिये कुछ अधिक गहरे जल में प्रवेश कर गये। वे चौंके और उनने अनुभव किया कि अचानक ही उनकी जांघ किसी ग्राह ने पकड़ ली है। शुरू शुरू में तो उन्होंने पूरी ताकत लगाकर ग्राह से छूटनेका प्रयास किया किन्तु वे उसमे असफल रहे। ग्राह उन्हें खींचकर और गहरे पानी में ले जाने लगा। वे आर्त स्वर में लगभग रोते हुऐ से चिल्लाये, ’’ग्राह से मुझे बचाओ ऽऽ, मुझे बचाओ ऽऽऽऽ।’’

उनके वेदना भरे स्वर को सुनकर किनारे पर खड़े सभी राजकुमार किंकर्तव्य विमूढ से हो यहां वहां ताकने लगे। अर्जुन जल से उठते रक्त को देख क्षण भर में यर्थाथ समझ गया। उसने तत्परता से अपना धनुष संभाला और आनन फॉनन में, ठीक नदी के बीच पहुंच कर पांच पैने बाणों से पानी में छिपे ग्राह को बेध दिया। बाणों के प्रहार से तुरंत ही उस विशाल ग्राह का प्राणान्त हो गया।

द्रोणाचार्य संकट से मुक्त हो गये। उन्हें गंगा से बाहर निकाला गया। उनकी जांघ से रक्त का स्राव हो रहा था। राजकुमारों ने इशारा किया तो पीछे खड़ें सेवकों के कंधो पर लाद कर तत्काल ही आचार्य को राजवैद्य के पास ले जाया गया। राजवैद्य ने उपचार आरंभ किया।

कुछ पल बीतने के उपरान्त की बात है ।

उस क्षण आचार्य अपने आप को स्वस्थ अनुभव कर रहे थे।

प्रसन्न द्रोणाचार्य ने समस्त राजकुमारों की उपस्थिति में कहा, ’’वत्स अर्जुन, तुमने सचमुच मेरी प्राण रक्षा की है। तुम पर अति प्रसन्न होने के कारण आज मैं तुम्हे ब्रह्मसिर नामक दिव्य अस्त्र का प्रयोग सिखाऊँगा। यह अमोघ अस्त्र है, इसे कभी किसी साधारण मनुष्य पर प्रयोग न करना। यह सारे जगत को नष्ट करने की शक्ति रखता है।’’

अर्जुन इस समय उनके समक्ष विनीत भाव से हाथ जोड़े खड़ा था। उनकी यह बात सुनकर वह बोला,’’गुरूदेव की आज्ञा शिरोधार्य है।’’

फिर वे प्रसन्नता की मुद्रा में अर्जुन से बोले, ’’ अर्जुन, तब पृथ्वी पर तुम्हारे समान कोई वीर धनुर्धर नहीं होगा।’’

अर्जुन ने नम्रता से अपना शीश गुरूदेव के समक्ष झुका लिया। ध्रतराष्ट्र के पुत्र कौरव इस आशीर्वाद को सुनकर जल-भुन गये। लेकिन वे सब उस समय विवश थे क्योंकि संकट के समय केवल अर्जुन ने गुरूदेव के प्राण बचाये हैं। इसलिए उसके दूसरे भाई भी कौरवों के समान दूर खड़े थे ।

उपचार के उपरांत वापस जाते जाते राजवैद्य कह गये, ’’इस समय आचार्य को विश्राम की आवश्यकता है। इन्हें बिना बाधा पहुंचाये आराम करने दिया जाये।’’

यह सुन कर सारे शिष्य गुरू को प्रणाम करके राजमहल के लिए चल पड़े ।

द्रोणाचार्य अपने अंगों में पीड़ा का अनुभव करते हुये शयन कक्ष में छत की ओर निहारने लगे। उन्हें याद आ रहे थे वे दिन, जब भारद्वाज ऋषि के आश्रम में वे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन्हीं दिनों पांचाल नरेश का पुत्र द्रुपद भी वहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिये आया। दोनों में गहरी मित्रता हो गइ र्थी। दोनों गुरू का दिया हर प्रसाद आधा बांट कर खाते । हर आदेश मिल कर पूरा करते । गुरू उनकी मित्रता से प्रसन्न थे । वे दोनों प्रायः यही संकल्प करते कि वे आजीवन साथ साथ रहेंगे । बातों बातों में एक दिन द्रुपद ने कहा, ‘‘ अब की तरह हम दोनों जीवन में हर वस्तु बांट कर ग्रहण करें गे । मेरे राजा बनने पर आधा राज्य तुम्हारा होगा।’’

निर्धन द्रोण को लगा कि कदाचित यह बात संभव हो जाये तो कितना अच्छा हो !

