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प्रतिशोध--भाग(९)


योगमाया की बात सुनकर सत्यकाम कुछ आशंकित सा हुआ,उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं अब माया से प्रेम स्वीकार करूँ या अस्वीकार क्योंकि माया ने तो मेरे समक्ष नेत्रहीन बनने का अभिनय किया,साधारण लड़की बनकर मेरे हृदय के संग खिलवाड़ किया और इतना ही नहीं उसने विश्वासघात भी किया है मेरे संग की वो निर्धन है,ना जाने कितने झूठ बोले मुझसे।।
किन्तु, मेरा हृदय तो कहता है कि अब भी मुझे उससे प्रेम हैं, कुछ भी हो उसने मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान की है, उसने मुझे व्यवाहारिक होना सिखाया है, यदि मैने ये प्रेम स्वीकार ना किया तो मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगा, मैं तो माया के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार था तो क्या इतनी बात जानने के बाद की वो एक राजनर्तकी है, मेरे प्रेम में खोट उत्पन्न हो गया,इससे क्या अन्तर पड़ता है कि वो एक राजनर्तकी है,ये वही माया तो है जिससे मैने प्रेम किया था इसलिए मुझे ये प्रेम स्वीकार कर लेना चाहिए।।
और सत्यकाम ने माया से कहा___
माया! मैं तुम्हारे विषय में इतना कुछ ज्ञात होने के उपरांत भी तुमसे अब भी प्रेम करता हूँ और करता रहूँगा।।
मुझे ज्ञात था सत्यकाम! कि तुम मुझसे अब भी अत्यधिक प्रेम करते हो,आज तक मुझे जितने भी पुरूष मिलें,सबने मेरे रूप और सौन्दर्य से प्रेम किया है परन्तु तुम पहले व्यक्ति हो जिसने केवल मुझसे प्रेम किया है, मुझे ज्ञात है सत्यकाम कि यदि भविष्य मे मुझे कभी कोई आवश्यकता हुई तो तुम मेरे लिए कुछ भी कर सकते हो,मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है, माया बोली।।
तो इसका तात्पर्य है कि तुम भी मुझसे प्रेम करती हो,सत्यकाम ने योगमाया से पूछा।।
हाँ,सत्यकाम! तुमसे प्रेम करती हूँ... अत्यधिक प्रेम करती हूँ, माया बोली।।
मुझे प्रसन्नता हुई ये जानकर और आज मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ, सत्यकाम बोला।।
तो चलो,सत्यकाम! अब मैं और तुम दोनों मेरे महल में चल कर रहेंगें, दिनरात एकदूसरे के संग,ताकि ये संसार हमें एक दूसरे से विलग ना कर पाएं,मैं कब से ये स्वप्न देखा करती थी कि जो वो मुझसे प्रेम करें,वो मेरे रूप सौन्दर्य से नहीं मुझसे प्रेम करें और आज ये मेरा स्वप्न पूर्ण हो गया, मैं ईश्वर की बहुत बहुत आभारी हूँ, माया बोली।।
