Pratishodh - 10 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

प्रतिशोध--(अन्तिम भाग)


जब मणिशंकर को ये ज्ञात हुआ कि सत्यकाम राजनर्तकी योगमाया से प्रेम करता है तो उसने सोचा,अब तो तनिक भी बिलम्ब नहीं करना चाहिए, ये सूचना शीघ्र ही आचार्य शिरोमणि तक पहुँचनी चाहिए और कितना अच्छा हो कि ये सूचना सर्वप्रथम मेरे द्वारा ही आचार्य को मिले।।
और मणिशंकर उसी क्षण बिना बिलम्ब किए ही गुरुकुल की ओर चल पड़ा,रात्रि का समय हो चला था कुछ अँधेरा भी गहराने लगा था,किन्तु मणिशंकर को किसी का भय ना था,उसे तो बस श्रेष्ठ शिष्य की उपाधि चाहिए ,जिसके लिए वो कुछ भी कर सकता था।।
उसके पाँव की गति इतनी तीव्र थी जैसे की वायु बह रही हो,वो बस क्षण भर में ही आचार्य के समक्ष जाकर सारा वृत्तांत सुनाना चाहता था,वो कब से सोच रहा था कि उसके जीवन से सत्यकाम नामक काँटा निकल जाएं किन्तु ये कार्य तो स्वयं सत्यकाम ने ही सरल कर दिया।।
कुछ समय उपरांत मणिशंकर गुरूकुल पहुँच गया,वहाँ उसने जाकर देखा कि अभी तक कोई भी शिष्य नहीं लौटा है सत्यकाम के विषय में सूचना लेकर,जिन्हें जिन्हें आचार्य ने सत्यकाम की खोज में भेजा था,उसने सोचा यही अवसर है, मैं बढ़ा चढ़ा कर सत्यकाम के विषय में आचार्य से कह देता हूँ, वे स्वतः ही कोई ना ना कड़ा निर्णय ही लेगें और यही सोचकर वो आचार्य के निकट पहुँचा____
आचार्य... आचार्य! आपकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई, अब आपकी प्रसिद्धि,अप्रसिद्धि में बदल चुकी है, अब आप क्या कहेंगें ?इस संसार से,किस किस को उत्तर देते फिरेंगें,आपका जीवन तो कलंकित हो चुका है गुरुवर! मेरे हृदय में तो जैसे अग्नि सी प्रज्वलित हो उठी जब मैने सुना कि.....मणिशंकर बोला।
ये क्या प्रहेलिका सी बुझा रहें हो,ठीक ठीक बताओं कि क्या कहना चाहते हो? ऐसा क्या हुआ ?जिसका प्रभाव मेरी प्रतिष्ठा पर पड़ सकता है,आचार्य शिरोमणि ने मणिशंकर से पूछा।।
जब मैने सुना तो मुझे ये लगा कि ये धरती फट जाएं और मैं उसमें समा जाऊँ,मणिशंकर बोला।।
कहना क्या चाहते हो मणिशंकर! अब मेरे धैर्य की सीमा समाप्त हो चुकी है, ऐसा ना हो कि मैं क्रोध में कुछ ऐसा कर बैठूँ, जो तुम्हारे लिए असहनीय हो,आचार्य शिरोमणि बोले।।
जी, आचार्य! मैं आपसे ये कहना चाहता था कि मैं कुछ ऐसा देखकर आ रहा हूँ जिसके विषय में आपसे कहने पर मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा है, मेरी जिह्वा से ऐसे बोल नहीं निकल रहे हैं, मणिशंकर बोला।।
जो भी निर्लज्जता की बात है,मैं सुनने के लिए तत्पर हूँ, बस अब तुम कहो,आचार्य शिरोमणि बोले।।
तो सुनिए आचार्य! आपका प्रिय शिष्य सत्यकाम किसी और से नहीं बल्कि राजनर्तकी योगमाया से प्रेम करता है और वो इस समय वहीं उसी के निकट उसके ही महल मे उसके ही संग रह रहा हैं,जो ज्ञान आपने उसे दिया,वो सब ब्यर्थ हुआ,उसके मस्तिष्क में पत्थर पड़ चुके हैं, वो प्रेम में अन्धा हो चुका है, उसे सिवाय माया के अब कुछ नहीं दिखता,वो यहाँ से जाने के पूर्व ना आपको और ना हम में से किसी और को सूचित करने नहीं आया,वो इतना स्वार्थी और कृतघ्न हो सकता है,
