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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 15

मैं भारत बोल रहा हूँ -

काव्‍य संकलन

यातना पी जी रही हूँ -

यातना पी जी रही हूँ।

साधना में जी रही हूँ।।

श्रान्ति को, विश्रान्ति को मन, कोषता रह-रह रूदन में।

याद आते ही, जहर सा, चढ़ रहा मेरे बदन में।

इस उदर की, तृप्ति के हित, निज हृदय को, आज गोया।

हायरे। निष्‍ठुर जगत, तूँने न अपना मौन खोया।

मौन हूँ पर, सिसकती अपने लिए ही रो रही हूँ।।

निशि प्रया, बाहरी घटा बन घिर रही चहु ओर मेरे।

रात आधी हो गई पर, वह सुधि, मुझको है टेरे।

आंख फाड़े देखती हूँ, कांपते तारे गगन में।

पेट की नहीं, भूँख मिटती, रो रहे बारे भवन में।

भींचकर जर-जर बदन से, भूँख उनकी खो रही हूँ।।

ये निराली योजनायें, छलमयी मुझको बनी हैं।

खो नहीं पाती शिशिर में रात में सर्दी घनी है।

आज कितनी, नग्‍न बदना, इस धरा पर जी रही है।

फट गई चुनरी जगह कई, फेर उनको सीं रही है।

कष्‍ट सारे शहन कर पर राज-जीवन चल रही हूँ।।

दे सको जितना मुझे दो-कष्‍ट, मैं आदी बनी हूँ।

देखलो। निर्माण-पथ की ईंट मैं, म्‍यादी बनी हूँ।

घुट रही, पर राह को, सुन्‍दर बनाने में पगी हूँ।

विश्‍व की, मंजिल सुनहरी-कब बने, इसमें लगी हूँ।

स्‍वप्‍न को, साकार करने, मैं धरा पर चल रही हूँ।।

इस कहानी को मिटाने, विश्‍व क्‍यों मग में खड़ा है।

नेत्रहीन, बन रहा क्‍यों रे, मौत के मग में अड़ा है।

चीथड़ों में पाट का सुख, ले रही हूँ शक्ति स्‍वर में।

पर मेरा श्रृंगार गौरव, पल रहा, प्रत्‍येक उर में।

बस-मुझे सुख है इसी में, इस तरह से जी रही हूँ।।

हँस रहा है वृद्ध जग यह देख कर मेरी पेशानी।

लिख रही हूँ, व्‍योग पथ में अश्रु से युग की कहानी।

क्रान्ति का उद्घोष होगा, तब कहीं, शान्ति मिलेगी।

दलदले पर, चमकती दीवार, जब रज में मिलेगी।

तब कहीं, अस्तित्‍व मेरा, तुम गुनोगे, कह रही हूँ।।

- मेरी होली –

मेरे ही द्वारे, गलियारे, मेरी होली जला रहे हैं।

कहॉं छियाऊँ अपनेपन को, दामन मेरा उड़ा रहे हैं।।

यह मधुमासी जीवन देखो, मुश्किल से मैंने पाया है।

राग-रंग और चहल-पहल का मदमाता मौसम आया है।

पर सिन्‍दूरी मांग मिटाकर, वे धूलों को, उड़ा रहे हैं।।

सोचा, लाल, गुलाबी रंग की, होली में भरमार रहेगी।

ढोलक, तबला, मंजीरा, सरंगी की सार रहेगी।

किन्‍तु भुखमरी, रिश्‍वत खोरी, बेरोजगारी बढ़ा रहे हैं।।

क्‍या सुन्‍दर चेहरा भारत का, मधुरितु का क्षण क्षण है गाता।

गर्वोन्‍नत, मदमत्‍त माल लख, अरि दल भी पीछे हट जाता।

पर अफसोस यही है मन में, उस पर कालिख, लगा रहे हैं।।

जीवन के अरमान मिट रहे, मैं-निराश होली में, आया।

यह फागुन जो चार दिवस का, बदरा क्रन्‍दन छाया।

सत सनेह से मुखरित चेहरे मुझको कहीं- नहीं दिखा रहे हैं।।

इस स्‍वतंत्रता की धरती पर, कितने हैं स्‍वतंत्र, बतलाओ।

