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अंतिम यात्रा या अंतर्यात्रा

मेदान्ता हॉस्पिटल की आई सी यू लॉबी में सब नाते रिश्तेदारों की भीड़ जमा थी। दौड़ते भागते फुसफुसाते चेहरों में एक भी अपना सा चेहरा नही लग रहा था। एक कुर्सी पर कोने में खामोशी से बैठा मैं कोई एक कन्धा खोज रहा था जिस पर सिर रख कर आँसूं बहा सकूँ।
मैं एक सुच्चे मोती को अपनी मुट्ठी से फिसलकर समंदर में विलीन होते खामोशी से देख रहा था। मेरे हाथ सिर्फ सीप थी जो प्रस्तर खंडो की तरह फिसलते हुए रेत में घुल जाना चाहती थी।
कितना मुश्किल समय है आज ये मेरे लिए। 60 बरस का हमारा साथ रहा। और आज वो अकेले उस मंजिल की तरफ जाने की तैयारी कर रही हैं जहाँ से लौट आने का कोई रास्ता नही होता। अरे कोई तो शिकवा-शिकायत आज भी करती और मैं भी तो अड़ जाता कि नहीं जाने दूंगा। लेकिन सूरज की रोशनी आखिर कब तक रहती। मेरे इर्दगिर्द अँधेरा होना तय था न।
उसके साथ बिताए हुए पल-छिन याद आ रहे हैं मुझे। पकिस्तान में बचपन वाली उम्र में ही हमारी सगाई हो गयी थी। दूर के रिश्ते की मौसी की बेटी थी। वो जमाना ही ऐसा था कि रिश्तेनातो में ही लड़की ढूँढ ली जाती थी। माँ बिरादरी में होने वाली शादी ब्याह में कोई लड़की देखती थी और अपने बेटे के लिये पक्की कर आती थी। बेटे को भी कई सालो बाद पता चलता था कि फलाने फलाने रिश्तेदार की बेटी उसके नाम के साथ पक्की हो चुकी हैं।
अम्मा और बाबाजी ने मेरा 15 बरस की उम्र में रिश्ता पक्का कर दिया था और मुझे यह सब मालूम हुआ 17 बरस की उम्र में। बशीरे को जब मैंने कुँए के पास बैठकर यह सब बताया तो उसने कहा कि उसकी खाला भी उसी गाँव में रहती हैं।
खाला को मिलने के बहाने से हम घर में बिना बताये गाँव पहुँच गये थे। डर के मारे ना तो किसी से कुछ पूछ सके ना खोज सके और सिर्फ गाँव की खुशबु से ही सराबोर और सुवासित होकर घर लौट आये। मन का कोई कोना जैसे उस अनदेखी लड़की के लिए प्रतीक्षारत रहने लगा था। आस पास की सब भाभियों को अब ध्यान से देखने सुनने लगा था।
देश का बंटवारा हो गया। दोनों के परिवार हरियाणा दिल्ली के बॉर्डर पर आकर डेरा जमाये थे। जल्द ही उनको मकान भी अलाट हो गये थे। ज़िन्दगी अब रोटी मकान की फ़िक्र में व्यस्त हो गयी थी। दो अढाई बरस फिर बीत गये ?
