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कबीर मुक्त द्वार संकरा...

मेरी पुरानी डायरी का ये पृष्ठ-

मेरा जन्म 30 नवंबर 1928 के दिन हुआ था और आज 6 जून 2006 की रात है कल मेरी उम्र भीमरथी हो जाएगी…।

भीमरथी? आप नहीं जानते?

भीमरथी मनुष्य की वह अवस्था है जो उसके 77 में वर्ष के सातवें मास की सातवीं रात समाप्त होने पर होती है।

मेरे जीवन की कोई ऐतिहासिक घटना?

पहले बताइए ऐतिहासिक से आपका तात्पर्य क्या है?

केवल इतिहास-प्रसिद्ध?

जिसके अंतर्गत पूरी मानव-जाति अंतर्ग्रस्त हुई हो?

जिसके आख्यान इतिहास-लेखक लिपिबद्ध कर चुके हो? जिसके वर्ष वृत्तांत तिथिबंध रख चुके हों?

जिसकी इतिहास के संग कलाबाज़ी के कार्य-कारण सर्वविदित हों?

या फिर किसी ऐसी घटना को भी आप ऐतिहासिक मान लेंगे जो इतिवृत्त बन चुकी हो? पूर्ववृत्त घट चुकी हो? जिसके दोनों छोर हमारे हाथ में हो? उसका उद्गम भी? और उसका अवसान भी?

हाल ही में 1999 में संगठित मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट के आने से आजकल सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के विषय में अटकलबाजी फिर तेज़ हो रही है। अभी तेरह दिन पहले अपने को आज़ाद हिंद फौज के सुभाषचंद्र बोस का ड्राइवर बताने वाले आजमगढ़ निवासी निजामुद्दीन का बयान 24 मई, 2006 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में आपने देखा भी होगा- ‘यह सब प्रोपेगेंडा नेताओं द्वारा किया गया कि नेताजी एयर क्रैश में मारे गए। सच तो यह है कि आजादी के वक्त नेता जी भी मौजूद थे।’

लेकिन 19 अगस्त, 1945 को अखबारों ने साफ-साफ छापा, नेता जी को टोक्यो ले जा रहा हवाई जहाज आग की लपट में पूरी तरह नष्ट हो गया है और जहाज में सवार सभी यात्री परलोक सिधार लिए हैं।

उस दिन मेरे पिता असमय घर चले आए थे, मुस्कुराते हुए, “खबर बड़ी है…।” “क्या हुआ?” मां नीचे पीढ़ी पर बैठी मेरी सबसे छोटी, चौथी, बहन को स्तनपान करा रही थीं।

“बोस खत्म। आज़ाद हिंद फौज खत्म। आज़ाद हिंद फौज के फौजी खत्म।

यहां यह बता दूं मेरे नाना आज़ाद हिंद फ़ौज में थे और मेरे पिता के परिवार में उनके उल्लेख पर उतना ही प्रतिबंध था जितना देश की तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने नेताजी के नाम पर लगा रखा था। मेरे नाना ने भरती तो ब्रिटिश आर्मी ही में ली थी, सन् सत्ताईस में। इतिहास-पुरुष उन्हीं मोहन सिंह के संग-संग जिन्होंने 15 फरवरी, 1942 के दिन आज़ाद हिंद फौज की पहली ब्रिगेड के अगुवा के रूप में जापान की ओर से सिंगापुर हथिया लिया था। जिनका फिर मुख्य कार्यालय सिंगापुर ही में स्थापित हो लिया था। जापानी फुजिवारा किकन के दफ्तर की बगल में। वही फुजिवारा किकन जो जापानी गुप्तचर विभाग के मुखिया मेजर फुजिवारा के नाम पर खड़ा हुआ रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतर्गत जिस ब्रिटिश भारतीय सेना को थाए-मालाएन सीमा पर जापानी सेना ने उखाड़ा था, उसके फर्स्ट ऑब्लिक फोर्टींथ पंजाब रेजीमेंट के मेरे नाना और कैप्टन मोहन सिंह हज़ारों दूसरे भारतीय सेनानियों के साथ युद्धबंदी बना लिए गए थे। इस बीच सन् इकतालीस के आते-आते इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के रासबिहारी घोष जापान सरकार को इस बात के लिए राजी कर चुके थे कि युद्ध में पकड़े गए भारतीय सेनानियों को शत्रु नहीं माना जाएगा और वे जापानी सेना के संग अंग्रेजी सेना के विरुद्ध लड़ेंगे। ऐसे में कैप्टन मोहन सिंह ने अपनी सेवाएं जब जापान को सहर्ष और सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत की थीं तो उन्हें अलोर स्टार के उस कैंप में रखे सभी भारतीय युद्ध-बंदियों की निगरानी का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया था। यही नहीं, इधर नई खड़ी आज़ाद हिंद फौज ने भी उन्हें जनरल का पद दे दिया था। सिंगापुर में जमा हो चुके पैंतालीस हज़ार भारतीय युद्धबंदियों में से भी बीस हज़ार सेनानी भारतीय आजाद हिंद फौज में सम्मिलित हुए थे। कर्नल फुजिवारा की जगह नए आए कर्नल इवागुरो ने, किंतु इन फौजियों का जापानियों में विश्वास संदेहास्पद स्थिति में ला पहुंचाया था- आज़ाद हिंद फौज के रेडियो ब्रॉडकास्ट सेंसर किए जाने लगे थे, भारतीय बंदियों के साथ उनका व्यवहार निष्ठुर होने लगा था और सिंगापुर के जापानी कमांडर ने जैसे ही आजाद हिंद फौज का संचालन अपने जिम्मे लिया था तो दिसंबर, 1942 के आते-आते मोहन सिंह ने त्यागपत्र दे दिया था। पहले उन्हें दिसंबर, 1943 तक एक द्वीप में नजरबंद रखा गया था फिर उन्हें सुमात्रा भेज दिया गया था जहां ब्रिटिश ने उन्हें अपना बंदी बना लिया था। इधर जून, 1943 में सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से सिंगापुर आ गए थे और आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर बन गए थे। साथ ही इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के प्रेसिडेंट भी। सिंगापुर ही में उन्होंने आजाद हिंद की अंतरिम सरकार की घोषणा की थी जिसमें सरकार के मुखिया वे स्वयं थे और जिसके चार मंत्रियों और सेना के आठ प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी उन्हीं के हाथों संपन्न हुई थी। एग्जिस पावर्स और उसके सेटेलाइट देशों ने आजाद हिंद की उस अंतरिम सरकार को मान्यता दी थी और जापानी सुभाषचंद्र बोस की इस पुनः संगठित आजाद हिंद फौज को पहले से कहीं अधिक महत्व देने लगे थे। मेरे नाना सुभाषचंद्र बोस के साथ रंगून पहुंचे लिए थे जिसे अब आजाद हिंद फौज का मुख्यालय बना लिया गया था। बर्मा भारत फ्रंट पर भी आजाद हिंद फौज को भेजा गया था जहां फरवरी, 1944 में उसने ब्रिटिश सेना का जमकर सामना किया था और भारतीय क्षेत्र में अपने पैर जमाने में सफलता प्राप्त की थी। अंडमान और निकोबार द्वीप पहले से ही आजाद हिंद सरकार को ग्रेट ईस्ट एशिया नेशंस कॉन्फ्रेंस की नवंबर, 1943 की टोक्यो वार्ता के दौरान सौंपे जा चुके थे। यह अलग बात है कि मई 1944 में आजाद हिंद फौज अराकन फ्रंट पर इंफाल को अपने कब्जे में ले लेने में असफल रही थी और आगे चलकर जनवरी, 1945 में भी ब्रिटिश फोर्टींथ आर्मी के हाथों इराक्दी में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