मैने ये कभी ना सोचा था,इससे अच्छा होता कि उसे उस योगमाया के संग देखने से पूर्व मैं नेत्रहीन हो जाता आचार्य! बहुत कष्ट हुआ मुझे ये जानकर कि एक तुच्छ सी नारी के लिए,जिस नारी की समाज मे ना कोई प्रतिष्ठा है और ना कोई मान,उसके लिए उसने आपका और हम सब का त्याग कर दिया,छी...घृणा होती है,मुझे ये सोचकर,मणिशंकर बोला।।
इतना सुनकर आचार्य शिरोमणि जिस स्थान पर खड़े थे,अपना हृदय पकड़कर वहीं बैठ गए, ऐसा प्रतीत होता था कि ये बात सुनकर उनके हृदय को भारी पीड़ा का अनुभव हुआ है,उनकी ये दशा देखकर मणिशंकर उन्हें पकड़ने दौड़ा,साथ एक दो शिष्य भी आएं और उन्हें भीतर जाकर बिछावन पर लिटा दिया।।
तभी आचार्य शिरोमणि ने सभी शिष्यों से कहा___
तुम सब जाओं,मैं कुछ समय एकान्त में रहना चाहता हूँ।।
सभी शिष्य वहाँ से चले आएं ,आचार्य शिरोमणि ने रात्रि का भोजन भी ना किया,उनके हृदय और मस्तिष्क में एक कौतूहल सा मचा था और वे जब तक सत्यकाम से सत्य पूछकर उसका निवारण नहीं कर लेते उनका चित्त शांत ना होगा और उसी क्षण वो रात्रि में ही निकल पड़े योगमाया के महल की ओर,सत्यकाम से अपने प्रश्नों का उत्तर जानने।।
उन्हें जाता हुआ देखकर मणिशंकर ने कहा भी कि......
आचार्य! आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं,आप रात्रि में किधर जा रहें हैं?
अभी आता हूँ, बस कुछ प्रश्न हैं मेरे मन में,जिनका उत्तर ज्ञात किए बिना मेरा चित्त शांत ना होगा,इतना बड़ा विश्वासघात, बहुत ही कठिन हैं मेरे लिए सहना,इसलिए जा रहा हूँ और इतना कहकर आचार्य चले गए।।
अर्द्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी थी,आचार्य शिरोमणि कुछ ही समय में योगमाया के महल के समक्ष थे,उन्होंने द्वारपाल से कहा कि मैं आचार्य शिरोमणि हूँ और अपने शिष्य सत्यकाम से भेंट करना चाहता हूँ।।
जी,आचार्य! इसके पूर्व मुझे देवी योगमाया से आज्ञा लेनी होगी,उन्हें सूचित किए बिना मैं आपको सत्यकाम से भेंट नहीं करने दे सकता,मैं अभी देवी को सूचित करता हूँ कि आचार्य आएं हैं, द्वारपाल बोला।।
योगमाया को सूचना दी गई कि आचार्य आएं हैं और अपने शिष्य से भेंट करना चाहतें हैं, योगमाया ने द्वारपाल से कहा कि उन्हें मेरे कक्ष में भेंज दो,तनिक वो भी तो देखें अपने शिष्य की दशा,जिन्हें उस पर बहुत गर्व था,आज मैंने उनके उस गर्व को अपने कक्ष में शरण दे रखी हैं और आचार्य शिरोमणि ने योगमाया के कक्ष में प्रवेश किया,
योगमाया ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा,आइए आचार्य! आपका स्वागत है मेरे कक्ष में।।
आचार्य ने देखा कि कक्ष में एक ही शैय्या है और उस पर सत्यकाम सो रहा है,ये देखकर उनके क्रोध की सीमा ना रही और उन्होंने गरजकर सत्यकाम को पुकारा,सत्यकाम एकाएक आचार्य का स्वर सुनकर जाग उठा और शीघ्र ही उनके चरण स्पर्श करने की चेष्टा की किन्तु आचार्य पीछे हटकर बोले____
ये क्या है ?सत्यकाम! तुम और ऐसे स्थान में,वो भी एक स्त्री के संग,विश्वास नहीं होता मुझे अपनी आँखों पर,तुम और ऐसा कार्य।।
ये कोई पाप तो नहीं, आचार्य! ये तो प्रेम है, जो सदैव से निर्मल और स्वच्छ कहलाता आया है, प्रेम तो प्रेम होता है आचार्य!ये पाप कैसे हो सकता है,सत्यकाम बोला।।