फिर अम्मा को अपने बेटों के ब्याह की फ़िक्र हुयी और बारी से मेरा भी नम्बर आगया।
ऐसे ही बैसाख के महीने में कृष्ण पक्ष की एकादशी को शारदा मेरी ज़िन्दगी में एक सुन्दर सा अहसास बन उतर आई थी। मेरी चाल और व्यवहार में एक दृढ़ता आ गयी थी उसके आजाने से। शादी के शुरुआती दिन कितने प्यारे-सुहाने होते हैं। यह मालूम ही नहीं था और अब तो याद भी नही कैसे-कैसे मीठे दिन रहे होंगे वो।
माँ के सात बेटो में से मैं चैथे नम्बर का बेटा था। सरकारी नौकरी लग चुकी थी लेकिन माँ ने कभी उसको साथ ले जाने की इजाज़त नहीं दी। सच तो यह कभी माँ से उसको साथ ले जाने की इजाज़त मांगने की हिम्मत भी न हुयी और दिन बीतते गये।
संयुक्त परिवार के खट्टे मीठे अनुभवों से गुज़रते हुए जिन्दगी बसर होने लगी। माँ छोटे बेटे की शादी करते ही बड़े बेटे को अलग घर परिवार करने को कह देती। और हम इसी तरह अपनी गृहस्थी लेकर एक कमरे के खाली प्लाट पर आगये जिसे कभी मैंने पैसे बचा बचाकर खरीदा था। हर दो तीन साल बाद हमारी ज़िन्दगी में एक नयी संतान जुडती और साथ ही एक नया कमरा भी।
छोटी सी नौकरी और भाई बहन और माँ बाबा का पालन पोषण और अपने पाँच बच्चो के साथ सारा पैसा कब खतम हो जाता, मुझे मालूम ही ना पड़ता था। सबकी ज़रूरतें कब कैसे पूरी होती मुझे मालूम नहीं होता। मुझे हमेशा हँसता खिलता चेहरा और शान्त बच्चे मिलते। माँ का दख़ल हमेशा से घर और मुझ पर रहा। उनकी ज़रूरतें और इच्छाए मेरे लिये मेरे परिवार से भी ज़्यादा महत्त्व रखती थी।
‘‘पापा मम्मी को रोक लो ना। मत जाने दो ना ‘‘बड़ी बेटी पीछे से गले लग रो पड़ी तो तन्द्रा भंग हुई।
‘‘बेटा मैं भी कहाँ जाने देना चाहता हूँ उसको। लेकिन भीतर कहीं मुझे लग रहा हैं जैसे उसको इस कगार तक पहुँचाने वाला ही मैं हूँ। वो आज ना मर पा रही हैं ना जी पा रही हैं। ‘‘ मन ही मन दिल में टीस उठी।
बिटिया के सर पर हाथ फेरते हुए याद आया, मैंने पहली बार शारदा पर तब हाथ उठाया था जब उसको मेरे दफ़्तर से आने का पता नही चल पाया था। वो घर की दीवार के साथ खड़ी पड़ोसन श्यामे की माँ से गप्पे लड़ा रही थी और किसी बात पर खिलखिलाकर हँस रही थी और उसकी चुन्नी भी सर से उतर गयी थी और उसके गीले घने काले बाल खुले हुए उसके चेहरे पीठ पर फैले थे। उसको उसने कभी ऐसे खिलखिलाते हुए पहले कभी न देखा था। उसने श्यामे के पिता का नाम लेकर उसकी पिटाई की थी।
उसने लाख कसमे खायी थीं। मैं भी जानता था उस वक़्त पडोसी घर पर नही था दो दिन को बाहर गया हुआ था। लेकिन बीबी को पाँव की जुत्ती बना कर रखना चाहिए वाली माँ की सीख याद हो आई थी। उसकी पीठ पर उस दिन की मार के निशाँ आज भी मौजूद थे।
एक बार यह हाथ उठाने का सिलसिला चल निकला तो अनवरत जारी रहा। आज सोचता हूँ हाथ उठाया ही क्यूँ था? सिर्फ उसके हँसने के कारण ? उसका सहज होना या उसका आत्मविश्वास से सब सम्हालना या मेरी अहम् भावना के उग्र होने के कारण। ऐसा क्या विचित्र हो गया था जो मेरे भीतर का जानवर जाग उठा था।
उसके बाद जब भी कुछ होता तो मेरे मुँह से गालियाँ झड़ने लगती और उस पर हाथ चल जाता था। प्रेम के क्षणों में भी उसका खामोश रहना मुझे अखरता नही था, अपितु अपना विजयी होना लगने लगता था।
अचानक ऑय सी यू में शोर सा उठा। बेटे और दामाद उठकर डॉ. के पास पहुँच गये। मुझे सिर्फ इतना ही सुनाई दिया वेंटीलेटर से भी दिक्कत हो रही हैं। बी पी लो होता जा रहा है। मल्टी ऑर्गन फेलियर हैं अब उनकी गर्दन के पास छेद कर वहां से आक्सीजन पाइप अन्दर ले जाना होगा।
सहसा मेरे अन्दर ना जाने कौन से भाव जागृत हुए और मेरी आँखे बरस उठी और मैं हाथ जोड़ डॉ. के सामने खड़ा हो गया ‘‘ आज की रात और इंतज़ार कर लो क्या मालूम ठीक हो जाये, नहीं तो जाने दो उसको अब, डॉ साहेब ! शांति से जाने दो उसको आखिर कितनी सुइयां झेलेगी। आत्मा तो लहुलुहान हैं उसकी शरीर भी खतम हैं उसका। उसको मुक्त होने दो !“
आवाज भरभरा उठी थी। आँसूं पलको के कोरो तक अटके थे। पोते के कंधे का सहारा लेकर मैं वहीं कुरसी पर निढाल हो गया।
आज 80 बरस की उम्र में कैसे उसके लिए पहली बार खड़ा हो गया। जिन्दगी भर उसने यही तो चाहा कि कही तो मेरे लिए भी खड़े हो जाओ। एक बार ही सही, कहीं तो कह दो
“मैं हूँ न इसके साथ”
लेकिन मैं कभी उसके साथ न खडा हुआ। चाहे मायका रहा या ससुराल। मेरी माँ बहन और भाई भाभियाँ जब चाहे उसे कुछ भी कह देते। मैं उसको यही कहता गलती होगी कोई तुम्हारी तभी कहा गया ना ....
