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एक दुनिया अजनबी - 44

एक दुनिया अजनबी

44 -

जाने कितनी देर पहले नीचे से गरमागरम नाश्ता आ चुका था लेकिन सब चर्चा में इतने मशगूल थे कि हाथ में पकड़े कॉफ़ी के मगों के अलावा किसीने नाश्ते की तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखा था | कॉफ़ी भी शायद ही किसी ने पूरी पी हो|वातावरण कुछ अधिक ही तनावपूर्ण हो गया था |

मंदा मौसी ने घंटी बजाई, चंद मिनटों में नीचे से लड़का हाज़िर हो गया |

"सुरेश ! ये सब समेट लो और बाबू से कहना अम्मा और मेहमान नीचे ही डिनर करेंगे --"

"जी--"कहकर सुरेश मेज़ पर से सामान उठाने लगा |

मिनटों में उसने मेज़ साफ़ कर दी, वह सब समेटकर ले गया |

जॉन के आत्मविश्वास को सब महसूस कर रहे थे | फिर भी सुनीला के चेहरे पर असंतुष्टि की रेखा खिंची हुई थी |

कुछ देर ऐसा लगा मानो कुछ कहने को शेष ही न रह गया हो |सब चुप से थे | कभी-कभी जहाँ अधिक बोलने से मन व मस्तिष्क भारी हो जाते हैं वहीं कभी -कभी इतने लोगों के बैठने के उपरांत भी जब चुप्पी वातावरण को काटने लगती है तब असहजता का होना स्वाभाविक हो जाता है |

"इतना भारी वातावरण ! कुछ अजीब नहीं लग रहा है ? "जॉन ने बड़ी शांति से वातावरण के भारीपन को हल्का करने की चेष्टा की |

फिर भी सब चुप ही बने रहे |

"चलो, तुम्हें 'मेडिटेशन सेंटर' दिखाकर फिर नीचे चलेंगे |" मंदा मौसी ने कहा उठकर खड़े हो गए और कमरे का दरवाज़ा खोलकर उस लॉबी में प्रवेश करने लगे | आगे-आगे मंदा मौसी थीं, उनके पीछे सुनीला और निवेदिता !सबसे पीछे प्रखर व जॉन थे |

"आपकी मम्मी कहाँ हैं प्रखर ? "

प्रखर चौंक गया, अचानक माँ के बारे में क्यों पूछ रहे थे जॉन ?

" वो मेरी बहन के यहाँ हैं ----"

" आप सब भारतीयता में बहुत अधिक विश्वास रखते हैं, आपके यहाँ तो माँ बेटी के यहाँ नहीं रहती न ? "जॉन कुरेदने का प्रयत्न कर रहे थे |

क्षण भर को प्रखर नेजॉन के मुख को ताका, क्यों पूछ रहा है ये बंदा ?

"समय व परिस्थिति सब करवा देती है --माँ कौनसा अपना घर छोड़कर कहीं और रहने जाना चाहती थीं ? लेकिन ---"

"हूँ--यह तो ठीक है समय के सामने किसीकी नहीं चलती लेकिन फिर भी हम कुछ चीज़ों में अड़े ही तो रहते हैं ---"जॉन ने एक लंबी श्वाँस खींची |

"आप मुझे रिमार्क कर रहे हैं मि.जॉन ? "चलते-चलते सुनीला ने पीछे चेहरा घुमाया |

"नहीं, मैं किसीको भी रिमार्क नहीं कर रहा, सीधे-सीधे कह रहा हूँ कि जिस माँ ने प्रखर, इनके परिवार के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया, उसके प्रति इनकी भी कोई ज़िम्मेदारी थी? "

"लेकिन मैं तो खुद ही ---" प्रखर से कुछ कहते नहीं बन रहा था |

"यह भाग्य है मेरा, प्रारब्ध ---" जिसे हमें झेलना ही होता है |

" बिलकुल सही है, प्रारब्ध है पर यह भी तो प्रसाद है, प्रकृति का प्रसाद, आप अपनी माँ को भी प्रसाद रूप में, एक बेटे के रूप में मिले --फिर यदि हम चिंतनशील हैं तो हमें अपने से जुड़े हुए रिश्तों के बारे में भी तो सोचना होगा, जैसे माँ के लिए आप प्रसाद वैसे ही वो आपके लिए प्रसाद ! " जॉन गंभीर थे |

"हम अपने कर्तव्यों से पीछा छुड़ा लेते हैं, अपने प्रारब्ध की बात करके --पर अगर माँ-बाप अपनी इच्छाओं की कुर्बानी देकर बच्चों को अपनी हैसियत से अधिक उनका पालन-पोषण करते हैं तो बच्चों का भी कुछ कर्तव्य बनता है कि नहीं ? वो भी तो अपनी इच्छाओं को दबाकर आपको पालने के लिए ऐसे ही छोड़ सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया | "

प्रखर की समझ में बिलकुल भी नहीं आ रहा था कि इस समय जॉन ने उसकी माँ की बात क्यों की है ?