दानवता के ढोल बज रहे, मानवता को, ढूँढ न पाओ।

सच मानो, मानव तंगी में, जीवन होली, जला रहे हैं।।

- रंग पंचमी –

दर्द से दुनियाँ भरी यह, सुख कहीं नहीं रंच भी है।

है नहीं स्‍नेह दिल में, फिर कहां रंग पंचमी है।।

पांच रंग की बात है कहां, एक भी रंग, नहीं दिखाता।

सब कहैं रंग पंचमी, पर समझ मेरी में न आता।

हर कहीं पर देखता तो, शूल की चादर तनी है।।

मानवी का रूप फीका, दानवी किल्‍ला रही है।

भटकता विद्वान दर-दर, मूर्खों की आरती है।

ज्ञान की पूजा नहीं, अग्‍यान की महिमा घनी है।।

जब प्रकृति की ओर देखा, पर्णहीना, जग हुआ सब।

एक टेशू जल रहा तब, कल्‍पना में सुख रहा कब।

हर कहीं, जलतीं निगा हैं, मानवी अति अनमनी है।।

धुआ पीडि़त नग्‍न बसना, तृषा का रंग, छा रहा है।

आत्‍महीना, न्‍याय वेमुख, पांच रंग में गा रहा है।

आज इस तप्‍ती धरा पर मानलो रंग पंचमी है।।

-मिटा रहे क्‍यों आज-

मिटा रहे क्‍यों आज मूल मानव अरमानों को।

और कहो, कब तक पूजोगे, इन शमशानों को।।

जो मानव जग मूल, भूँख से भूँखों है मरता।

बसनहीन, तनक्षीण, शीत-आतप में पग धरता।

घृत मेवा अरूबसन चढ़ें पत्‍थर भगवानों को।।

है छल का व्‍यवहार, छले यहां सच्‍चे ही जाते।

मरे हुए जो पूर्व, गीत जिन्‍दपन से गाते।

यहां रूलाते हैं प्रतिक्षण, जिन्‍दे भगवानों को।।

देख रहा चहुँ ओर, शून्‍य की पूजा होती है।

जो साकार सरूप, आत्‍मा उनकी रोती है।

सुनते हैं चहुओर –छोर क्रन्‍दन के गानों को।।

घर करते बीरान, और शमशान पूजते हैं।

भूँखे हैं मेहमान, यहां हैवान, पूजते हैं।

मृत्‍यु का अभिषेख, जन्‍म के मूल ठिकानों को।।

– कैसी जिंदगी –

बात यह कहना मुझे, क्‍या आज हम सब जी रहे।

और कैसी जिंदगी को, प्‍यार कितना, दे रहे ।।

जो तरसतीं हैं निगाहें, क्‍या उन्‍हें हम प्‍यार देते।

भूल में भूले हुए हैं, सच उन्‍हें दुतकार देते ।

यदि कहीं कुछ मांगने को, औंठ उनके फड़फड़ाते।

चुप रहो। बस सुन‍ लिया है, और उन पर गड़गड़ाते।

क्‍या उन्‍हीं की आह से हम, जिंदगी ये जी रहे हैं।।

हैं हमें, घृणा उन्‍हीं से, चीथड़ों में जी रहे जो।

देश के निर्माण पथ पर पाट हमको सीं रहे जो।

जिन किए महलों के राजा, खुद खड़े बीरान मग में।

वे निरंतर चल रहे हैं पड़ गए छाले हैं पग में ।

फिर भी जीवन राह को, श्रृंगार मय, वे कर रहे हैं।।

आज उनकी हर दशा को, हम घृणा से देखते हैं।

ये हमारे भाई ही हैं स्‍वप्‍न में भी लेखते हैं।

क्‍या उन्‍हें पावन धरा पर, हक कभी जाने का देते।

प्‍यार के बादल बरस कर, जल उन्‍हें पीने को देते।

देखता है जग उन्‍हें क्‍या जिंदगी ये जी रहे हैं।।

दीन-दुखियों की कहानी से, कहो है प्‍यार-किसको।

मौन बनती है धरा तब, बोलना अधिकार किसको।

आज जिन श्रम सीकरों ने, ताज तुमको दे दिया है।

क्‍या उन्‍हें सच प्‍यार का, श्रृंगार तुमने दे दिया है।

बस इन्‍हीं भूलों से हम तो, घूँट गम के, पी रहे हैं।।