द्रोण बुदबुदा रहे थे.........अध्ययन समाप्त होने के बाद द्रुपद पांचाल देश का राजा हो गया। भारद्वाज ऋषि ब्रह्मलीन हो गये। मैं वहीं रह कर तप करने लगा। भारद्वाज की पुत्री कृपी से मेरा विवाह हो गया। वे बड़ी धर्मशील हैं। उसके गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हो गया।

उसके बाद मैं भृगुनन्दन परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण करने चला गया। परशुराम जीसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। घर आकर देखा, मेरा परिवार अभावों में अपना समय व्यतीत कर रहा है। नन्हा अश्वत्थामा दूध के लिये वंचित है। मुझसे यह सब देखा न गया। मुझे याद हो आई द्रुपदके वचनों की। मैंने अभावों से मुक्ति पानी चाही और द्रुपद से मिलने पांचाल पहुँच गया।

उसकी राजसभा में द्रुपद से मैंने अपनी बात कही, ’’राजन मैं आपका प्रिय सखा द्रोण हॅू। आपने मुझे पहचान तो लिया।’’

मेरा यह प्रश्न सुनकर द्रुपदचिड़ गया और कहने लगा, ’’ब्राह्मण तुम्हारी बुद्धि अभी परिपक्व नहीं हुई है। अरे ! तुम्हें मुझे अपना मित्र कहने में जरा भी संकोच नहीं लगा। किसी राजा की निर्धन व्यक्ति से कैसी मित्रता ? समय व्यतीत हो जाने पर पुरानी बातें तो स्वतः ही मिट जाती हैं।’’

द्रुपद ने और भी अनेक बातें मुझ से कहीं लेकिन मुझे क्रोध आ गया। उसी दिन मन ही मन मैंने यह निश्चय कर लिया, ’’इसे इसकी सीख जरूर सिखाकर रहॅूगा।’’

यही सोचकर मैं हस्तिनापुर के लिये चल दिया...........।

इसी समय उन्होंने करवट बदली। अंग प्रतिअंग में पीड़ा हो रही थी। याद आया......सोचने लगे.....आज अर्जुन ने उनकी रक्षा न की होती तो द्रुपद से शत्रुता का भाव जीवन के अंत के साथ ही समाप्त हो गया होता। याद आ रही है, उस समयकी जब मैं हस्तिनापुर के बाहर पहॅुंचा। उस समय युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार गेंद खेल रहे थे। मेरे देखते-देखते गेंद संयोग से कुए में जा गिरी। राजकुमारों ने गेंद को कुए से निकालने के खूब प्रयत्न किये, लेकिन वे सभी असफल रहे। निराश राजकुमार एक दूसरे के मुंह की ओर देखने लगे। इसी देखा देखी में उनकी दृष्टि मेरी दृष्टि से टकराई। सभी राजकुमार गेंद के प्रसंग को छोंड़कर मेरे पास आ गये। मुझे घेरकर खड़े हो गये। मैं समझ गया,ये लोग गेंद निकालने में असफल रहे हैं।

मैंने उन्हें अपनी ओर आकर्शित करने के लिये बच्चे समझते हुये भी धिक्कारा, ’’अरे ! कैसा है तुम्हारा क्षत्रिय बल और अस्त्र कौशल ?तुम लोग कुए से एक गेंद भी नहीं निकाल सके। देखो मैं तुम लोगों की गेंद और अपनी यह अंगूठी अभी अभी कुए से निकाल देता हॅू।‘‘

यह कहकर मैने अपनी अंगूठी कुए मे फेंक दी।

मैंने मुट्ठीभर सींकें लीं। धनुष पर चढ़ाकर सीकों के बाणों से, पानी के उछाल के साथ, गेंद को कुएॅ से बाहर निकाला। यह देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले, ’’महोदय, आप अपनी अंगूठी तो निकाल लीजिये।’’

मैंने बाण चलाकर अंगूठी को भी बाहर निकाल लिया। यह आश्चर्य जनक करतब देखकर राजकुमार कहने लगे,’’आप अपना परिचय तो दीजिये। हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?’’

उनका यह प्रश्न सुनकर मैंने कह दिया, ’’तुम लोग मेरा यही परिचय भीश्म जी को दे देना। वे मेरे बारे में सब कुछ जान जायेंगे।’’

मेरी यह बात सुनकर राजकुमार चले गये। उन्होंने भीष्म से कहा होगा। वे समझ गये होंगे कि धनुर्विद्या में शोधरत मैं आ गया हॅू। यह सोचकर उन्होंने मुझे बुलवा लिया।

राजकुमारों को शिक्षा देने के लिये, वे मुझसे आत्मीय निवेदन करने लगे। मेरा बड़ा भारी स्वागत सत्कार किया गया। उन्होंने मुझसे हस्तिनापुर आने का कारण पूछा तो मैंने अपनी सारी अर्न्तवेदना भीष्म जी के समक्ष उड़ेल दी, ‘‘पांचाल देश के राजा द्रुपद ने अध्ययन के समय मुझे बचन दिया था कि जब मैं राजा बन जाऊँगा तब आप मेरे साथ ही निवास करना।मेरा विवाह कृपी से हो गया। मेरे एक सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र है, जिसका नाम अश्वत्थामा है। एक दिन की बात है गौ दोहन के प्श्चात अन्य ऋषि कुमार दूध पी रहे थे। अश्वत्थामा उन्हें दूध पीता देखकर दूध के लिये मचलने लगा। घर में दूध न था। कृपी ने आटा घोलकर दूध के रूप में उसे पीने को दे दिया। वह नादान खुशी-खुशी उस बनावटी दूध को पी गया। दूध पीने की प्रसन्नता के कारण वह नाचने लगा। यह देखकर तो मेरा धैर्य ही टूट गया।

जब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा परम प्रिय मित्र द्रुपदअब पांचाल जैसे राज्य का राजा बन गया है। मैं सहज में ही उसके यहां पहुंचा।मैं उससे मित्र के रूप में परिचय देता हुआ मिला। उसने मुझे सेवक के रूप में स्वीकारना चाहा। उसने अपने राजा होने का अहंकारी भाव व्यक्त करते हुये कहा, ’’धनी व्यक्ति की निर्धन के साथ कैसी मित्रता ? तुम कहते हो मैंने तुम्हें उस समय अपने राज्य में से आधा राज्य देने की बात कही थी। मैं उस बात को पूरी तरह भूल गया हॅू ।’’

बस तब से भीष्म जी, मैं द्रुपदसे शत्रुता का भाव रखने लगा हॅू । उसने मेरा अपमान किया है। उसे पराजित करने की प्रतिज्ञा तो शीघ्र ही पूर्ण करूँगा लेकिन अभी गुणवान शिष्यों की खोज में यहाँ आया हॅू।

मेरी यह बात सुनकर भीष्म जी ने कहा, ’’आचार्य आप अपने धनुष की डोरी उतार लीजिये। आप हमारे इन राजकुमारों को धनुर्विद्या और अस्त्रों की शिक्षा दीजिये। हम सब आपकी सेवा में रहेंगे।’’

उसी दिन मैं समझ गया, ’’मेरे अन्दर द्रुपद से प्रतिशोध लेने की जो अग्नि प्रज्जवलित हो रही है, उसे यहीं शान्त किया जा सकता है। यहॉ रहकर ही मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर पाऊॅगा।’’

यही सोचकर मैंने राजकुमारों को शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया।

एक दिन मैं अपने अंतर मन में पल रही प्रतिशेाध की भावना को दबाकर नहीं रख सका। अपने शिष्योंसे पूछ बैठा, ’’अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा समाप्त होने के पश्चात तुम लोग मेरी इच्छा की पूर्ति कर सकोगे ?’’