" मैं केवल यह कहने की चेष्टा कर रहा हूँ कि हमारे भारतीय समाज में विदेशों का वातावरण क्यों बनता जा रहा है ? क्यों ‘ओल्ड-एज होम्स’ की ज़रूरत बढ़ती जा रही है भारत में ? हम अपने अधिकार के प्रति सचेत हैं पर अपने कर्तव्य के प्रति नहीं ----" कुछ रुककर बोले ;

"यदि यहाँ पर अधिकार व कर्तव्य एक ही पंक्ति में खड़े होते तो इतने वृद्ध-आश्रमों की ज़रुरत ही न होती |"

"लेकिन मेरी माँ वृद्ध आश्रम में नहीं हैं, वो मेरी बहन के घर पर हैं और आनंद में हैं | " प्रखर कठोर प्रश्न का सामना करने की जगह निकल भागने में सदा तत्पर रहता |

"क्या आपने उनसे कभी जानने की कोशिश की, वो क्या चाहती हैं ? "

प्रखर के पास कोई उत्तर न था |

"सुनीला, मैं समझता हूँ आपके मन के शक्को-शुबह लेकिन किसी भी चीज़ के दो पहलू होते हैं ये तो आप स्वीकार करती हैं ? "

चुप्पी देखकर जॉन फिर बोले ;

"हमारे कोई अपने नहीं हैं और पूरा संसार अपना है | मैंने अपने जीवन में इतनी मुश्किलें नहीं झेलीं जितनी मंदा ने और मंदा जैसे लोगों ने --हाँ, हमें ऐसा लगा कि इस वर्ग के लिए भी इस प्रकार की एक व्यवस्था होनी चाहिए, कुछ साधना व मेडिटेशन होना चाहिए जिससे उनके मन की हीन भावना निकल सके, इस जाति में जन्म लेकर हम सबने कोई अपराध नहीं किया है |"

कुछ देर की चुप्पी के बाद मंदा मौसी बोलीं ;

"जॉन ! आप जानते हैं सुनीला की माँ मृदुला की कहानी और यह भी कि सुनीला अगर चाहती तो वहाँ से हट भी सकती थी लेकिन उसने खुद से यह वायदा किया कि वह उन सबको छोड़कर नहीं जाएगी जिन्होंने उसकी माँ को व उसे पाला, पोसा --इतना प्यार दिया ---"

"यही मानवीयता है, ह्यूमेनिटी !"

अब तक लॉबी से जुड़ा हुआ वह खूब बड़ा सा हॉल आ चुका था, पूरी लॉबी में बड़े-बड़े संत महात्माओं की विशाल सुंदर काँच के फ़्रेम में मढ़ी हुई तस्वीरें थीं जिन पर प्रखर व और सबकी दृष्टि बंधी हुई थी|प्रखर का मन ऊपर-नीचे होने लगा, सच ही तो है | यह विदेशी व्यक्ति कहाँ ग़लत बोल रहा है ?

सब लोग हॉल के अंदर प्रवेश कर चुके थे, प्रखर ही बाहर खड़ा किसी सोच में गुम था |

आदमी कभी अकेला नहीं रहना चाहता, वह उम्मीद करता है कि उसका ध्यान रखने वाला, उसकी सब ज़रूरतों का ध्यान रखने वाला कोई हो, साथ ही यह भी तो ज़रूरी है कि वह भी अपने से जुड़ों का ध्यान रखे |

लेकिन यहाँ वह चूक जाता है, स्वार्थी हो जाता है वह !

हॉल का पट खुलते ही सब भीतर प्रविष्ट हो गए, सबके मन में विचार एक लेकिन उसके चिंतन अलग-अलग !

जॉन बड़ा कॉमन सा नाम ! पता नहीं कितने जॉन होंगे किन्तु कॉमन में भी कुछ तो अनकॉमन होता है |

आत्मविश्वास से भरा था वह !

"अच्छा ! काम हम स्वयं गलत करें और मटका फोड़ दें किसीके भी सिर पर ? "जॉन ने कहा |

"मैं मिला हूँ आपकी माँ से प्रखर, वह दुखी बिलकुल भी नहीं हैं लेकिन वह यह अवश्य सोचती हैं काश! उनका बेटा अपने कर्तव्यों पर खरा उतर पाता !