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छुट-पुट अफसाने - 25

एपिसोड---25

अतीत से जो नजरें मिलाईं, तो मुस्कुराहट भी मुस्कुराने लगी है। चलो जानेमन अतीत ! कुछ घड़ियां तुम्हारे साए में बिताते हैं आज। होता तो यही है कि नासमझ से हम जीवन की डगर पर जिए चले जाते हैं । क्या मालूम कब कौन सा मोड़ हमें अदृश्य होनी के हाथों जीवन की किस राह पर ले जाए। और उस पर सारी कायनात हमें उसे पूरा करने में साथ देने की जिद ही कर ले ! अपना किस्सा कुछ ऐसा ही है...

‌‌हुआ यूं कि दिल्ली से हमारे फैमिली फ्रेंड्स की बेटी शोभा की टेलीग्राम आई। "send Veena, Kashmir trip arranged." 1961 जून का महीना था । मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी। पापा ने मुझे किसी के साथ दिल्ली भेज दिया

उनके पास। शोभा रेलवेज में काम करती थी और गर्ल्स का ट्रिप कश्मीर ले जा रहा थी, मैं भी उसी में शामिल कर ली गई।

‌ जम्मू तक ट्रेन में और उसके बाद बसों में बैठकर खूब मस्ती करते, गाते - बजाते हम लोग कभी शैतानी नाला तो कभी खूनी नाला के पास से निकले। सारे रास्ते ही एक ओर गर्वीली सिर उठाए पर्वत श्रेणियां तो दूसरी ओर खाई। खाई में से एड़ी उठाए उचक- उचक कर राहगीरों को तकते चीड़ और देवदार के वृक्ष। मानो हमारे स्वागत में कतार बांधे खड़े हों। "पतनीटॉप " पहुंच कर देखा कि वहां पेड़ों को लताओं ने आलिंगन पाश में बांध रखा है। अनोखी हरीतिमा ओढ़े ऐसी दृश्यावली और उस पर कर्णप्रिय झींगुरों की आवाजें- -- यह सब देख मैं तो भाव विभोर हो नि:शब्द हो गई और सृष्टिकर्ता को नमन कर उठी।

ठंडी हवा के झोंकों ने वैसे भी ग्रीष्म का ताप खत्म कर दिया था अब, आगे खाई की जगह "चिनाब" दरिया ने ले ली थी। चिनाब को देखकर" सोनी-महिवाल" के इश्क का किस्सा दिमाग में घूमता रहा। "रामबन" में चिनाब को पाकिस्तान की तरफ मोड़ कर हम "बनिहाल" की चढ़ाई चढ़कर टनल में जा रहे थे ।जो जवाहर टनल के नाम से जानी जाती है। पहाड़ के भीतर से दो सुरंगें बिल्कुल सीधी बनाई गई हैं। एक आने के लिए और एक यादों के अनवरत सिलसिले अब तो आगे बढ़ रहे हैं। भविष्य की उर्वरा धरती में "होनी" के बीज तो डल गए थे।क्योंकि जो होने वाला होता है उसकी आधारशिला पहले ही रखी जा चुकी होती है तभी तो परिस्थितियां उसी ओर इंगित करती हैं और इंसान उसे अपना भाग्य मान कर स्वीकार करता है। तिस पर जब पूरी कायनात आपकी दिली ख़्वाहिशों को मंजिल तक पहुंचाने में आपकी हमसफ़र बन, राहों पर निशां लगाती जाए तो फिर क्या कहने!

‌‌ हमारे जमाने में चार साल की B.A. होती थी! कश्मीर से लौटने के बाद मैं थर्ड ईयर के लिए हॉस्टल में आ चुकी थी। कॉलेज के बाद एक घंटे के लिए नरसप्पा सर की भरत नाट्यम् डांस क्लास होती थी। एनुअल फंक्शन के लिए folk dance और डांस ड्रामा की तैयारियां हो रही थीं।एक दिन हम सहेलियां वहां से थक कर वापस लौटीं तो मैंने देखा मेरी मम्मी आई हुई हैं मिलने। खुशी से चेहरा खिल उठा मेरा। वो पीतल के टिफिन कैरियर में गुलाब जामुन और गाजर का हलवा बना कर लाईं थीं। डब्बे देख कर मेरी रूममेट्स की आंखें भी चमकने लगी थीं। क्योंकि किसी के घर से कुछ भी आए वह हमने मिल बांट कर खा लेना होता था। लेकिन, मेरी खुशी थोड़ी देर बाद हवा हो गई थी...