किन्तु माया! मैं तुम्हारे महल में चलकर कैसे रह सकता हूँ, तुम एक राजनर्तकी को हो,मेरा तुम्हारे महल मे रहना उचित ना होगा,सत्यकाम बोला।।
किन्तु सत्यकाम! तुम्हारा प्रवेश तो अब गुरूकुल मे वर्जित होगा क्योंकि अब तो तुमने मेरा प्रेम स्वीकार कर लिया है, माया बोली।।
मैं एक बार आचार्य से आज्ञा लेकर आता हूँ, सत्यकाम बोला।।
नहीं सत्यकाम! तुम मुझे मिल चुके हो और यदि तुम गुरूकुल गए तो वे सब तुम्हें मेरे संग नही आने देंगें, माया बोली।।
तो ठीक है, मैं चलता हूँ, तुम्हारे महल,सत्यकाम बोला।।
अब सत्यकाम पूर्णतः माया के प्रेम में वशीभूत हो चुका था,उसे किसी की भी ना चिंता थी और ना ही सोच।।
और इधर सत्यकाम माया के महल पहुँचा और उधर मणिशंकर ने सारा वृत्तांत आचार्य शिरोमणि से कहने का विचार बनाया और वो आचार्य के निकट जा पहुँचा सत्यकाम के विषय मे सूचना देने____
आचार्य.... आचार्य... अनर्थ हो गया,मणिशंकर बोला।।
क्या हुआ? मणिशंकर! तुम ऐसे चिंतित एवं भयभीत से क्यों दिख रहें हो? आचार्य शीरोमणि ने पूछा।।
अब क्या बताऊँ आचार्य! आपका ज्ञान और आपकी शिक्षा कलंकित हो गई,आपका नाम धूमिल हो गया,अब संसार से आप क्या कहेंगे? क्या उत्तर देंगें इस संसार को? मणिशंकर ने अभिनय किया।।
परन्तु हुआ क्या है? कुछ मुझे भी तो ज्ञात हो? आचार्य शिरोमणि बोले।।
आचार्य! कल रात्रि सत्यकाम ना जाने कहाँ चला गया,कहता था कि उसे किसी लड़की से प्रेम हो गया है और वो उसके बिना नहीं जी सकता,मणिशंकर बोला।।
अच्छा! सुबह सुबह तुम मुझसे परिहास करने चले आएं,अच्छा चलो बहुत हुआ परिहास, जाओं सत्यकाम को बुलाकर लाओ,पूजा अर्चना का समय हो गया है,आचार्य शिरोमणि बोले।।
आचार्य! मैं सत्य कह रहा हूँ, आप मेरा विश्वास कीजिए, मणिशंकर बोला।।
मैं कदापि तुम्हारा विश्वास नहीं कर सकता,मणिशंकर! कि सत्यकाम मेरे संग छल करेगा,मैं ये स्वप्न में भी नहीं सोच सकता,मुझे तो उस पर स्वयं से भी अधिक विश्वास है, आचार्य शिरोमणि बोले।।
परन्तु आचार्य! ये आपका केवल भ्रम मात्र है, सत्यकाम ने आपका विश्वास तोड़ा है, आपके नाम को कलंकित कर बैठा है, मणिशंकर बोला।।
परन्तु, ये असम्भव है, आचार्य शिरोमणि चीखें।।
तो आप मेरे और भी सहपाठियों को भेजिए और ये ज्ञात करने का प्रयत्न कीजिए कि यदि सत्यकाम गुरूकुल में नहीं है तो कहाँ गया?मणिशंकर बोला।।
हाँ, मैं ये अवश्य करूँगा, इसी क्षण सभी को आदेश देकर सत्यकाम को खोजने का प्रयास करता हूँ, आचार्य शिरोमणि बोले।।
और आचार्य ने सभी शिष्यों से कहा कि इसी क्षण राज्य के सभी कोनों में जाओं,कैसे भी करके सत्यकाम को कहीं से भी खोजकर बताओ कि वो कहाँ हैं?