एक पुरुष कैसे एक स्त्री का पल्लू थाम उसके पीछे खडा हो जाए, मेरे अन्दर के पुरुष को कभी यह स्वीकार न हुआ था। बच्चे क्या पढेंगे। कौन रिश्तेदार बना रहेगा। किसके साथ रिश्ता तोड़ देना हैं। सब मैं ही तो निश्चित करता रहा।
उसने भी चुप्पी साध ली और विद्रोह स्वरूप मुझे सब बताना ही बंद कर दिया। बच्चे जब भी कुछ गलत करते तो भरसक उन बातो को छिपाने की कोशिश करती।
बहुत कुछ याद आ रहा आज.... जब मैंने पहली बार अपने भाई की शादी पर शराब पी कर बारात में हंगामा किया था तो उसने भी सब शर्म छोड़ कर वही सबके सामने मुझसे झगड़ा किया था। क्लेश इतना बढ़ा था कि घर में कई दिन तक चूल्हा नही जला था। बच्चे पड़ोस में खाना खा कर माँ बाप को लड़ते देख संध्या होते ही सो जाते थे। जब मैंने बेटे के सर की कसम खाकर वादा किया, कि अब से शराब हराम होगी तब उसे यकीं हुआ और चूल्हा जलाया।
अब याद आ रहा हैं उस रात कैसी चमकती आँखों से उसने मेरा हाथ थामा था। शुरू के दिनों के बाद शायद उस रात मैं उससे हार गया था लेकिन कहीं जीत भी महसूस की थी।
आंसू आँखों के कोरो पर अटके हुए थे। एक पुरुष कभी नही रोता हैं। उम्र भर शेर की तरह दहाड़ता हुआ मैं और कभी हिरनी की तरह दुबकती हुयी तो कभी वापिस लाल आँखों से दहाड़ती हुयी शारदा।
हम पति पत्नी का एक ऐसा जोड़ा रहे, जिन पर कभी कोई कहानी नही लिखी जा सकती। कोई मिसाल नही दी जा सकती। प्रेम था या नही था दोनों नही जानते। हाँ फ़िक्र जरुर थी। मुझे फ़िक्र रहती उसकी हर बात की लेकिन ज़ाहिर यही किया मुझे परवाह नही उसकी।
उसका मायके जाना मुझे कभी पसंद नही आता था। वो जब भी जाती तो मैं जल्द से जल्द कोई बहाना बना कर या झगड़ा कर वापिस बुला लेता था। वो मेरा हर कहा नही मानती थी, टाल देती थी हर बात को। लेकिन उसने जाहिर यही किया उसे जैसे मेरी बहुत फ़िक्र हैं, मेरा कहा शब्द आखिरी होता घर में।
बच्चे हो या रिश्तेनातेदार सबके बीच वो उनकी हमउम्र बनकर बातें करती। मेरे सामने आते ही उसका चेहरा सपाट सा हो जाता। यंत्रवत काम में लगी हुयी एक माँ पत्नी बहू के अलावा कुछ भी नज़र न आई मुझे। जब भी उसको अपनी सी की नजर से देखना चाहता था वो अजनबी सी बन सब रिश्तो की भीड़ में खो जाती, जैसे उसे मेरे साथ रहने की कोई लालसा भी नही हैं।
आज शारदा का कितना मासूम चेहरा लग रहा हैं। आँखे आज भी मोटी सी, पतले होंठ, सुतवा नाक, बाल अभी भी पूरी तरह सफेद न हुए थे। कांच के पार से उसे देखते हुए बस देखते ही रहने को जी चाह रहा था।
“पापा! आओ बैठ जाओ। आप थक जाओगे।” कह कर बेटी ने बाँह थाम ली।
सबके फोन घनघना रहे थे बार बार। वाइब्रेशन पर था मेरा फोन भी लेकिन दिल में मेरे लगातार घर्षण हो रहा था।
मैंने कभी किसी रिश्तेदार का घर आना जाना पसंद नहीं किया। लेकिन फिर भी सबके घर से सुख दुःख पर बुलावा आ जाता था। शारदा की निपुणता के किस्से हवा में सुनाई दे जाते थे। आज सब उसका हाल जान ने को उत्सुक थे लेकिन मेरे फोन पर किसी का कॉल नही आया।
