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एकलव्य 18

18महावीर बर्बरीक

कौरव पाण्डवों के युद्ध उनके जीवन ओैर उनके विचारों के बारे में जन जन में नाना प्रकार की कथायें प्रचलित थीं ।

निषादमुनि, पुरम के एक मोहल्ले में एकत्रित हो गये लोगों को, ऐसी ही एक जन श्रुति सुना रहे थे कि मुरदानव की कामकटंकटा नाम की परमसुन्दरी कन्या थी। उसने शर्त रखी कि जो वीर मुझे पंजा लड़ाने में हरा देगा। मैं उसी के साथ विवाह करूँगी। यह प्रण सुन कर अनेक पराक्रमी वीर आये और हार मान कर चले गये। परमवीर घटोत्कच भी आया।

उपस्थ्ति लोगों ने एकस्वर में मुनि से पूछा, कौन घटोत्कच ?

मुनि ने सुनाया -वनवास और अज्ञातवास के दिनों में महावीर पाण्डुननन्दन भीमसेन ने हिडिम्बा नामकी राक्षसी से विवाह किया था। उससे इस महाबलशाली पुत्र घटोत्कच का जन्म हुआ। यह घटोत्कच बड़ा मायावी था सो दिन दूना और रात चौगुना बढ़ने लगा । जल्दी ही वह जवान हो गया और इस कन्या कामकंटका को पंजा लड़ाने में हराकर घटोत्कच ने मुरदानव की पुत्री कामकटंकटा से विवाह किया। जिससे बर्बरीक नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

बर्बरीक का नाम सामने आते ही यत्रतत्र इस नाम की चर्चा सुनाई पड़ी। पुरम के लोगों ने यह नाम सुन रखा था ।

मुनि ने बताया-बर्बरीक जन्म से ही विजयी धर्मात्मा एवं वीर पुरूश था।

एक बार घटोत्कच उसे अपने साथ लेकर श्रीकृष्ण से मिलने द्वारकापुरी गये। बर्बरीक ने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, ‘‘हे मामाजी संसार में अनेक कल्याणकारी मार्ग हैं। कोई ज्ञान को, कोई तप को, कोई धन को, कोई भोगों को, कोई योग को और कोई मोक्ष को, इन सैंकड़ों श्रेष्ठमार्गों में से सभी अपने अपने मन के अनुसार श्रेष्ठ बतलाते हैं। श्रीमान मुझे मेरे कुल के अनुरूप श्रेष्ठ मार्ग सुझायें।’’

श्रीकृष्ण प्रश्न सुनकर एकक्षण तक विचार मुद्रा में रहने के बाद बोले, ‘‘बेटा वैसे तो सभी मार्ग श्रेष्ठ है किन्तु तुम्हारे क्षत्रिय कुल उत्पन्न होने से अतुलनीय बलप्राप्ति का उद्योग करो और महीसागर संगम तीर्थ जाकर देवर्षि नारद द्वारा लायी हुई नव दुर्गाओं की आराधना करो।’’

उनका आदेश पाकर वह उन देवियों की आराधना करने चला गया। आराधना से प्रसन्न होकर देवियों ने उससे प्रत्यक्ष होकर कहा, ‘‘तीनों लोकों में जो बल किसी में नहीं है ऐसा दुर्लभ अतुलनीय बल हम तुम्हें प्रदान करते हैं। कुछ समय यहीं निवास करो। यहाँ विजय नामक के ऋषि आयेंगे। उनके संग से तुम्हारा और अधिक कल्याण होगा।’’

आज्ञा के अनुसार बर्बरीक उस समय तक वहीं रहकर साधना करता रहा। जब मगध देश से विजय नामक ऋषि वहाँ आये और विद्याओं की सफलता के लिये बहुत दिनों तक देवियों की उपासना करते रहे। बर्बरीक सावधानी से उनकी रक्षा करने लगा। उसने उनके तप में विघ्न पहुँचाने वाले रोपलेन्द्र नामक महादानव और द्रुहद्रुहा नामकी राक्षसी का सहज ही संहार कर दिया।

पाताल जाकर उसने पाताल में नागों को पीड़ा पहुँचाने वाली पलाशी नाम के भयानक असुरों को रोंदकर यमलोक भेज दिया। इससे वासुकि उससे प्रसन्न हो गये। नाग कन्यायें उस पर मोहित हो गई। उन्होंने बर्बरीक के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा किन्तु उसने बताया कि मैंने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है इसलिए विवाह संभव नहीं हैे। यह कह कर वह तपस्थली लौट आया औेर विजय ऋषि के तप पूर्ण होने की प्रतीक्षा करने लगा ।

अज्ञातवास के समय में भटकते हुए पाण्डव द्रोपदी सहित उस तीर्थ में पहुँचे। उस देवी के दर्शन कर हारे थके वहीं बैठ गये। बर्बरीक उन दिनों वहीं था किन्तु वे एक दूसरे को पहिचान नहीं सके। प्यास से पीड़ित भीमसेन कुण्ड में जल पीने उतरे। थकान मिटाने के लिए पहले उस कुण्ड में उन्होंने हाथ पैर धोये। इसे देख बर्बरीक ने उसे डांटकर कहा, ‘‘तुम देवी के कुण्ड में हाथ पैर धोकर जल को दूषित कर रहे हो। मैं देवी को इसी के जल में प्रतिदिन स्नान कराता हूँ। तुम्हें इतना ज्ञान नहीं, फिर व्यर्थ तीर्थों में क्यों घूमते हो।’’

भीमसेन गरजे, ‘‘अरे मूर्ख! ये जल स्नान के लिये है। तीर्थ में स्नान करने की आज्ञा है।’’

बर्बरीक ने उसी भावभूमि से उत्तर दिया, ‘‘लेकिन जिन सरिताओं या स्रोतों का जल बहता है ऐसे तीर्थों में जल के भीतर जाकर स्नान करने की विधि है। कूप और सरोवर से तो जल लेकर बाहर स्नान करना चाहिये।’’

बर्बरीक की शास्त्र सम्मत बात पर भीमसेन ने ध्यान नहीं दिया। यह देख कर गुस्साये हुए बर्बरीक ने वहां पड़े पाषाणखण्ड उर्ठाए ओर उन पाषाण खण्डों से भीम के मस्तक पर प्रहार करना शुरू कर दिया। आघात बचाकर भीमसेन कुण्ड से बाहर निकले और दोनों में मल्ल युद्ध हुआ। दो घड़ी में भीमसेन दुर्बल पड़ गये। बर्बरीक ने भीमसेन को सिर पर उठाया और समुद्र में फेंकने के लिये चल पड़ा। मार्ग में उसे एक जटाजूट धारी महात्मा दिखे। महात्मा ने भीमसेन और बर्बरीक को पहिचानते हुये कहा,’’ अरे अरे ! पुत्र यह क्या करने जा रहे हो। वह तो तुम्हारे पितामह भीमसेन हैं।’’

उनकी बात सुनकर बिस्मित बर्बरीक ने भीम को ससम्मान सिर के नीचे उतारते हुये कहा, ‘‘पितामह क्षमा करें।अनजाने में यह क्या अपराध हो गया होता ?’’

भीमसेन ने उसे छाती से लगाते हुये कहा, ‘‘बेटा इसमें तुम्हारा कोई दोश नहीं है। भूल हमारी थी । नीति कहती है कि कुमार्ग गामी को क्षत्रिय द्वारा दण्ड दिया जाना चाहिये, तुम वही कर रहे थे। तुम्हें पाकर मेरे पूर्वज धन्य हैं कि हमारे कुल में ऐसा वीर धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ है।’’

ऐसा कह कर भीम अपने भाइयों के साथ वह स्थान छोड़ कर चले गये ।

उधर तप पूर्ण होने पर जब बर्बरीक उस तपस्थली से लौटने लगा तो उन ऋषि ने उससे कहा, ‘‘मैंने तुम्हारे संरक्षण से सिद्धि प्राप्त की है। मेरे हवनकुण्ड में सिन्दूर के रंग की परम पवित्र भस्म है उसे तुम ले लो। तुम्हारे विरूद्ध युद्धभूमि में इस भस्म को छोड़ देने पर मृत्यु भी शत्रु बनकर आ जायें तो उसे भी मरना पड़ेगा। तुम अब शत्रुओं पर सरलता से विजय प्राप्त कर सकोगे।’’

बर्बरीक ने वह भस्म ली और चला आया ।

जब पाण्डवो के वनवास की अवधि समाप्त हुई। दुर्योधन ने उन्हें राज्य न लौटाया तो कुरूक्षेत्र के मैदान में युद्ध की तैयारी होने लगी। पाण्डवों ने अपने पक्षधरों को इकटठा किया ओैर उस शिविर में बैठकर सभी योद्धा अपने अपने बल, पराक्रम, पौरूष की प्रशंसा करने लगे। अर्जुन अपने पराक्रम की प्रशंसा करते हुये बोले, ‘‘मैं अकेला कौरव सेना को एक दिन में नष्ट करने में समर्थ हूँ।’’

यह बात सुनकर बर्बरीक से न रहा गया, बोला, ‘‘मेरे पास ऐसे दिव्य अस्त्र शस्त्र एवं एक ऐसा पदार्थ हैं कि मैं एक क्षण में ही सारी कौरव सेना को यमलोक भेज सकता हूँ ?’’