यदि तुम किसी साधारण स्त्री से प्रेम करते तो वो भी मैं समझ सकता था किन्तु एक नर्तकी, सारा संसार छोड़कर तुम्हें ये ही मिली थी,आचार्य बोले।।
अब जो भी हो,मैने जिसे भी चुना है प्रेम के लिए,उससे ही मैं जीवन भर प्रेम करता रहूँगा, मैं इसे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा, मै जीवनपर्यन्त माया के ही संग रहूँगा, सत्यकाम बोला।।
तो तुम्हें कदाचित अब मर्यादा का भी ध्यान नहीं रह गया इसलिए मेरे समक्ष ऐसी निर्लज्जता पूर्ण बातें कर रहे हो,आचार्य बोले।।
निर्लज्जता.... निर्लज्जता कैसीं आचार्य! ये तो प्रेम है और यहीं यथार्थ है,इसके अलावा सब निर्जीव है, प्रेम करके ही तो मैने प्रेम का अर्थ जाना है, नहीं तो अभी तक मेरा जीवन उदासीन और अवसाद से भरा था,प्रेम करके ही तो मैने जाना कि उमंग और तरंग क्या होती है, नही तो अब तक मैं नीरसता से भरा जीवन जी रहा था,सत्यकाम बोला।।
लगता है सत्यकाम! तुम्हारे मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ चुका है, तभी तुम ऐसा निरर्थक वार्तालाप कर रहे हों,आचार्य शिरोमणि बोले।
नहीं आचार्य! ये मैं नहीं, मेरा प्रेम बोल रहा है, सत्यकाम बोला।।
तो इसका तात्पर्य मै क्या समझूँ कि तुमने अब मुझसे और गुरूकुल से अपना नाता तोड़ लिया है, आचार्य शिरोमणि बोले।।
जी,आपने सही समझा आचार्य!मैं अब यहीं अपनी माया के ही निकट रहूँगा, सत्यकाम बोला।।
तो मेरी इतनों वर्षो की सारी शिक्षा दीक्षा ब्यर्थ गई, अब मैं संसार को क्या उत्तर दूँगा कि मेरा शिष्य अपने मार्ग से भटक गया है या मैं उस गुरूकुल का आचार्य बनने योग्य ही नहीं था,तुमने ऐसा कार्य करके मेरी योग्यता, मेरी क्षमता और मेरी विद्या पर एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया है, यदि तुम्हारा सुख इसमें है तो सदैव खुश रहों और इतना कहकर आचार्य योगमाया के महल से चले आएं।
आचार्य के जाते ही सत्यकाम ने योगमाया से पूछा___
माया! मैने आचार्य से कुछ अभद्रतापूर्ण व्यवहार तो नहीं किया,कहीं कुछ अशिष्टता तो नहीं की,कहीं कोई ऐसा शब्द तो नहीं कह दिया जो वो मुझसे इतना क्रोधित होकर चले गए।।
नहीं, सत्यकाम! तुम्हारे गुरूकुल त्यागने पर वो क्रोधित थे,जब उनका क्रोध शांत हो जाएंगा तब हम दोनों उनसे क्षमा माँगने चलेंगें, तुम अभी विश्राम करो और बिना कारण अपने मस्तिष्क पर बोझ मत डालो,योगमाया बोली।।
ठीक है माया! लगता है तुम सही कह रही हो,मै तनिक विश्राम कर लेता हूँ और सत्यकाम माया के बिछावन पर पुनः लेट गया।।
परन्तु योगमाया की निंद्रा अब उचट गई थीं और वो महल के प्राँगण में आईं, कुछ समय वहाँ वृक्ष के चबूतरे पर बैठी रही,परन्तु आचार्य का क्रोध देखकर उसका चित्त भी अशांत सा था इसलिए वो मधुमालती के कक्ष से मधुमालती को जगाकर ले आई और बोलीं की तुझसे कुछ कहना।।
क्या बात है? देवी! कहिए,ऐसा क्या है जो भोर तक प्रतीक्षा नहीं हो सकती थी,मधुमालती ने पूछा।।
यही की आचार्य शिरोमणि आएं थे,वो बहुत क्रोधित थे सत्यकाम पर,माया बोली।।
क्या बोले,मधुमालती ने पूछा।।
यही की सत्यकाम ने अच्छा नहीं किया गुरूकुल त्यागकर,अब संसार को वे क्या उत्तर देंगें, माया बोलीं।।
परन्तु ,सत्यकाम उनके साथ नहीं गया ना! इसका तात्पर्य है कि वो आपसे निश्छल प्रेम करता हैं और आपका संग कभी नहीं छोड़ेगा, आपको चिंतित नहीं प्रसन्न होना चाहिए कि सत्यकाम आपके लिए सारे संसार से लड़ सकता है, सारे संसार का त्याग कर सकता है, वो आपके रूप सौन्दर्य से नहीं आपसे प्रेम करता है,मधुमालती बोली।।
तेरा कहना तो उचित है, किन्तु आचार्य अत्यधिक क्रोधित थे,माया बोली।।
अब आपका प्रतिशोध पूर्ण हो गया देवी! आप यही तो चाहतीं थीं कि आचार्य शिरोमणि का नाम कलंकित ह़ो जाएं,आपने यही तो चाहा था कि उनका अत्यंत प्रिय शिष्य उनसे विलग हो जाएं,दोनों के मध्य अन्तर हो जाएं, वहीं तो हो गया,आज आपकी जीत हुई और आचार्य शिरोमणि पराजित हुए,ऐसी ही तो हमारी योजना थी और हम सफल हुए और सत्यकाम अब आपकी मुट्ठी में हैं,
मधुमालती ने इतना कहा ही था कि मधुमालती द्वारा पीछे कहें वाक्य माया को खोजते हुए प्राँगण आ पहुँचे सत्यकाम ने सुन लिए और अब उसे लगा कि माया ने इतना बड़ा षणयंत्र रचा आचार्य को कलंकित करने के लिए और उसी समय वो माया के महल से माया को बताएं बिना बाहर चला गया,द्वारपाल ने आकर माया को ये सूचना दी कि अभी सत्यकाम बाहर की ओर क्रोधित होकर गए हैं अब माया को विश्वास हो गया कि सत्यकाम ने मधुमालती और उसके मध्य हो रहे वार्तालाप को सुन लिया है और वो मधुमालती से बोली,
जाओं तुम आचार्य को रोकों, वो अभी अधिक दूर ना पहुँचे होंगें और उन्हें सारी सच्चाई भी कह देना एवं माया स्वयं सुधबुध खोकर वो सत्यकाम के पीछे भागी।।
सत्यकाम क्रोध से बस चलता चला जा रहा था....बस चलता चला जा रहा था,माया पुकारती रहीं किन्तु वो कुछ भी सुनने को तैयार ना था,वो तो बस अपराधबोध से दबा जा रहा था कि भूलवश वो ये क्या कर बैठा,आचार्य का इतना बड़ा अपमान,उन पर इतना बड़ा कलंक,अब ये कलंक मेरी मृत्यु से ही मिट सकता है।।
और वो वायु के वेग से बढ़ता चला जा रहा था,बस बढ़ता चला जा रहा था,माया पुकारती रही किन्तु सत्यकाम ने एक ना सूनीं,माया के पीछे पीछे अब आचार्य और मधुमालती भी भागें चले आ रहे थे।।
कुछ ही समय में सत्यकाम एक बहुत ही ऊँची पहाड़ी पर जा पहुँचा और वहाँ से छलाँग लगा दी,माया पुकारती रही लेकिन उसने कुछ नहीं सुना,वो तो बस उसके कारण आचार्य पर लगा कलंक अपना रक्त देकर मिटाना चाहता था ,जो उसने कर दिया था।।
माया रोते हुए वहीं धरती पर बैठ गई सत्यकाम..... सत्यकाम..... चिल्लाते हुए,किन्तु अब सत्यकाम थोड़े ही लौट सकता था,उसने अब अपने शरीर का त्याग कर दिया था, अब उसकी आत्मा माया और संसाररूपी माया रहित थीं,जो केवल निर्मल और पवित्र थी।।
आचार्य ने भी सत्यकाम क़ो छलाँग लगाते देख लिया था और वो बोले.....
देखा माया! तुम्हारे प्रतिशोध ने एक निर्दोष के प्राण ले लिए,अब तुम कुछ भी कहना चाहोगी।।
नहीं, आचार्य! मुझे बस,इतना कहना है कि अपने हठ और घमंड के वशीभूत होकर मैनें ये अपराध किया है जो कि अक्षम्य है और इसका प्रायश्चित मुझे ही करना होगा, इतना कहकर माया अपने स्थान से उठी और भागते हुए उसने भी पहाड़ी से छलाँग लगा दी,आचार्य और मधुमालती ने पुकारा भी परन्तु वो ना रूकी।।
इस तरह माया ने प्रतिशोध के वशीभूत होकर अपने और सत्यकाम के प्राण ले लिए।।

समाप्त___
सरोज वर्मा___