मैं सख्त था तो वह भी स्वभिमानी थी। मुझे उसका स्वाभिमान घमंड लगता। और उसे नीचा दिखाने के लिए उस पर हावी हो जाता, कभी शब्दों से तो कभी शरीर से। वह भी निभा रही थी।
पता नहीं मेरे लिए इज़्जत थी उसके मन में या कहीं और आसरा नही था इसलिए मुझे सहती थी। लेकिन प्यार तो खत्म हो गया था उसी दिन; जिस दिन मैंने उस पर हाथ उठाया था। उसने मेरे बच्चे भी जने थे। मैं व्यंग्य से पूछ बैठा था एकदिन, ‘‘खुश रहने का दिखावा करती है। हर फर्ज पूरे करती है। प्यार और इज़्जत में क्या फर्क हुआ। फिर जब रहना मेरे साथ है।‘‘
‘‘हाँ रहना तो आपके ही साथ है और एक दिन जाना भी आपके कन्धों पर ही है। खुश हूँ तो दिखती भी हूँ, दिखावा नहीं कर रही। खुशी आपने ना दी हो पर मेरे मायके वाले भी हैं उनका कोई कुसूर नहीं कि उनको रोती-बिसूरती दिखूं। इज़्जत इसलिए करती हूँ कि आप मेरे पति है, मेरे बच्चो के पिता हैं और इस दुनिया में आपके बिन मैं कुछ नहीं हूँ और यह सत्य भी है। लेकिन प्रेम एक रूहानी वस्तु है जो दिल को छूती है। आपने मेरे शरीर को छुआ है लेकिन आत्मा लहूलुहान ही की है। एक पत्नी की आत्मा आपको कभी माफ नहीं करेगी। एक औरत जो सिर्फ एक पुरुष के लिए अपने मायके के जीवन को छोड़ कर नया जीवन अपनाती है तो सिर्फ प्रेम के लिए, ना कि गहने/कपड़ों या ऐश -आराम के लिए। ‘‘
शारदा की आवाज में कितनी दृढ़ता थी। मैं चुप रह गया था तब।
और आज ! आज मैं अपनी आत्मा लहूलुहान लिए खड़ा हूँ। भावनाओं का ज्वार भाटा अन्दर उमड़ रहा था। कहना चाहता हूँ कि हाँ मुझे तुमसे प्यार है और तभी से हुआ; यजब से तुमने मुझसे मार खाना शुरू किया था। मुझे भीतर से छोटापन लगा था लेकिन दंभ था जो हावी हो रहा था। ऐसा क्या डर था जो तुम सर झुकाती गई और मैं सर चढ़ता गया।
उसकी माँ के मरने के बाद उसकी मायके की आस भी मैंने तोड़ दी थी जब नानके छक में मनमाफिक सामान नहीं मिला था जबकि मैं जानता था उसने जेब से सब पैसा खर्चकर नानके छक को भरसक मेरे मुताबिक करने की कोशिश की थी। मैंने खूब सुनाकर घर से निकाल दिया था वह भी प्रतिरोध में खूब चिल्लाई थी लेकिन आखिरकार चुप हो गयी थी।
बरसों तक उसने मायके वालो की आर्थिक सहायता की थी। मैंने कभी घर खर्च के पैसो का हिसाब ना मांगा था। बेबात बातें बनाये जाने से अब उसका भी मोह भंग हो गया था। फिर कई बरसों तक उसने मायके की तरफ रुख न किया। कोई विवाह उत्सव हुआ वो कभी न गयी। मैं जब भी जाने को कहता तो आप चलोगे साथ, तब ही जाऊंगी वरना अब वो मेरे कौन? कहकर गहरी नज़रों से जब मुझे देखती थी तब कई बार उसको गले लगाने को दिल हो उठता था।
किसी विवाह में जब महिलाएँ ढोलक की थाप पर गीत गाती और स्वांग रचकर नृत्य करती तो मैं ओट से देखने की कोशिश करता कि मेरी पत्नी क्या करेगी। किसका स्वांग रचेगी। भीतर का चोर मानता आज यह जरुर मुझे ही उलाहने देता कोई तीखा सा गीत गाएगी लेकिन मुझे सुनाई देता मासूम इंतजार का गीत।