श्रीकृष्ण को उसकी यह बात अहं से परिपूर्ण लगी। इसलिये उन्होंने उससे पूछा, ‘‘तुम भीष्म पितामह से रक्षित उस कौरव सेना को तुम एक मुहूर्त में कैसे मार सकोगे ?’’

श्रीकृष्ण का यह प्रश्न सुनकर वह बोला, ‘‘आपको दिखाने के लिए मैं अभी एक मुहूर्त में सामने खड़े आस्वत्थ वृक्ष के प्रत्येक पत्ते को बेध कर नष्ट कर देता हूँ।’’

यह कहकर उसने अपना धनुष चढ़ा लिया। उस पर बाण रखा। भीतर से पोले बाण में उसने वह सिंदूरी रंग की भस्म भरकर, कान तक खींचकर छोड़ा। इधर श्रीकृष्ण ने चुपके से उस वृक्ष के नीचे पड़े एक पत्ते पर अपने पैर का पंजा रख लिया।

उधर उस बाण से सिन्दूर जैसी भस्म वृक्ष और उसके सम्पूर्ण पत्तों पर पड़ी। वे जलकर खाक हो गये। इस समय वह अग्नि श्रीकृष्ण के चरण के पास आते दिखी। श्रीकृष्ण ने उस पत्ते से पैर हटा लिया। अग्नि ने वह पत्ता भी जला दिया। श्रीकृष्ण इस बात पर गहराई से विचार करने लगे कि इसका अहंकार इतना बढ़ गया। इसने मेरे पैर तले के पत्ते को भी नहीं छोड़ा। हमारी दोनों सेनाओं में अनेक वीरों को देवताओं से एवं ऋषियों से वरदान प्राप्त है। यह उन वरदानों को व्यर्थ करने में समर्थ है। ऐसे तो अधर्म हो जाएगा, जबकि मैंने धर्म की मर्यादा का व्रत लिया है। मुझे धर्म की रक्षा करना चाहिए ।

यह सोचकर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सभी के देखते देखते उसका सिर काट लिया।

यह सुनकर सब लोग हाय हाय कर उठे। वे सब श्रीकृष्ण की ओर बिस्मय से देखने लगे । कथा सुन रहे सम्पूर्ण निषादपुरम के वासियों कों श्रीकृष्ण का यह आचरण भी उसी तरह शोभनीय नहीं लगा जैसे निषादराज एकलव्य को मारने का ।

मुनि ने आगे बात बढ़ाई-पाण्डव भी श्रीकृष्ण के इस कार्य से निषादपुरम के लोगों की तरह भौंचक्के रह गये। वे शोक में डूब गये। पुत्र शोक से वीर घटोत्कच मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भीमसेन ने श्रीकृष्ण पर हमारी तरह अपशब्दों की बौछार कर दी। अन्य पाण्डव सोचने लगे, ‘‘श्रीकृष्ण कौरवों के साथ तो नहीं मिल गये हैं ? जो इनने हमारे पक्ष का इतना बड़ा योद्धा मार डाला ।अरे ! युद्ध में इससे श्रीकृष्ण को इतना डर था तो हम सब मिलकर इसे युद्ध से दूर रहने के लिए बाध्य कर देते।’’

सभा में मौजूद अन्य वीर जो श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे वे तो इसमें भी पाण्डवों का गुप्त हित देख रहे थे। बर्बरीक के पूर्वजन्म से इसकी कथा जोड़कर इंद्रवर्मा श्री कृष्ण के इस कृत्य को वेैद्य ठहराते हुये बोले, ‘‘बर्बरीक पूर्व जन्म में सूर्यवर्चा नामक बड़ा वीर एवं मायावी यक्ष था। तब की ही बात हे कि एक बार समस्त देवता धर्म की हानि देखकर जब ब्रह्माजी को साथ लेकर मेरू पर्वत पर एकत्रित होकर भू का भार उतारने के लिये श्री नारायण से स्तुति कर रहे थे, तब उस सूर्यवर्चा नाम के यक्ष ने कहा, ‘‘इस काम के लिए भगवान को कष्ट क्योें देते हों ! पृथ्वी का भार तो मैं ही दूर कर दूगाँ।’’

यक्ष का अभिमान में डूबा यह वाक्य सुनकर, ब्रह्माजी उससे रुष्ट हो गये। उन्होंने उसे शाप दे दिया कि तुम राक्षस योनि में चले जाओं । यक्ष ने तुरंत ही अपनी त्रुटि मानी और चरणों में गिर कर अभिशाप वापस लेने की प्रार्थना की तो ब्रहमा जी ने कहा कि शाप तो वापस नहीं होगा, हां भू भार दूर करते समय श्री नारायण तुम्हारा बध करेंगे, तो तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। इस जन्म में बर्बरीक के उसी शाप के कारण श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का वध किया है।