“आजाद हिंद फौज कभी खत्म नहीं हो सकती।” ताव खाकर मां चिल्लाई थीं, “कभी खत्म नहीं होगी। खत्म होंगे गल्ले वाले और उनका आटा डालने वाले…।”

मेरे दादा गल्ले के आढ़ती थे और द्वितीय विश्वयुद्ध के उन दिनों में लगभग अकाल की स्थिति के आ जाने से अच्छी चांदी काट रहे थे।

“फिर बोल।” मेरे पिता ने मां की पीठ पर अपनी लात चलाई थी।

मां पीढ़ी से औंधे मुंह फर्श पर जा गिरी थीं, दूध-पीती मेरी बहन समेत।

“फिर बोल” मेरे पिता ने मां को फिर लतियाया था।

“आजाद हिंद फौज कभी खत्म नहीं होगी।” ना फिर चीखी थीं।

“यह कैसा बलवा है?” मेरी दादी कमरे में आन घुसी थीं। रो रही मेरी सबसे छोटी बहन को उन्होंने मां की बगल से उठाया था और पास खड़ी मेरी सबसे बड़ी बहन के कंधे से जा चिपकाया था।

“बलवई बाप की बलवई औलाद है।” मेरे पिता ने अपनी लात फिर मां की ओर ला बढ़ाई थी, “अपने बाप का नाम रोशन कर रही है…।”

मां ने अपने हाथ मेरे पिता की लात पर जमा दिए थे।

“तू कब समझेगी?” मेरी दादी ने मां को झकझोरा था, “तू चौपड़ बाजार में नहीं खड़ी है। घर-परिवार की चारदीवारी के अंदर बैठी है। तेरी जबान पर नारे नहीं सजदे, आरती सजती है, प्रभु महिमा सजती है…।”

“यह कभी नहीं समझेगी।” मेरे पिता अपने दोनों हाथ मां पर बरसाने लगे थे। ताबड़तोड़।

दादी ने भी मां के बालों और बांहों पर धावा बोल कर अपना योगदान प्रस्तुत किया था।

दोतरफा आक्रमण मां के लिए भारी सिद्ध हुआ था और वे अचेत होकर फर्श से जा चिपकी थीं।

मैं और मेरी तीनों बड़ी बहनें मां की बगल में बैठकर रोने लगे थे। उन दिनों बच्चे बड़ों के सामने अपनी जुबान पर ताला लगाए रखते थे।

दादी ने आढ़्त से दादा को बुलवा लिया था। दादा ने आते ही समझाया था। मां के उजले रंग के कारण उनके चेहरे और गर्दन पर उभर आए नीले निशान पड़ोसियों में कानाफूसी का कारण बन सकते थे और मां को हटाना ज़रूरी था।

तत्काल दो तांगे बुलाए गए थे।

एक में दादी, ताई और बड़ी बुआ मां के साथ सवार हुई थीं तो दूसरे में दादा, ताऊ, चाचा और मेरे पिता।

मां उनके संग न लौटी थीं।

उन्हें उसी दोपहर श्मशान घाट पर जला दिया गया था।

आज भी मेरे मन में एक खटका जीवित है, तांगे में सवार की जा रही मां निष्प्राण नहीं थीं, केवल अचेत थीं।

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