“चन्न किथ्हा गुज़ारी हई रात वे, मेरा जी दलीला दे वात वे “
और जब अंतरा गाती तो सब मुग्ध हो उसकी आवाज़ में खो जाते
“असां बनायियाँ मेदिया वे माही किसी बहाने देख भला “तो मन करता था जाकर उसका दुपट्टा उतार कर बालो में गूंथी अनेको चोटियों को देखूं तो कैसी दिखती वो।
कभी कभी वो बहुत अपनी सी लगती थी लेकिन जब उसकी किसी बात पर उसे दो हाथ जमा देता था तो एक खूंखार शेरनी की तरह मुझे घूरती हुयी दो तीखी बाते बोल आगे बढ़ जाती थी। बुरा लगता था मुझे उसका प्रतिरोध में बोलना और अब उसे चुप रहना नही सुहाता था। शायद अपने बड़े होते बच्चो का संबल उसे मेरे सामने खड़े हो जाने की हिम्मत देता था, बच्चो को सब सुख सुविधाए देता हुआ मैं बच्चो को दुश्मन क्यूँ दिखने लग जाता था।
मन आज भी उसे झंझोड़ कर कर उठाने को हो रहा।
“उठो ! मेरे कपड़े कौन निकाल कर देगा तुम्हारे जाने के बाद। मुझे तो कभी अपने जुराब भी मिले ही नही जब तक तुम आकर हाथ से नही पकड़ाती थी। “
अचानक शारदा के हाथ के मसाले वाले बैंगन और बेसन की सूखी सब्जी याद आगयी। मेरे मन में किसी चीज की खाने की इच्छा आई अगले ही दिन बिना बोले वो सब्जी मेरी थाली में होती थी। मैं हैरान होता था उसने कैसे जाना। लेकिन वो मुस्कुरा कर बच्चों को आवाज देने लगती थी।
बेटियों की सुबकियां मेरी तन्द्रा भंग किये जा रही थी और मैं फिर से वहीँ आ जाता हूँ। आशा-निराशा के झूले पर झूलता। कितनी काली रात है ये। लेकिन मैं चाहता हूँ कि ये रात ना बीते। क्यूंकि मैंने ही कहा है कि आज की रात और देख लो नहीं तो कल इसे वेंटिलेटर से मुक्त कर देना। क्या मालूम आज उसका मन जीने का फैसला कर ले और मेरे मन में चलते पछतावे को उसका मन पढ़ ले .. कल की सुबह क्या होगा ! ये मैं नहीं सोच पा रहा हूँ।
‘‘ पापा जी, आओ थोड़ा बाहर चल कर बैठते हैं। ‘‘
ये छोटी उसकी लाडली बेटी थी। बेटी हाथ पकड़ कर बाहर ले आयी। बाहर थोड़ा माहौल और मौसम ठीक तो था पर मन जेठ की तपती दुपहरी हुआ जा रहा था। सीने में जलन हो रही थी।
हे भगवान!!!! सुबह होने से पहले तू मुझे ही उठा ले। सोचते हुए आसमान को ताका तो चाँद था सामने।
ओह ! चाँद ! ये करवा चैथ का चाँद ही था जो उसकी पूजा की वजह से मेरी उम्र बढ़ा रहा था और शारदा की सुहागन मरने की इच्छा को पूरी कर रहा था। छन्नी से चाँद और मुझे निहारते हुए शारदा की आँखों में मैंने कभी नहीं पाया कि उसे मुझसे प्रेम नहीं है।
कभी क्रोध में होता तो मैं चिल्ला पड़ता था कि तुम फिर मेरे लिए करवा चैथ का व्रत क्यों करती हो। वह बोलती कि तुम पत्थर दिल इंसान औरत को क्या समझोगे।
रात तो ढलती जा रही थी। मेरी हालत तो फाँसी की सजा पाने वाले कैदी जैसी थी कि जैसे आज आखिरी रात हैं सुबह का आलम नही पता हैं क्या होगा? मैं शारदा के बिना कैसे रहूँगा? मैं तो जैसे बिन माँ का बच्चा हो जाऊंगा। घबराहट सी होने लगी थी।