बेचारे पाण्डवों को इन तथ्यों को सत्य मान कर चुप रह जाना पड़ा। क्योंकि वे इस स्थिति में श्रीकृष्ण को नाराज नहीं कर सकते थे ।

उदास पाण्डवों को सन्तुष्ट करने के लिये श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के उस कटे लेकिन जीवित व्यक्ति की तरह पलकें झपकाकर ताकते जमीन में पड़े सिर से पूछा, ‘‘तुम्हारी क्या इच्छायें हैं ?’’

उसने कहा, ‘‘एक तो मैं महाभारत का युद्ध देखना चाहता हूँ दूसरे मैं विवाह करना चाहता हूँ।’’

पाण्डवों को प्रसन्न करने के लिये कृष्ण ने उस सिर को कुरूक्षेत्र के बीचों बीच खड़े एक विशाल छंेकुर के वृक्ष पर टाँग दिया जिससे वह महाभारत का युद्ध देख सके।

विवाह के प्रश्न पर श्रीकृष्ण बोले, ‘‘तुमने दूसरी इच्छा विवाह की बताई है, तुम्ही कहो कि उन दिनों इतनी नाग कन्यायें तुमसे विवाह करना चाहतीं थी। तब तुमने अपने ब्रह्मचर्य की बात कह कर उनसे विवाह नहीं किया , अब क्यों चाहते हो । अब विवाह सम्भव नहीं है। फिर भी तुम्हारी इच्छा विवाह करने की है तो वैदिक संस्कृति को मानने वाले, अपने घरों में हरेक विवाह के समय तुम्हारे सिर के रूप में बरोना का पहले पूजन किया करेंगे। वर आगमन से पूर्व द्वार पर प्रथम तुम्हारा सिर बरोना के रूप में पूजा जायेगा और विवाह मण्डप में प्रथम पूजन के लिये रखा रहेगा, इस तरह तुम्हारा अप्रत्यक्ष विवाह हो जाया करेगा।’’

श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को सन्तुष्ट करने के लिये बर्बरीक को यह वरदान भी दिया कि तुम मेरे अपने श्याम के रूप में पूजे जाते रहोगे।

मुनि ने कथा आगे बढ़ाते हुए आगे सुनाया कि महाभारत का युद्ध अठारह दिनों तक चलता रहा। युद्ध समाप्ति के बाद सभी पाण्डवों को यह अहम् हो गया कि महाभारत का युद्ध उनने ही अपने बाहुबल और बुद्धिबल से जीता है। जब यह बात श्री कृष्ण को ज्ञात हुई तो वे पाण्डवों से बोले, ‘‘इस युद्ध को बर्बरीक पलक झपकाए बिना निरंतर यह युद्ध देखता रहा है । चलें हम बर्बरीक के सिर से पूछ कर देखें यह युद्ध किसने जीता है।’’

पाण्डव बर्बरीक के सिर के समक्ष जा पहुँचे। युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, ‘‘वत्स इस महाभारत के युद्ध का विजेता कौन है ?’’

प्रश्न सुनकर बर्बरीक बोला, ‘‘युद्ध में विजय तो श्रीकृष्ण जैसे रूप वाले पुरूष की हुई है। क्योंकि मुझे तो चारों ओर वही एक पुरूष कौरव वीरों को मारते घूमता दिखाई दे रहा था । मैंने उस पुरूष की चार भुजायें देखीं वे चारों भुजाओं में दिव्य अस्त्र लिये थे। उनके मस्तक पर दिव्य मुकुट सुशोभित था। वे साक्षात् कालपुरूष ही लगते थे। वे अपने सुदर्शन चक्र से जिसका संहार करते उसे ही पाण्डव वीरों के अस्त्र लक्ष्य बना कर अपना अस्तित्व प्रदर्शित कर देते थे।

बन्धुओं, बर्बरीक द्वारा कही गई ऐसी बातों को पाण्डव चाहे सच मान रहे हो किन्तु ऐसे बहुरुपिया पुरूष के रूप पर हम निशादों का विश्वास नहीं टिक पा रहा है। भला यह कैसे संभव है कि एक व्यक्ति अकेला सबको मारता फिरे और दूसरों को दिखाई न दे । ये सब बातें श्री कृष्ण के सम्बन्ध में भय उत्पन्न करने के लिये कही जा रही हैं, जिससे लोग उनके सामने तनकर खडे होने का साहस न करें । यह कह कर मुनि ने कथा समाप्त की ।