हुआ यूं कि उसी समय डाक लेकर गोरखा आ गया और उसने मेरे लिए भी आवाज देकर आशा के विपरीत बड़ा सा पैकेट दिया। हैरान-परेशान होकर मैंने पैकेट खोला। देखा तो उसके भीतर मेरी कश्मीरी ड्रेस की फोटो enlarge की हुई थी। मुझे तो अपनी वह फोटो पसंद ही नहीं थी और उस पर से इतनी बड़ी? साथ में एक दो लाइन का पत्र भी था।

वीना, 

शोभा से एड्रेस ले कर यह फोटो भेज रहा हूं उम्मीद है पसंद आएगी ।

तुम्हारा, रवि

इस पर जैसी प्रतिक्रिया एक मां की हो सकती है, वैसी ही मम्मी ने फोटो को नजरअंदाज करते हुए करी । बार-बार यही पूछे जा रहीं थीं, " तुम्हारा रवि "क्यों लिखा है? सिर्फ नाम भी तो लिख सकता था ? क्या कोई खास बात है? जब कोई खास बात थी ही नहीं तो मैं क्या बोलती? कुछ समझ ना आए मैं क्या करूं? मैंने हाथ जोड़े कि मामा आप इसे घर ले जाओ। मुझे कुछ नहीं मालूम।अब मैं क्या जानू ! मैंने इस बात को टालने के लिहाज से वो फोटो उनको दे दी घर ले जाने के लिए। और इस किस्से को जैसे भूल गई। क्योंकि समय कहां था सोचने का?

‌      मैं कॉलेज एक्टिविटीज में बहुत व्यस्त रहती थी। एनसीसी, नाटक, डांस, पढ़ाई वगैरह में। कॉलेज के वार्षिक उत्सव में मिसेज़ चतुर्वेदी हिंदी नाटक "बुद्धा "करवा रही थीं। जिसमें मैं सिद्धार्थ गौतम और चंदा जैन यशोधरा बनी थी। गौतम के डायलॉग्स बहुत भारी-भरकम थे, जो आचार्य रजनीश की सलाह से लिखे गए थे। मेरे दिमाग में अपने डायलॉग याद करने का बोझ था असल में। उधर डांस क्लास में एक स्टेप भी गलत हो जाए, तो सर खींचकर घुंघरू मारते थे पैरों पर। सो, मैं अपने संसार में गुम थी।

दशहरे- दिवाली की छुट्टी होने पर जब मैं घर गई तो देखा मेरी वह कश्मीरी फोटो बहुत सुंदर फ्रेम में जड़ी हुई दीवार की शोभा बढ़ा रही थी। पापा काफी तारीफ कर रहे थे। उन्होंने पूछा कि आपने थैंक्स का लेटर लिख दिया था? तो मैंने "ना" में सिर हिला दिया। इस पर वे बोले कि इतने तो एटीकेट्स होने चाहिए। चलो लिखो लेटर। और दो लाइन का लेटर हमने भी डाल दिया। लो जी, होनी के बीज में अंकुर फूटने लगा था। यह भाग्य ही जानता था हम क्या जाने ?

पापा के लाहौर के जिगरी दोस्त वर्मा अंकल थे coal mines में । एक बार वे लोग आए तो उनका बेटा मुझे अच्छा लगा था। जैसे किसी के लिए लाइकिंग हो जाती है। इसलिए कहीं और ध्यान भी नहीं जाता था मेरा। नहीं तो मैंने फंस ही जाना था कश्मीर में... इसमें कोई शक नहीं। �हा हा हा....( फिर तो काम ही आसान हो जाना था।) वैसे सारी उम्र लोग मुझसे यही सवाल पूछते रहे। कुछ तो अंदाजा भी यही लगाते रहे। लेकिन आज सच्चाई सुना रही हूं।

बी.ए फाइनल में होम साइंस कॉलेज के वार्षिकोत्सव पर" हाड़ा रानी" नृत्य नाटिका हुई । जिसमें वीना भास्कर (त्रिवेदी )ने मेवाड़ के राजा अमरसिंह और मैंने हाड़ी रानी का रोल किया! हम दोनों को बहुत वाहा-वाही मिली। हमने छत्तीसगढ़ी लोक- नृत्य भी किए। B.A. के एग्जाम्स देकर as senior most under officer of MP मैं All India NCC summer training camp Kaalsi near Dehradun चली गई थी। वहां से ढेरों इनाम लेकर घर लौटी थी। अर्थात मैं अपनी ही ज़िन्दगी में मस्त रहती थी। B.A.पास करके मैं अब घर आ चुकी थी। Law की पढ़ाई की तैयारी कर रही थी आगे ।