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एकलव्य 11

11एकलव्य का भक्ति भाव

‘‘ जिसके लिये हम जी जान से अपना सर्वस्व निछावर करने के लिये उद्यत रहते है, वही हमारे सामने यु़द्ध करने के लिये शस्त्र लेकर खडा हो जाय। कैसा लगेगा उस समय ? हमें लगेगा, उसे हराकर अपने अस्तित्व का एक बार और बोध करा दें।” आचार्य द्रोण बिस्तर पर पड़े पड़े यही सब सोचने लगे कि हम राजसभा और आचार्यों को लेकर बैठे रहे। पाण्डवों के तेरह वर्ष पूर्ण होने की गिनती नहीं कर पाये। युद्धभूमि में यदि भीष्म पितामाह से यह प्रश्न न किया जाता तो शायद उस समय भी हमें काल का बोध न हो पाता। अरे ! जिसे समय का बोध न रहे उसे कभी सफलतायें न मिली हैं, न मिल पायेंगीं। जब हम उनसे विराट के यहां युद्ध करने पहुंचे, उस समय तेरह वर्ष से पांच माह और बारह दिवस का समय अधिक हो गया। इसी कारण अर्जुन गाण्डीव धनुष के साथ सामने आया और कृपाचार्य को युद्धभूमि से हटना पड़ा।

उस समय अर्जुन अपना रथ मेरे रथ के पास ले आया। उसने मुस्कराकर मुझे प्रणाम किया और कहने लगा, “हम तेरह वर्ष से वन वन भटकते रहे हैं। अब हम सब शत्रुओं से बदला लेना चाहते हैं, आपको हम लोगों पर क्रोध नहीं करना चाहिये।”

इस तरह की प्यार भरी बातों से अर्जुन ने मुझे युद्धभूमि से हटाना चाहा। क्या कहने लगा था अर्जुन, “गुरूदेव, आप जब तक मुझ पर पहले आक्रमण नहीं करेंगे तब तक मैं आप पर आक्रमण नहीं करूंगा।”

वार्तालाप में कितना प्रवीण हो गया है अर्जुन। उसने मुझे पहले आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया। युद्धभूमि में मैं कैसे पीछे हटता ? मुझे उस पर विवश होकर पहले आक्रमण करना पड़ा। मेरे बाण अर्जुन तक पहुंच पात,े तब तक उसने शीघ्रता से बाण चलाकर उन्हें ध्वस्त कर दिया। उसके पश्चात् तो अर्जुन ने अनेक बाणों की वर्षा करते हुये अपना अदभुत हस्तलाधव दिखलाया। उसने मेरे घोड़ों को घायल कर दिया। आज विश्व में अर्जुन के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हैं जो मेरा सामना कर सके।

अर्जुन ने मेरे रथ को बाणों से ढंक दिया मेरा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। सारथी मुझे युद्धभूमि से बाहर ले आया। इसके पश्चात तो अर्जुन का साहस और बढ़ गया। उसने अश्वत्थामा और कर्ण आदि को भी युद्ध भूमि में परजित कर दिया।

उन्होंने करवट बदली। वे फिर सोचने लगे, “आज यदि एकलव्य का अंगुष्ठ न कटवाया

होता तो इस धरती पर मेरे शिष्यों में एकलव्य ही होता जो अर्जुन को परास्त कर सकता। सुना है वह भीमसेन की तरह गदा संचालन में प्रवीण हो गया है। आज एकलव्य मेरी इस दुर्दशा के बारे में सुनेगा तो आग बबूला हो जावेगा। मेरा बदला चुकता करने के लिये युद्धभूमि में पहुंच जायेगा....किन्तु उस समय मेरी अपनी बुद्धि ही मारी गई। कितनी श्रद्धा और भक्ति है उसमें। मैंने उसका अंगुष्ठ ही नहीं लिया बल्कि उसके श्रद्धा और विश्वास को भी छीन लिया। आने वाले समय में लोग गुरू के प्रति श्रद्धा और विश्वास पर सन्देह करेंगे। यह सब मेरा ही दोष हैं। एकलव्य का अंगुष्ठ मैंने शायद इसलिये गुरूदक्षिणा में ले लिया क्योंकि वह शूद्र था या यों कहें कि वनवासी था, आदिवासी था, असंस्कारी था। यदि देश में इस शिक्षा पद्धति का चलन चलता रहा तो देखना, गुरूओं की यही दशा होगी, जो आज मेरी हो रही है। मुझे अपने शिष्यों को दया, प्रेम और भ्रातृभाव की शिक्षा देना चाहिये थी। मैं अपने शिश्यों को, इन गुणों के महत्व को बतलाये बिना शस्त्रों से सुसज्जित करता चला गया। क्या परिणाम निकला है ? आज कौरव और पाण्डव आमने सामने खड़े हैं, इसमें दोष किसके मत्थे मढ़ा जायेगा ? निश्चय ही सारे वातावरण में जहर घोलने का कार्य मुझसे ही हुआ है। आज मेरी ही बुद्धि कुन्ठित हो रही हैं। मैं न्याय का पक्ष भी नहीं ले पा रहा हूँ। आताताई कौरवों के पक्ष में युद्ध करने के लिये खड़ा हो रहा हूँ। इनमें कहीं कोई मर्यादा नहीं बची है। पिता-पुत्र, गुरू-शिष्य, भाई-भाई सभी एक दूसरे को शत्रु की तरह देखने लगे हैं। पाण्डवों में अभी भी धर्म कर्म शेष हैं। मैं हूँ कि सुविधा भोगी होने के कारण पाण्डवों के साथ नहीं जा पा रहा हूँ। पता नहीं किस यन्त्र ने मुझे कौरवों से बांध दिया है। मैं केवल अपनी ही व्यथा क्यों कहूँ ? भीष्मपितामाह, कृपाचार्य आदि भी तो इस विवशता के कारण उनके पक्ष में हैं। कोई भी व्यक्ति दलित और अधिकार वंचितो की बात नहीं करता है। सब लोग क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्यों की ही चिन्ता करते हैं।

असत्य सत्य को कैद करने के लिये, उसके दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया हैं। वह कभी सत्य को कैद कर पायेगा इसमें सभी को सन्देह है फिर भी लोग जाने क्यों असत्य के घेरे में बंधे हुये हैं। सान्दीपनी आश्रम की शिक्षा पद्धति, मुझ द्रोण के चित्त में द्वन्द उपस्थित करती रहती है। वहां से प्रेम और सौहार्द्र भारत वर्ष के कोने कोने में पहुँच रहा हैं और यहां आपस में द्वेषभाव बढ़ते जा रहे हैं। यदि भारतवर्ष को सुदृढ़ बनाना है तो इस तरह की शिक्षा पद्धति को बन्द कर देना चाहिये। तो ही इस देश का सांस्कृतिक अस्तित्व शेष रह पायेगा।

भारतवर्ष में उठ खड़ी हो रही इस नई चेतना का हमने अंगुष्ठ ही कटवा लिया। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस घटना के पश्चात भील जातियों के अंगुष्ठ प्रयोग न करने के निर्णय ने तो, एक नई चेतना ही उत्पन्न कर दी। रहस्य की बात यह है कि बड़े वीर कहे जाने वाले दुर्योधन और कर्ण द्रुपद को बन्दी बनाकर क्यों नहीं ला पाये ? इसका एक मात्र कारण जो मेरी समझ में आ रहा है वह है, इन भील जातियों ने द्रुपद का साथ दिया। यदि एकलव्य भी उसका साथ दे देता तो मैं जीवन भर द्रुपद को अपनी शक्ति का बोध नहीं करा पाता। इतने सारे घटनाक्रम के बाद भी आज एकलव्य में भक्ति भाव है। आश्चर्य की बात ही है।

इसी समय कृपी ने कक्ष में प्रवेश किया। उसने देखा पति चिन्तन में हैं। यह सोचकर बोली, “स्वामी अब सोचते रहने से क्या लाभ ? दुर्योधन युद्ध की घोषणा कर चुका है। देश के सभी राजाओं के पास युद्ध में सम्मिलित होने के निमन्त्रण भेज दिये गये। आज सम्पूर्ण देश दो हिस्सों में बंटता चला जा रहा है। यह आग अब शान्त होने वाली नहीं है।”

“आप ठीक कहती हैं देवी कृपी, अब मैं क्या करूं ? अश्वत्थामा को दुर्योधन ने अपने पक्ष में ले लिया है। वह जानता है कि बेटे को साथ में बनाये रखो, पिता को विवश होकर उन्हीं के साथ रहना पड़ेगा।”

“स्वामी हमारे लिये तो सब शिष्य बराबर हैं। अब इस कुचक्र से निकल पाने का कोई रास्ता भी तो दिखाई नहीं दे रहा है।”

“देवी कृपी, रास्ता तो है किन्तु ..............।”

“स्वामी ऐसा कौनसा पथ है जिससे हम इस कीचड़ से बच सकें।”

“देवी, एक ही पथ शेष है और वह है-एकलव्य का।”

“स्वामी उसका क्या अस्तित्व ?”

“देवी, ऐसा न कहें, वह देश में आज तीसरी शक्ति के रूप में उभर चुका है। मेरी दृष्टि में उसके पास भी किसी न किसी के द्वारा जरूर बुलावा गया होगा। देखना देवी कृपी, वह जिसके साथ होगा विजय श्री उसी का वरण करेगी।”

’स्वामी वह किसके साथ जा सकता है ?’

“देवी, उसके मन में वही एक श्रेष्ठता का कांटा खटक रहा होगा।”

“आपके कहने का आशय है-आपकी बात को लेकर अर्जुन से वैमनष्यता, यह तो गुरूद्रोह है।”

“कैसा गुरूद्रोह ? उसे सब कुछ ज्ञात हो गया होगा कि अर्जुन ने विराट के युद्ध में गुरूदेव को पराजित कर दिया। इसीलिये वह दुर्योधन के साथ आ सकता हैं।”

“आप उसके पास युद्ध का बुलावा क्यों नहीं भेज देते ?’

“देवी, मैं नहीं चाहता, वह किसी का भी साथ दे। मेरे मन में तो यह बात आती है कि मेरा बेटा समझदार हो चुका है इसलिए अश्वत्थामा जहां रहना चाहे रहे, मैं इन दिनों एकलव्य के यहां चला जाता हूूं।”

“स्वामी ऐसा न करना। यदि वह युद्ध में सम्मिलित नहीं हो रहा है और आपके उसके यहां पहुंच जाने के पश्चात् भी आप युद्ध से नहीं बच पा रहे है। उसे आपके साथ रहना पड़ेगा। यदि उसे कुछ हो गया तो दोषी आप ही माने जायेंगे। लोग कहेंगे द्रोणाचार्य ने एकलव्य की हत्या कर दी।’’

“ऐसा न कहें देवी, मुझे ज्ञात हो गया हैं कि वह आज भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों एवं गदाधरों में से एक है। सुना है उसकी पत्नी भी महान धनुर्धर है,उसका प्रण था कि वह विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर से ब्याह करेगी । मेरे अंगुष्ठ दक्षिणा में लेने के पश्चात ही तुरन्त उसने एकलव्य से विवाह कर लिया, अर्थात उसने एकलव्य को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मान लिया। एकलब्य ने भी इन दिनों अपने हाथ में से अंगुष्ठ के बिना ही उसी गति से धनुष संधान करना सीख लिया है ।”

“अरे ! इतना योग्य और शक्तिशाली है वह, तब तो हमें वहीं ...............।”

“नहीं देवी, जो हो हम अश्वत्थामा को छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। मैं तो युगों युगों से शिष्य मोह में, अब पुत्र मोह में बँधा हुआ जीवन व्यतीत कर रहा हॅूं। सम्भव है इसी मोह में ही मेरी मृत्यु भी हो जाये।”

“स्वामी, ऐसा अशुभ बोलने में आपको संकोच नहीं लगता।”

“देवी, मुझे जो आभास हो रहा है मैने वही कहा है।”

यह सुनकर कृपी इस दुखद प्रसंग को सामने से हटाने के लिये स्वयं हट गई।

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