कोतवाल की गर्दन (व्यंग्य कथा ) books and stories free download online pdf in Hindi

कोतवाल की गर्दन (व्यंग्य कथा )

कोतवाल की गर्दन

एक नगर था, छोटा सा । इस नगर में रहने वाले लोग बहुत ही भोले- भाले थे । वे सुनी बातों को सत्य समझते और जो दिखता उसे परमसत्य । इस नगर का कोतवाल भोला सा दिखता था और इतनी बड़ी दाढ़ी रखता कि उसकी गर्दन दिखाई ही नहीं देती । वैसे भी वो शरीफ लोगों के सामने इस तरह से आता कि गर्दन दिखाई ही न दे । नगर के लोग उसे बिना गर्दन का कोतवाल कहते । एक सर्वे के मुताबिक जिनकी गर्दन नहीं होती वे कुछ भी नहीं खाते , अरे भाई गर्दन में ही तो गला पाया जाता है और कुछ खाना ही हो तो बिना गले कोई क्या और कैसे खाए ?


नगर के लोगों के पास भी उनकी अपनी-अपनी गर्दनें थी परन्तु आम आदमी की गर्दनें हमेशा ही तीन काम आती है ; पहला सिर का बोझ उठाने के ,दूसरा नारे लगाने के लिए और तीसरा रैली और सभाओं में भीड़ बढ़ाने के लिए । इन कामों के अलावा वो इसी गर्दन से पेट भी भर लेता है । नगर के लोगों को कोतवाल की गर्दन कभी दिखाई न दी ; बस बातों - बातों में यह बात आम हो गई कि कोतवाल कुछ नहीं खाता .......नहीं खाता माने कि ईमानदार है । नगर में कोतवाल की गर्दन न होने और उसकी ईमानदारी के चर्चे आम थे । भोले- भाले लोग इस कोतवाल को अपना आदर्श मानने लगे । चोर - उचक्कों की बात और थी , वे कभी कोतवाल के सामने न आते , उन्हे अक्सर पीछे से कोतवाल की गर्दन दिखाई दे जाती । वे जानते थे कि कोतवाल दाढ़ी की आड़ में गर्दन छुपा कर खाता है और जम कर खाता है । इन चोर-उचक्कों ने कई बार नगर के भोले -भाले लोगों को समझाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें तो कोतवाल की गर्दन कभी दिखाई ही नहीं दी फिर वो कैसे मानते ?


एक दिन रात के अंधेरे में चोरों ने एक ऐसी चोरी की कि सारे नगर में सनसनी फैल गई । वे रात में कोतवाल की दाढ़ी ही ले उड़े । कोतवाल अब बिना दाढ़ी का था , एक दम सफाचट । अब उसकी गर्दन सबको दिखाई देने लगी । यह बात नगर में जंगल की आग की तरह फैली कि कोतवाल की गर्दन है । लोग कोतवाल की गर्दन देखने के लिए कोतवाली की ओर चल पड़े । भीड़ इतनी कि पुलिस को लाठियॉ भांजनी पड़ी । लोगों का विश्वास टूटा था , अब उन्हे मालूम था कि कोतवाल की भी गर्दन है कोतवाल इसे छुपा कर रखता था । गर्दन है तो खाता भी होगा याने कोतवाल भी बेईमान है । सबने कप्तान साहब के पास जा कर कोतवाल की षिकायत की । मामले को तूल पकड़ता देख आनन- फानन में कोतवाल की गर्दन और भ्रष्टाचार पर एक जांच समिति बना दी गई ।


जांच समिति में भी सब विशिष्ट लोग थे वो भी लम्बी - लम्बी गर्दन वाले । सो जनता का समिति पर से भरोसा जाता रहा । बस नगर की जनता ने एक आंदोलन खड़ा कर दिया । उनकी मांग थी कि जांच निष्पक्ष होनी चाहिए और जांच समिति में बिना गर्दन वाले लोग हो । नगर ही क्या पूरे राज्य में सभी मंत्रियों और अधिकारियों कि गर्दनें थी , किसी की छोटी किसी की बड़ी , किसी की पतली तो किसी की मोटी । अब इस मसले के लिए क्या कोई अपनी गर्दन कटवा लें । बहुत हुई बकवास , करने दो आंदोलन । इधर जनता को लगा कि सवाल गर्दन का है तो क्यो न वे अपनी-अपनी गर्दनों का प्रयोग करना ही बंद कर दें । बस जनता भूख. हड़ताल पर बैठ गई ।


इधर जनता भूखी थी उधर नेताओं को अपनी- अपनी गर्दनों की चिन्ता हो रही थी । आंदोलन लम्बा खिचा तो गई भैस पानी में । चुनाव में भी तो जनता को मुह दिखाना है । मांगें मानी तो परेशानी फिर किसकी गर्दन बचेगी और किसकी फंसेगी । आखिर कप्तान साहब ने हल सुझाया । वे जनता से बोले ‘‘ देखिए आप लोगों की भी तो गर्दनें है लेकिन वे अक्सर ही भूख हड़तालों के ही काम आती है । आप लोगों से ईमानदार इस राज्य में और कौन हो सकता है ? बस यह तय रहा कि आप लोगों की ही समिति कोतवाल की गर्दन की जांच करेगी । ’’ जनता खुश हो गई । अब उनके ही लोग जनपाल होगे । इस भोली- भाली जनता में भी गर्दन होने की बीमारी के चलते कुछ लोग थे जो अधिकारी और नेताओं से साठ- गांठ करके अपनी गर्दन का प्रयोग अक्सर ही खाने के लिए करते रहते थे । बस ऐसे ही लोगों को पकड़ कर जनपाल बना दिया गया । अब जनता भी खु और नेता भी । जनपाल अपनी जांच में जुट गया । बंगले में रहता, गाड़ियां में घूमता और सरकारी सुविधाआें का उपभोग करता । समय बीतता रहा ; जॉच के लिए बनी जनपाल समिति सुविधा लेती रही , जॉच पूरी होती तो सुविधा छिन जाती , बस जॉच चलती रही । जनता के लिए कोतवाल और उसकी गर्दन बीते जमाने का किस्सा होता गया । अब किस्से कहानियों में कभी उस कोतवाल और आंदोलन की बातें हो जाया करती ।


एक दिन एक राहगीर उस नगर से गुजर रहा था । उसे एक कचरे के ड़िब्बे में एक पुरानी फाईल मिली । ये वही जांच फाईल थी जिसे जनता भी भूल चुकी थी । राहगीर ने उसे पढा । उसमें लिखा था ‘‘ कोतवाल की गर्दन पर दाढ़ी का नकाब था केवल इसलिए कि उसकी गर्दन कप्तान की गर्दन से जुड़ी थी । कप्तान की गर्दन नेताओं की गर्दनों से और नेताओं की गर्दन मंत्रियों की गर्दन से जुड़ी हुई थी । जॉच समिति के सदस्यों की गर्दनें भी इसी जाल में उलझी हुई थी । इन सब गर्दनों के एक बड़़े जाल में उलझे होने के कारण जांच को तब तक चलता हुआ दिखाया जाए जब तक जनता इसे भूल न जाए । ’’ राहगीर अब सब जानता है लेकिन जनता अब भी जांच रिर्पोट का इन्तजार कर रही है और गर्दनों के जाल में उलझी है ।


आलोक मिश्रा "मनमौजी"