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शुभि - (2)




बाल कहानी —शुभि (2)

शुभि को दादी के साथ बहुत अच्छा लग रहा था ।एक दिन उसने देखा कि दादी कमरे में नहीं है तो वह बाहर निकल कर देखने लगीं ।


बाहर उसने देखा कि दादी पूजा करके तुलसी के पौधे में लोटे से पानी लगा रहीं हैं ।उसके बाद उन्होंने एक लोटा नल से पानी लेकर सूर्य के सामने मुख करके ऊँचाई से सामने की ओर देखते हुए चढ़ा दिया ।वहॉं खड़े होकर परिक्रमा की हाथ जोड़कर ।


शुभि यह सब प्रक्रिया उत्सुकता से देख रही थी,जैसे ही दादी कमरे की ओर जाने लगीं,वह भी कमरें में पहुँच गई।


शुभि ने दादी से कहा—दादी आप इतनी सुबह सवेरे नहाकर पूजा करके बाद में बाहर क्या कर रही थीं ।
दादी ने बताया—शुभि में सूर्य को जल चढ़ा रही थी ।
सूर्य से हमें रोशनी मिलती हैं ।जब सुबह दिन निकलता है तो सूर्य से हमें रोशनी मिलती है,सूर्य के प्रकाश में हम सब कुछ आसानी से देख लेते हैं ।हमें रोशनी करने के लिए बल्ब या टॉर्च जलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।सूर्य निकलने पर स्वयं प्रकाश फैल जाता है ।


देखो हमारे कमरे में भी सूर्य का प्रकाश आ रहा है और धूप भी आ रही है ,जिससे सूक्ष्म वेक्टीरिया नहीं पनपते।

सूर्य की किरणें धूप के रूप में आती है तो में बैठ जाती हूँ ।तो शरीर में फुर्ती रहती है और जोड़ों के दर्द में मुझे बहुत आराम मिलता है ।


शुभि ने फिर पूँछा—दादी आप पानी डालते हुए ऊपर क्यों देख रही थी ।
दादी ने बताया—ऊपर की ओर जब चेहरे के सामने जल गिरता है तो पानी में हम सूर्य का अक्स देखते है, जो कि ऑंखों की रोशनी के लिए लाभदायक होता है ।


यह सब सुनकर शुभि की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और अनेक प्रश्न करने लगी ।
शुभि ने कहा—दादी आप हाथ क्यों जोड़ रहीं थीं ।
दादी ने कहा —मैं सूर्य को बहुत आदर से देखती हूँ, जिसका हम आदर करते हैं,हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं ।
सूर्य से हमें रोशनी मिलती हैं जीवन मिलता है ।वह रोशनी देकर हम सब को जीवन दान देते हैं ।


ईश हमें देता है सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें ,
सूरज हमें रोशनी देता ,हवा नया जीवन देती हैं ।

दादी ने शुभि से कहा—मैं तुम्हें दिन में आज एक कहानी सुनाती हूँ उसे ध्यान से सुनो—
बड़े बुजुर्ग बच्चों को सरल भाषा में कहानी सुनाकर कुछ बातें समझाया करते थे ,वही मैं तुम्हें सुना रही हूँ ।


सूर्य का कार्यक्रम तो सुबह से ही शुरू हो जाता पृथ्वी जब घूमती तो सूर्य जिस दिशा में होता उधर प्रकाश और दूसरी तरफ़ अंधेरा रहता ।


एक दिन सूर्य अपने घर गये ,भिखारी का वेष बनाकर ।उन्होंने भिक्षा मॉगी तो उनकी पत्नी ने उन्हें यह कहकर वापस कर दिया कि हमारे घर में जो था ,हमने खा लिया ।


सूर्य ने सोचा—कि मैं आधा अनाज अपने घर भेज देता हूँ और आधा अनाज पूरी प्रजा को देता हूँ ।प्रजा ख़ुश है और मेरी पत्नी दुखी ऐसा क्यों?


दूसरे दिन सूर्य अपने असली रूप में घर पर गये तो पत्नी से कहा भूख लगी है कुछ खाने को दो ।
पत्नी ने जबाब दिया —महाराज जो आपने आज अनाज भेजा वह हमने भून कर खा लिया कुछ कढ़ाई में जल गया वह फेंक दिया ।


सूर्य प्रतिदिन आधा हिस्सा प्रजा को भेजते और आधा अपने घर भेजते लेकिन पत्नी के लिए वह कम था ।वह वापस आगये ।

अगले दिन सूर्य घर पर गये और पत्नी को चौपड का खेल देकर बोले—जाओ रानी आज हम घर पर है तुम नगर में चौपड खेल कर आओ और आनंद लो आपका घर हम देख लेंगे ।रानी बहुत खुश हुई क्योंकि काम तो कुछ था ही नहीं ।


नगर में वह एक घर में गई तो वहाँ उन्होंने कहा—बहिन हमारे साथ खेल लो। वहॉं सब अपने काम में लगे थे कोई अनाज सुखा रहा था तो कोई पीस रहा था और कुछ लोग भोजन बनाने में लगे थे ।

जिस घर में जाती सब अपने काम में लगे थे ।रानी ने कहा कोई तो खेलो मेरे साथ ।मेरे घर तो कोई काम नहीं तुम सब क्यों व्यस्त हो ।
प्रजा के लोगों ने कहा—रानी हम आपके साथ नहीं खेल सकेंगे क्योंकि जो हमें थोड़ा मिला है इसी को सबको खिलाना है ।पहले सुखाकर,पीसकर ,गूँथ कर भोजन बनायेंगे हमारे पास समय नहीं है।यदि कोई भूखा दरवाज़े पर आयेगा उसे भी देना है ।आप का क्या आप तो रानी है ।

आप हमारी मेहमान है बैठे,हमारे घर भोजन करने के बाद आप जायें।
रानी ने देखा बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन बन रहा है ।
रानी को सब देख कर आश्चर्य हुआ कि इतने कम में भी परिवार सहित ख़ुश हैं ।


रानी जब लौट कर घर आईं तो सारी बात सूर्य को बताई और संकल्प किया कि मैं भी सबकी तरह ही भोजन पका कर खाऊँगी और सूर्य महाराज को भी खिलाऊँगी फिर यदि कोई भूखा होगा उसे भी खिलाकर ही भेजूँगाी।

इस प्रकार दादी ने कहानी का मर्म बताया कि हमें दैनिक कार्य कुशलता से करने चाहिए ।समय-समय पर पूरे काम होंगे तो बरकत होती है ।

जिस प्रकार सूर्य हमें बिना रुके पूरा प्रकाश देते हैं,हमें भी बिना रुके सभी कार्य पूर्ण करने चाहिए ।दादी और शुभि भी अपने काम में लग गई ।
शुभि ने दादी से कहा—दादी और कहानी सुनाइए ।
दादी ने कहा—आज नहीं ,कल कहानी सुनाएँगे ।


✍️क्रमश


आशा सारस्वत