Holiday Officers - 27 books and stories free download online pdf in Hindi

छुट-पुट अफसाने - 27

एपिसोड---27

यादों के अनवरत सिलसिले अब तो आगे बढ़ रहे हैं। भविष्य की उर्वरा धरती में "होनी" के बीज तो डल गए थे।क्योंकि जो होने वाला होता है उसकी आधारशिला पहले ही रखी जा चुकी होती है तभी तो परिस्थितियां उसी ओर इंगित करती हैं और इंसान उसे अपना भाग्य मान कर स्वीकार करता है। तिस पर जब पूरी कायनात आपकी दिली ख़्वाहिशों को मंजिल तक पहुंचाने में आपकी हमसफ़र बन, राहों पर निशां लगाती जाए तो फिर क्या कहने!

‌‌ हमारे जमाने में चार साल की B.A. होती थी! कश्मीर से लौटने के बाद मैं थर्ड ईयर के लिए हॉस्टल में आ चुकी थी। कॉलेज के बाद एक घंटे के लिए नरसप्पा सर की भरत नाट्यम् डांस क्लास होती थी। एनुअल फंक्शन के लिए folk dance और डांस ड्रामा की तैयारियां हो रही थीं।एक दिन हम सहेलियां वहां से थक कर वापस लौटीं तो मैंने देखा मेरी मम्मी आई हुई हैं मिलने। खुशी से चेहरा खिल उठा मेरा। वो पीतल के टिफिन कैरियर में गुलाब जामुन और गाजर का हलवा बना कर लाईं थीं। डब्बे देख कर मेरी रूममेट्स की आंखें भी चमकने लगी थीं। क्योंकि किसी के घर से कुछ भी आए वह हमने मिल बांट कर खा लेना होता था। लेकिन, मेरी खुशी थोड़ी देर बाद हवा हो गई थी...

हुआ यूं कि उसी समय डाक लेकर गोरखा आ गया और उसने मेरे लिए भी आवाज देकर आशा के विपरीत बड़ा सा पैकेट दिया। हैरान-परेशान होकर मैंने पैकेट खोला। देखा तो उसके भीतर मेरी कश्मीरी ड्रेस की फोटो enlarge की हुई थी। मुझे तो अपनी वह फोटो पसंद ही नहीं थी और उस पर से इतनी बड़ी? साथ में एक दो लाइन का पत्र भी था।

वीना, 

शोभा से एड्रेस ले कर यह फोटो भेज रहा हूं उम्मीद है पसंद आएगी ।

तुम्हारा, रवि

इस पर जैसी प्रतिक्रिया एक मां की हो सकती है, वैसी ही मम्मी ने फोटो को नजरअंदाज करते हुए करी । बार-बार यही पूछे जा रहीं थीं, " तुम्हारा रवि "क्यों लिखा है? सिर्फ नाम भी तो लिख सकता था ? क्या कोई खास बात है? जब कोई खास बात थी ही नहीं तो मैं क्या बोलती? कुछ समझ ना आए मैं क्या करूं? मैंने हाथ जोड़े कि मामा आप इसे घर ले जाओ। मुझे कुछ नहीं मालूम।अब मैं क्या जानू ! मैंने इस बात को टालने के लिहाज से वो फोटो उनको दे दी घर ले जाने के लिए। और इस किस्से को जैसे भूल गई। क्योंकि समय कहां था सोचने का?

‌      मैं कॉलेज एक्टिविटीज में बहुत व्यस्त रहती थी। एनसीसी, नाटक, डांस, पढ़ाई वगैरह में। कॉलेज के वार्षिक उत्सव में मिसेज़ चतुर्वेदी हिंदी नाटक "बुद्धा "करवा रही थीं। जिसमें मैं सिद्धार्थ गौतम और चंदा जैन यशोधरा बनी थी। गौतम के डायलॉग्स बहुत भारी-भरकम थे, जो आचार्य रजनीश की सलाह से लिखे गए थे। मेरे दिमाग में अपने डायलॉग याद करने का बोझ था असल में। उधर डांस क्लास में एक स्टेप भी गलत हो जाए, तो सर खींचकर घुंघरू मारते थे पैरों पर। सो, मैं अपने संसार में गुम थी।

दशहरे- दिवाली की छुट्टी होने पर जब मैं घर गई तो देखा मेरी वह कश्मीरी फोटो बहुत सुंदर फ्रेम में जड़ी हुई दीवार की शोभा बढ़ा रही थी। पापा काफी तारीफ कर रहे थे। उन्होंने पूछा कि आपने थैंक्स का लेटर लिख दिया था? तो मैंने "ना" में सिर हिला दिया। इस पर वे बोले कि इतने तो एटीकेट्स होने चाहिए। चलो लिखो लेटर। और दो लाइन का लेटर हमने भी डाल दिया। लो जी, होनी के बीज में अंकुर फूटने लगा था। यह भाग्य ही जानता था हम क्या जाने ?

पापा के लाहौर के जिगरी दोस्त वर्मा अंकल थे coal mines में । एक बार वे लोग आए तो उनका बेटा मुझे अच्छा लगा था। जैसे किसी के लिए लाइकिंग हो जाती है। इसलिए कहीं और ध्यान भी नहीं जाता था मेरा। नहीं तो मैंने फंस ही जाना था कश्मीर में... इसमें कोई शक नहीं। �हा हा हा....( फिर तो काम ही आसान हो जाना था।) वैसे सारी उम्र लोग मुझसे यही सवाल पूछते रहे। कुछ तो अंदाजा भी यही लगाते रहे। लेकिन आज सच्चाई सुना रही हूं।

बी.ए फाइनल में होम साइंस कॉलेज के वार्षिकोत्सव पर" हाड़ा रानी" नृत्य नाटिका हुई । जिसमें वीना भास्कर (त्रिवेदी )ने मेवाड़ के राजा अमरसिंह और मैंने हाड़ी रानी का रोल किया! हम दोनों को बहुत वाहा-वाही मिली। हमने छत्तीसगढ़ी लोक- नृत्य भी किए। B.A. के एग्जाम्स देकर as senior most under officer of MP मैं All India NCC summer training camp Kaalsi near Dehradun चली गई थी। वहां से ढेरों इनाम लेकर घर लौटी थी। अर्थात मैं अपनी ही ज़िन्दगी में मस्त रहती थी। B.A.पास करके मैं अब घर आ चुकी थी। Law की पढ़ाई की तैयारी कर रही थी आगे ।

‌‌   कि जनवरी की एक सर्द सुबह भैया के साथ कोई सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आ रहा था । देखा वे आर.के.स्टूडियो पहलगांव वाले थे। आश्चर्यचकित थी, अप्रत्याशित रूप से उन्हें अपने घर, अपने सामने देखकर। उनकी मीठी मुस्कान, बोलती आंखें और आकर्षक व्यक्तित्व जिसकी कैंप में भी चर्चा होती थी, उस को निहारते हुए, पापा ने बड़ी ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। बाद में उन्होंने बताया कि वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जालंधर में कार्यरत हैं। दोस्त के साथ मुंबई अपने चचेरे भाई बलराज विज जो फिल्म " वचन" के हीरो हैं, उनको मिलने और बम्बई घूमने गए थे। (फिल्म" वचन" का गाना" चंदा मामा दूर के, पुए पकाए दूध के", काफी मशहूर है) वापसी में जब "बीना"आया, तो सोचा कि कटनी पास ही है अब। मध्यप्रदेश के भी दर्शन कर लेते हैं। वह दोस्त वापिस चला गया। मुझे घूमने का बेहद शौक है। सो, मैं आपके पास आ गया।" इस बात पर पापा को लाहौर याद आ गया। वे जब भी दिल से खुश होते थे तो बोल उठते थे "वाह लाहौर बनाण वालया।"

‌  ‌‌हम सब उनके आस पास बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे। वे दो दिन कटनी में रहे, सबसे काफी हिल- मिल गए थे! उन्होंने हमें अपने घर और कश्मीर के बारे में ढेर सारी बातें सुनाईं। पापा को शेरो- शायरी का शौक था तो अच्छी खासी महफिल जमी रही दो दिन। उन्होंने व हमने भी संग में गाने गाए। रौनक लगी रही। पापा ने उनको कटनी की बॉक्साइट और पत्थर की खदानें दिखाईं। शहर भी घुमाया। उनके साथ हिल-मिल गए थे!

‌  गर्मियों में पापा और मैं, मेरी सहेली शोभा की शादी में दिल्ली गए। वहां शोभा से फोटो का किस्सा पता चला कि सही में ...एक ही लिफाफे में चारों नेगेटिव इकट्ठे पड़े होने से चारों फोटोस बना दी गई थीं। दिल्ली में जब वो उसे फोटो देने आए तो वो चौथी फोटो मेरी निकली इसलिए, मेरा एड्रेस लेकर मुझे कॉलेज में पोस्ट कर दी थी। जब वे कटनी आए तो हमने उनसे जानबूझकर यह बात नहीं पूछी थी। अब मुझे बात समझ आ गई थी।

‌बोली, "रवि भैया भी शादी पर पहुंच रहे हैं। और what a coincidence उसी पल वे हमारे सामने थे। उन दिनों सेल फोन तो होते नहीं थे। सो वे फोटोग्राफी कर रहे थे। उनके आसपास लड़कियों का हजूम ही लगा रहता था। मैं शोभा के साथ शादी में व्यस्त थी, तो पापा एकदम फ्री उनके साथ गपशप चलती रहती थी उनकी। शादियों में यही होता है मेहमानों की आपस में दोस्तियां हो जाती हैं। यह तो हम सभी का अनुभव है। 1966 में भैया की शादी पर पापा ने भी सबको निमंत्रण भेजा।

‌शादी भरूच गुजरात में थी। वहां शोभा लोग और रवि जी इकट्ठे पहुंचे थे । वापसी में रिसेप्शन के लिए सब कटनी आ गए थे। वहां से सबको नर्मदा नदी पर संगमरमर की चट्टानें दिखाने जबलपुर भेड़ाघाट धुआंधार ले जाया गया था। परिवारों में मेलजोल बढ़ गया था।

एक बार पापा और मैं पालमपुर हिमाचल प्रदेश जा रहे थे बहन उषा की ननद की शादी पर। राह में जालंधर ठहरते हुए हम आगे बढ़े । रवि जी के परिवार में उनके बीजी और भाई- बहन से मिलना हुआ। सभी कहते थे कि यह नेहरू और इंदिरा की जोड़ी है-- बाप- बेटी की ! दोनों इकट्ठे ही जाते हैं सब जगह।

होनी के बीज का जो अंकुर फूटा था, उसका लालन-पालन प्रेम से हो रहा था और उसने एक पौधे का रूप धर लिया था अंजाने में। मुझे आभास ही नहीं था, क्योंकि जीवन में बहुत कुछ इधर उधर चल रहा था।

1967 में मैं बी. ऐड. कर रही थी। मेरी बहन की शादी मे रवि जी अपनी बहन सुदेश (फ़ाक़िर) के साथ कटनी आए। उन्हीं दिनों हमने एक दूसरे के लिए खिंचाव महसूस किया। कदाचित भाग्य कोई करवट लेने वाला था। या भाग्य की लकीरों ने अपने लिए कोई ऐसा रास्ता तलाश लिया था जिसमें उन्हें मंजिल नजर आ रही थी। गोया कि "होनी" के पौधे ने एक वृक्ष का रूप धर लिया था।

फोन का जमाना तो था नहीं। इश्किया जज्बातों का इजहार चिट्ठियों में होता था उन दिनों, जिन्हें किताबों के पन्नों में पनाह मिलती थी। इस पर एक शे'अर याद आ रहा है...

 

"साजिशें कर लम्हों ने हमें मिला ही दिया

दूरियों ने नज़दीकियों से सौदा कोई कर ही लिया

रब की मर्जी है बरसा है हम पर उसका नूर

यह फासलों का फैसला कैसे मेरे दिल ने कर लिया।"

 

ढाई आखर प्रेम या इश्क के इतने पाक़ीज़ा हैं कि लगता है इश्क करने वालों पर रब का नूर बरसता है। किस्मत वाले होते हैं जो इन राहों से गुजरते हैं। खैर, एम.एड की पढ़ाई चल रही थी । साथ ही जीने की उमंग भी थी। जिससे जीवन में सकारात्मकता बनी हुई थी और मैंने यूनिवर्सिटी में टॉप करके गोल्ड मेडल जीता था। उसके बाद ही मुझे NCERT से पी एच डी करने का बुलावा आया और मैं मम्मी के साथ दिल्ली चली गई एडमिशन लेने। दिल्ली में रिश्तेदारी में एक शादी भी थी।

उधर "होनी" के वृक्ष में बौर आया हुआ था और फल लगने लगे थे अर्थात रवि जी ने घर में सब से बात कर ली थी। उनकी बीजी का पत्र पापा को कटनी में आ गया था।

इसलिए उनकी दीदी और जीजाजी दिल्ली आए और मेरी मम्मी से मिले। उन्होंने शादी के लिए प्रपोज कर दिया।

अब इसे होनी नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे..? मैं तो दिल्ली आई थी पीएचडी करने और अचानक शादी की बात पक्की हो गई । पापा से कटनी बात करी गई फोन पर । वह बोले आप लोग जालंधर चलो मैं बाकी बच्चों को और सामान लेकर आता हूं। हैरानी की बात थी कि विभाजन के बाद हमारे जिन रिश्तेदारों ने पंजाब का कभी रुख नहीं किया था वह भी इस शादी में सम्मिलित होने पंजाब पहुंच रहे थे। ढेरों दोस्त भी आए। मानो कटनी ही जैसे जलंधर में आ गई थी मुझे "होनी के वृक्ष" के फल खिलाने के लिए।

पहलगाम के लिद्दर दरिया किनारे पड़े पत्थर पर मैंने जो ख्वाहिश अन्त:करण के वशीभूत होकर की थी लगता है तभी सरस्वती मेरी जुबां पर आ गई थी और भाग्य की नाव को उसी और खेने में लग गई थी। मुझे वहां जाने का पासपोर्ट मिल गया था, मेरे गले में रवि जी के मंगलसूत्र डालने से।

चलते हैं फिर अगली बार धरती से दूर, कोरे बादलों के पार ---- बसाने नया संसार...

 

वीणा विज'उदित'

1/5/2020