उसी क्षण सभी शिष्य सत्यकाम की खोज मे निकल पड़े,सत्यकाम को खोजते खोजते पूरा दिन ब्यतीत हो गया,सायंकाल हो गई थी किन्तु सत्यकाम को कोई नहीं खोज पाया ,ये बात मणिशंकर के श्रेष्ठ शिष्य बनने के मार्ग में बाँधा बन रहीं थीं, उसे लगा कि यदि सत्यकाम ना मिला तो आचार्य ये कदापि नहीं मानेंगें कि उसका किसी लड़की के संग प्रेमसम्बन्ध है, यदि सत्यकाम को कलंकित करना है तो अवश्य ही कोई ना कोई ऐसा प्रमाण खोजना पड़ेगा कि आचार्य शीघ्रता से मान लें कि सत्यकाम अपने मार्ग से भटक गया है,आचार्य से कहना होगा कि अब उसे ज्ञान की बातें आकर्षित नहीं करतीं क्योंकि अब तो उसे किसी लड़की के कजरे की धार एवं केशों में लगें सुगन्धमय पुष्प आकर्षित करने लगें हैं, उसका जीवन अब ज्ञान की दिशा की ओर नहीं, प्रेम की दिशा की ओर जा रहा है, जिसके तीव्र बहाव में वो बहना चाहता है, उसकी भँवर मे डूब जाना है, अब उसकी रक्तधमनियों में रक्त नहीं प्रेमरूपी मधु बह रहा है, जिसकी मिठास का वो आनन्द उठाना चाहता है, कामरूपी आसक्ति ने उसके तन पर बेड़ियाँ डाल रखीं हैं, अब उसे कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है, उसने प्रेम जो पा लिया है, अब नहीं चाहिए उसे गुरूकुल की नीरसता, उदासीनता जब कि उसके जीवन में पुष्पों की बगिया जो आ गई, जिसे देखकर, छूकर और पाकर वो सदैव प्रसन्न रहेगा।।
किन्तु सत्यकाम को किधर खोजूँ,आखिर कहाँ जा सकता है वो,मणिशंकर यही सोचता हूँ, नदीं के किनारें चला जा रहा था,तभी उसे नदी में सत्यकाम दिखा,जो किसी लड़की के संग नौकाविहार कर रहा था,नाविक नौका खे रहा था और वो दोंनों नौका में बैठे थे,इसका तात्पर्य था कि लड़की धनी थी,मणिशंकर एक झाड़ी के पीछे छुप गया एवं दोनों के वापिस आने की प्रतीक्षा करने लगा,कुछ समय पश्चात वो दोनों नौका से उतरे और बाहर आएं,उनके बाहर आने के पश्चात एक दासी ने देखा तो शीघ्र ही पालकी वालों को आदेश दिया कि पालकी तैयार करो,दोनों प्रस्थान करेंगें,पालकी आई दोनों पालकी में बैठे और प्रस्थान कर गए।
उन दोनों के जाने के पश्चात मणिशंकर झाड़ियों से बाहर आया और उस दासी से पूछा____
जी,ये दोनों कौन थे? अत्यधिक धनी दिख रहे थे।।
जी,आपको इससे क्या लेना देना,उस दासी ने उत्तर दिया।।
बस,मै तो ऐसे ही ज्ञात कर रहा था,कुछ दान दक्षिणा मिल जाती तो,क्योंकि मैं तो गुरूकुल का साधारण सा शिष्य हूँ, हम शिष्यों को तो भिक्षा माँगकर ही जीवन यापन करना पड़ता है, मणिशंकर बोला।।
आप का शुभ नाम क्या है महाशय! दासी ने पूछा।।
मेरा नाम तो शम्भूक है, मणिशंकर ने झूठ बोलते हुए कहा।।
जी ,किन्तु क्षमा करें महाशय! मैं आपको कोई भी जानकारी नहीं दे सकती और इतना कहकर वो दासी चली गई और मणिशंकर का मस्तिष्क क्रोध से गरम हो गया।
अब मणिशंकर ने सोचा,पालकी का पीछा करके ज्ञात किया जा सकता है कि सत्यकाम के संग वो कौन थी और उसने ऐसा ही किया उनका पीछा करने लगा।।
कुछ समय पश्चात पालकीं महल के सामने रूकीं और दोनों पालकी से उतरकर महल के भीतर चले गए, तब मणिशंकर ने द्वारपाल से पूछा कि ये किसका महल है।।
जी,आपको ज्ञात नहीं, द्वारपाल ने मणिशंकर से पूछा।।
ज्ञात होता भाई तो तुमसे क्यों पूछता,मणिशंकर बोला।।
जी,ये महल राजनर्तकी योगमाया का है और जो अभी पालकी से एक युवक के साथ उतरीं हैं, वो ही योगमाया हैं, द्वारपाल ने उत्तर दिया।।
और ये सुनकर तो जैसे मणिशंकर का प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा___