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बाजार में गुम होती शिक्षा

आज शिक्षा की निरर्थकता और व्यवसाय विहीन शिक्षा के बारे में उमड़ती शिकायतों से जाहिर है कि जिस तरह की आदर्श अपेक्षाएं शिक्षा से की जाती हैं उतनी अन्य किसी उपक्रम से नहीं । शिक्षा क्षेत्र निर्माण नहीं कर रही, शिक्षा व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास में सहायक नहीं हो रही, शिक्षा ज्ञान के बदले सूचनाएं दे रही है, शिक्षा मूल्यपरक नहीं है, शिक्षा रोजगार नहीं दे रही, शिक्षा महंगी हो गई है, शिक्षक पढ़ाते नहीं है,---- इस तरह के विलाप प्रारूप चारों दिशाओं में गूंज रहे हैं।
भृष्ट राजनीति, राज्य व्यवस्था और जींस के रूप में हर चीज बेचते बाजार में आकर शिक्षा की ही कुशलता की कामना कैसे की जा सकती है ? जब हर वस्तु और सेवा पर कीमत का टँगना लिखा है और साथ में मुफ्त उपहार कॉल लुभावना खिंचाव है । यह लेने की मानसिकता प्रमुख है तो शिक्षा अप्रभावित कैसी रहेगी। आर्थिक दशा सुधारने के लिए मान लिया गया कि सकल उत्पाद में वृद्धि आवश्यक है, सकल उत्पाद में वृद्धि के लिए बाजार उदार हुए, यह उदारता भूमंडलीय हो गई । निवेश के लिए आवेदन पत्र बांटे गए, शुभ आगमन और स्वागतम के तोरण सजाए गए, विनिवेश की प्रक्रिया तेज हुई,बंधन और लचर हुए। प्रशासन के कारण अलाभकर स्थिति में पहुंचे सार्वजनिक उपक्रम तो निजी हाथों में बेचे ही गए, थोड़ी सी स्थिति संभालने के लिए जिन्हें ठीक किया जा सकता था उन्हें भी बचाने की व्यवस्था नहीं हो रही।
परिणाम बहुत सीधा और सामान्य समझता है । समाजवाद में उद्योगों का लाभ सारे देश की जनता से वितरित होता है, जबकि व्यक्तिवादी उद्योगों का लाभ व्यक्तिगत होने के कारण दूसरों को उस से वंचित होना पड़ता है । कहते रहें नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन कि प्रश्न यह नहीं है कि सकल उत्पाद कितना है, बल्कि प्रश्न है कि उसके वितरण का लाभ कितने लोगों को मिलना है ? शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की प्राथमिकताएं हैं, जो कल्याणकारी राज्य में सबके लिए सुनिश्चित हो । अमीरी और गरीबी के बीच के अंतर के संबंध में एक तथ्य है कि विकसित देशों में यह फैसला अमीरी गरीबी का ना होकर अमीरी और ज्यादा अमीरी का अंतर होता है। जब कि भारत जैसे विकासशील देशों में यह अंतर तमाम सुख भोग रहे धन्ना सेठों और निपट गरीबी में रह रहे लोगों के बीच का अंतर होता है। इस समय भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं और जिन लोगों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं ही मुहैया नहीं हो पाती उनकी संख्या 25 करोड़ से भी ज्यादा है (राष्ट्रीय सहारा दिल्ली 25 जून 2001) इस जनसंख्या के लिए आज की शिक्षा के महंगे बाजार में पहुंच पाना तो सुलभ है ही नहीं। उसके लिए शिक्षा ही अकल्पनीय है। अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा को रोजगार से जोड़ा जाना चाहिए, ऐसी सामान्य शिक्षा से क्या लाभ, जिससे मैकाले की पद्धति पर सिर्फ बाबू तैयार हों।
शिक्षा को रोजगार से जोड़ने के लिए व्यवसाय को तकनीकी पाठ्यक्रम तैयार किए गए। यह माना गया कि किसी भी प्रविधि या तंत्र का प्रशिक्षण शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति अपना रोजगार स्वयं प्रारंभ कर सकता है। यहां व्यवसायिक, आर्थिक परिदृश्य के इस तथ्य को ध्यान में नहीं रखा गया कि किसी मध्यवर्गीय व्यवसाय को भी चलाने के लिए प्रविधि के अलावा और साधनों की भी आवश्यकता होती है। रोजगार परक शिक्षा के विकास के लिए तकनीकी विकास का विस्फोट हुआ। इधर प्रौद्योगिकी के विस्फोट और भूमंडलीकृत उदार बाजार की व्यवस्था ने नए उद्योगों को पहले से चल रहे उद्योगों के विस्तार के द्वार खोले । इस विस्तार की संभावना तीसरी दुनिया के भारत जैसे विकासशील देशों में अधिक दिखाई दी। अतः व्यापार प्रबंधन , कंप्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में बहुत तेज गति से शिक्षण संस्थाएं खुली । शिक्षा में निजीकरण तो पहले से चल रहा था, पर तकनीकी और प्रौद्योगिकी की शिक्षा में व्यापारिक लाभ की गुंजाइश अधिक दिखने पर हजारों छोटी-बड़ी संस्थाएं अचानक अस्तित्व में आ गई । सारे अखबार विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा के ऐसे विज्ञापनों से भरे रहते हैं । मोटी फीस, बड़े दान उन्हें समृद्ध बनाते हैं ।शासन की तथा विश्वविद्यालयों , तकनीकी प्रश्नों की मान्यता रद्द होने लगी ।
इसका आशय यह नहीं है कि आज की प्रौद्योगिकी के समय में हम तकनीकी शिक्षण प्रशिक्षण में विकास व विस्तार न करें बल्कि विचारणीय बात यह है कि शिक्षा को अन्य वस्तुओं के व्यापार की तरह ना चलाया जाए। क्योंकि व्यापार का एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना होता है और लाभ के लिए गुणवत्ता का ध्यान रखना। यह बात केवल तकनीकी शिक्षा के प्रसार पर ही लागू नहीं होती, बल्कि सामान्य शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर भी विद्यालयों और महाविद्यालयों का व्यवसाय के रूप में विस्तार हुआ। रिहायशी मकानों जैसे भवनों में शिक्षण संस्था की अनुकूल स्थितियों और सुविधाओं के बिना ही निजी विद्यालय खुलते गए। बेरोजगारी से पीड़ित लोग अध्यापन के लिए नाम मात्र के वेतन पर काम करने को विवश होते गए। शिक्षा को व्यापार की तरह चलाए जाने का एक और उदाहरण है , सभी तरह की तकनीकी और गैर तकनीकी शिक्षा के लिए कोचिंग के संस्थानों में विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित होते रहते हैं ।
यह धारणा बन गई है और ज्यादा झूठ भी नहीं है कि स्कूलों कॉलेजों में पढ़ाई उतनी होती नहीं है, इसलिए अलग से कोचिंग लेना आवश्यक है । इंजीनियरिंग और चिकित्सा शिक्षा की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए अनिवार्य से हो गए हैं। फिर व्यवसायिक विज्ञापन के रूप में उन सभी छात्रों के नाम प्रकाशित किए जाते हैं जो उन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाते हैं। योग्यता सूची में नाम हो तो कहना ही क्या ! कभी-कभी तो छात्रों से कोचिंग संस्थान अथवा सर विशेष के पढ़ाने के प्रति आभार पत्रों को भी प्रकाशित कर विज्ञापित किया जाता है व्यवसायिकता यहां भी ।
प्रमुख संपन्न देशों को अपने उत्पादों के लिए विकासशील देशों के बाजार चाहिए। उपभोक्ता बाजार का अनिवार्य अंग है। विशाल मध्यवर्ग को बाजार की तरफ खींचने और उन्हें गैर जरूरी होते हुए भी सामान के उपभोक्ता में बदलने के लिए आर्थिक भूमंडलीकरण की कोशिश है। ऐसा वर्ग तैयार कर रही हैं जिनके लिए शिक्षा की नैतिकता नैतिक आवश्यकताएं बेमानी है। ज्ञानात्मक संवेदना ऑसम मेन आत्मज्ञान या अनुपस्थित है ,ऐसे वातावरण में मूल्यों की शिक्षा लगभग अप्रासंगिक होती जा रही है ।मूल्यपरक शिक्षा से संबंधित धारणा का जिक्र भी यहां संदर्भ ही नहीं होगा । नैतिक अथवा मूल्यपरक शिक्षा से प्राया यह समझ लिया जाता है कि उसमें या तो अलग और अख्तर के आदर्शों का समावेश हो अथवा केवल अतीत का गौरव गायन। इसके पीछे संभवत यह होता है कि अतीत की तुलना में वर्तमान के पास तो गर्व करने लायक कुछ है ही नहीं । वर्तमान के अनुकूल नए-नए सामाजिक और राष्ट्रीय हित में मूल्यों के संवर्धन की भी आवश्यकता नहीं है। एक बात और है नैतिक शिक्षा एक विषय या किताब के रूप में किया जाने वाला कर्मकांड नहीं है उसका संबंध व्यवहारिकता से है ।अतीत की प्रासंगिकता और वर्तमान की आवश्यकता ऐसा संबंध में ही स्वीकार्य समझा जा सकता है जो उदात्त मानवीय दृष्टिकोण को प्रेरित करें । आज हमारे मूल्य हो सकते हैं । जाति वर्ग धर्म नस्ल के विभाजन पर एक समन्वित समाज की अवधारणा लोकतंत्र में आस्था वैज्ञानिक विचार दृष्टि समाज और देश के प्रति आत्मीय लगाव व्यक्ति के रूप में साहस और त्याग तथा रूढ़ि मुक्ति राजनीति व्यापक कल्याण को नजरअंदाज करके अपने हितों का प्रदर्शन करने लगते हैं। जहां हंसते नियंत्रण होना चाहिए वहां तो असमर्थ दिखाई देती है। पाठ्यक्रम पुस्तक लेखन आदि में राजनीति आ जाती है । कृष्ण कुमार ने ऐसी एनसीईआरटी के हाल के ही राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के स्वरूप का विश्लेषण करके करते हुए इस ओर संकेत किया है (डिजाइनिंग द यंग टाइम्स ऑफ इंडिया दिल्ली 31 मार्च 2001)
आज के समय में जब समाज की जीवन शैली तेजी से बदल रही है ,जब दृश्य श्रव्य माध्यम एक नई उन्मुक्त उधर आश्रित व्यक्ति पर रक्त संबंधी उपभोक्तावादी संस्कृति प्रस्तुत कर रहे हैं ।जब राजनीति में भ्रष्टाचार की खबरें आम हो गई हैं, शिक्षा केवल कैरियर के माध्यम के रूप में समझी जा रही है ,तब जीवन के मानवीय मानदंडों से परिचालित ज्ञान पर तथा विचार प्रेरक शिक्षा के बारे में होने वाली बड़ी बड़ी बहसो और गोष्ठियों में होने वाली चर्चाएं औपचारिक ही मानी जाएंगी

70 हाथीखाना दतिया