सब राजकुमार मेरी बात सुनकर चुप रह गये, क्योंकि वे मेरी इच्छा और द्रुपद की शक्ति से पूर्ण रूप से परिचित थे। उस दिन अर्जुन ने बड़े उत्साह के साथ उत्तर दिया, ’’मैं आचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता हॅू ।’’

उस दिन मैं आनंद विभोर हो गया। अपने इस प्रिय शिष्य को छाती से लगा लिया।

उस दिन मुझे विश्वास हो गया कि मेरे प्रतिशोध को यही अर्जुन चुकता कर पाएगा। यही सोचकर उस दिन से मैंने उसे कुछ गोपनीय अस्त्र-शस्त्र देना प्रारंभ कर दिये।

उस समय मेरे शिष्यों में अनेक दूसरे राजकुमार भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मैं शिक्षा देने में किसी से कोई भेद भाव नहीं रखता। अश्वत्थामा तथा अर्जुन दोनों ही चतुर थे। उनकी चतुरता शीघ्र ही प्रमाणिक हो गयी क्योंकि मैं हर सुबह आश्रम के लिये जल लेने शिष्यों को भेजता। अश्वत्थामा ने अपनी चालाकी से बडे मुंह का पात्र ले लिया। अर्जुन उसकी यह चाल देखकर सब कुछ समझ गया। अर्जुन ने भी वैसा ही पात्र जल लाने के लिये ले लिया। परिणाम यह हुआ कि वे दोनों ही अन्य शिष्यों की अपेक्षा शीघ्र जल भरकर लौट आते और मुझसे पाठ शुरू करने का आग्रह करते। इस तरह दोनों अन्य शिष्यों की अपेक्षा अधिक पारंगत होते चले गये।

...........आज नींद नहीं आ रही है। याद आ रही है उस दिन की, जब रात्रि के गहरे अंधकार में अर्जुन की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर मैं उस ओर चला गया। अंधेरे में मैं क्या देखता हॅू, अर्जुन इस गहरे अंधकार में, बाणचलाने का अभ्यास बड़ी तल्लीनता से कर रहा है। यह देखकर मैं आनन्द विभोर हो गया। मुझे अपना लक्ष्य बहुत ही निकट दिखाई देने लगा। मैंने उस दिन भी अर्जुन को अपनी छाती से चिपका लिया। उसे आशीर्वाद दिया।

उस दिन यह आशीर्वाद मेरे मुंह में आकर अंटक गया था, ’’बेटा अर्जुन मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि तुम्हारे समान कोई धनुर्धर न हो।’’

आज जब उसने मेरे प्राण बचाये हैं, यह बात उससे कह गया हॅू कि तुम्हारे समान कोई धनुर्धर न होगा।यह मैं तुमसे सत्य सत्य कहता हॅू । मैंने अनुभव किया है कि मेरी यह बात सुनकर कौरव राजकुमारों के मुख निस्तेज हो गये। हृदय में सुसुप्त पड़ा भाव आज अनायास ही वरदान के रूप में निस्सृत हो गया है। इसे पूर्णकरने के लिये मैं अपना तन मन एक कर दॅूगा। जो हो अर्जुन श्रेष्ठ धनुर्धर बनकर ही रहेगा।

अचानक धारणा ध्यान से निवृत्त होकर कृपी ने कक्ष में प्रवेश किया। उन्होंने अनुभव किया स्वामी अभी जाग रहे हैं। उसने प्रश्न किया, ’’स्वामी आज किस विषय में सोच रहे हैं।’’ मैंने उत्तर दिया, ’’देवी कृपी आज अर्जुन के कारण ही मेरे प्राण बच पाये हैं। मैंने अनुभव किया है जब अर्जुन पानी में डूबे ग्राह को इतनी सफलता पूर्वक मार सकता है तो साक्षात व्यक्तियों और लक्ष्यों को तो वह अंधेरे में भी बेध देगा। नियचय ही उससे श्रेष्ठ धनुर्धर कोई नहीं हो सकता। इसी कारण उसके लिये सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद निकल गया। प्राण बचाने के उपलक्ष में उसे कुछ तो देना ही था।’’ मेरी यह बात सुनकर देवी कृपी गंभीर होते हुये बोली, ’’स्वामी आपको यह कहावत स्मरण में होगी, कि खोजने निकलें तो संसार गहरा होता जाता है। आपने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठधनुर्धर होने का आशीर्वाद कैसे प्रदान कर दिया। कल कोई उससे श्रेष्ठ धनुर्धर निकल आया तो क्या आप मिथ्याभाषी नहीं हो जायेंगे ?’’

उसकी यह बात सुनकर मैंने सफाई देते हुये कहा, ’’ग्राह को मारते समय सभी राजकुमार देखते रह गये। उसमें अकेला अर्जुन सफल हुआ। देखना देवी कृपी मेरे शिष्यों में अर्जुन से श्रेष्ठ कोई धनुर्धर नहीं होगा। मुझे इस घटना से सभी शिष्यों के अन्तस् में झांकने का अवसर तो मिल ही गया। मैंने सभी को अच्छी तरह समझ लिया। इस जगती में जो जो लोग धनुर्धर होने के यतन में है, वे सब मेरी निगाह में है, उनमें से कोई अर्जुन जैसा लगनशील नहीं है । इसीलिये मेरी बात कभी अन्यथा नहीं जा सकती।’’

उत्तर सुनकर कृपी ने धीमे स्वर में कहा- संसार का सर्वश्रेष्ठ अथवा शिष्यों में सर्वश्रेष्ठ। कहीं न कहीं तो समझने में चूक हो ही गई है। अधिक भावुकता में भूल होना स्वाभाविक है। स्वामी, आप तो भगवान परशुराम जी के शिष्य हैं। आपने बहुत सोच विचार करने के पश्चात ही अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया होगा।

एक पल रूक कर कृपी बोली-‘‘अश्वत्थामा भी तो किसी से कम नहीं है। उसे ही यह आशीर्वाद प्रदान कर देते। अर्जुन से इतना मोह, उसकी सेवा भावना के कारण ही उत्पन्न हुआ है। आज उसने स्वामी आपके जीवन की रक्षा की है। इस निमित्त अर्जुन को कुछ न कुछ तो देना ही था। मुझे अर्जुन की तुलना में वत्स अश्वत्थामा कम नहीं लगता। उसमें कमी है तो यह कि उसके पिताजी स्वयं उस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। क्या सभी आचार्य ऐसे ही होते हैं ? अपने बच्चों पर उतना ध्यान नहीं देते, जितना अन्य शिष्यों पर देते हैं। यदि ये लोग अपने बच्चों पर भी उतना ही ध्यान देने लगें तो इन आचार्यों की वंश बेल ही परिवर्तित हो जायेगी। आप लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती ?’’

यकायक कृपी के मन में बैठी मॉ ने सोचना शुरू किया है-लेकिन अर्जुन की कलगन चाहे कुछ भी हो मुझे तो अपने अश्वत्थामा का सोच है। कैसे वह संसार में अपना स्थान बना पाता है ? स्वामी आपसे इस बारे में क्या कुछ नहीं कह चुकी, पर आप सुनते ही नहीं हैं। आपको तो अर्जुन ही अर्जुन दिखाई देता है। पांचाल नरेश से शत्रुता का कोई औचित्य ही मेरी समझ में नहीं आता। वह अपनी बात पर स्थिर नहीं रहा, तो इससे उसी का सम्मान कम हुआ है यह बात स्वामी से कौन कहे ? यदि कुछ कहती हॅू तो कह देते हो, ’’देवी कृपी तुम इन रहस्यों को नहीं समझतीं।’’

कृपी फिर अपने आप से बोली -‘‘ मैं भी कैसी हॅू जो स्वामी के बारे में क्या क्या सोचने में लगी हॅू। उधर स्वामी सोच में हैं, इधर मैं। अब शायद स्वामी सो गये। मैं भी सोने का प्रयास करूँ।’’ यह कहकर देवी कृपी आँख बन्द करके अपनी शैया पर जा लेटीं।