पुरुष को हर पल स्त्री का साथ चाहिए होता है। वह बिना स्त्री के जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता है। पुरुष को हर रिश्ते में स्वतंत्रता चाहिए होती हैं लेकिन स्त्री को हर रिश्ते से मोह होता हैं।
शारदा तो माँ की तरह ख्याल रखने लगी। मेरे क्रोध करने पर मुझे डपटने भी लगी थी। हालाँकि सब बच्चों की शादियां हो गई थी। बहुएं हैरान होती थी कि मम्मी पापा कैसे झगड़ा करते है। और अगले ही पल एक साथ बैठ कर चुपचाप टीवी देखते हुए चाय पीते।
इस उम्र में हम दोनों ने जैसे कसम ही खाई थी कि मैं ऊँचा बोलना नहीं छोडूंगा और वह पलट कर जवाब देना नहीं छोड़ेगी। बहुत बुरा लगता था अब वो बच्चों के साथ मिलकर मेरे ही विरुद्ध हो जाती थी। वह कहती थी कि वह अब इस बात की तो आदत डालेगी ही नहीं कि वह चुप करके सुन लेगी। हालांकि उसकी आदत तो पड़ गई थी।
मुझे हंसी आ गई और साथ में खांसी भी आ गई। पास बैठी बेटी बोली , ‘‘पापा क्या हुआ ? ‘‘
‘‘अब क्या होना है बेटी ! ‘‘ वह मुझे ऐसे हताश, निराश देख कर हैरान सी थी।
‘‘चलिए,आप सामने होटल के कमरे में थोड़ा आराम कर लीजिए।‘‘
‘‘नहीं आराम नहीं करना , मुझे तुम्हारी माँ के पास बैठा दो थोड़ी देर के लिए ....कुछ पल बिता लूं उसके साथ। मन छटपटा रहा है। कैसा समय है। क्या मालूम पहले मेरा ही आ जाये......‘‘
‘‘नहीं पापा जी, ऐसा मत कहिये, हमें आपकी ज़रूरत है ! ‘‘मेरी लाडो का चेहरा पहले ही कुम्हलाया हुआ था अब तो आंसूं भर आये थे आँखों में।
‘‘ज़रूरत तो सबसे ज्यादा तुम्हारी माँ की है। वह इस परिवार को मज़बूती से बांधे हुई थी। अब देखना कुछ नहीं बचेगा। पेड़ की जब जड़ें ही खत्म हो जाये तो पेड़ ज़िन्दा कहाँ बचता है। गला भर आया मेरा। शारदा नहीं रहूंगा मैं तुम्हारे बिना।
बेटी का हाथ पकड़ कर रोना चाहता था लेकिन कैसे रो सकता था।
शारदा मेरे सामने थी। नकली सांसो पर उधार बची हुई सांसे पूरा करती हुई। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसने हरक़त की। उसके हाथ की ठंडी उंगलियांे ने मेरी हथेली को जकड़ सा लिया। यह पहली बार छुअन का अहसास जैसा था। उसने ऐसे ही उंगलिया जकड़ ली थी। मन ही मन शारदा से बात करने लगा “शारदा बहुत कुछ कहना चाहता हूँ पर कह नहीं पा रहा। बस यही दुआ मांग रहा हूँ कि अगर कोई अगला जन्म कोई होता है तो फिर से तुमको ही जीवनसाथी पाऊँ और इस जन्म का सारा उधार चुकता करूँ।“
शारदा का हाथ पकडे़ -पकडे़ ना जाने कब नींद आ गई। सपने में वो मेरे सामने खड़ी थी। नही, नही!! नवयौवना नही नववधू भी नही। मेरे बच्चो की माँ जो सिसक रही थी, अँधेरे पिछले कमरे में अपनी बेटियों के हाथ थामे। सिसकियो की आवाज ख़ामोश थी लेकिन उसका क्रंदन मैं सुन पा रहा था। सपने में बेटियाँ माँ से ना जाने की जिद कर रही थी और माँ उनसे सब्र करने को कह रही थी।
हाथ जोड़कर कातर नज़रों से मेरी तरफ देख कर बोली “सुनो जी!!! मुझे जाने दो, मत बांधो मोह में। आपकी इज़ाजत बिना कभी कहीं नही गयी हूँ पर आज जाने दो न मुझे अपनी हामी भरकर, वरना झगड़कर जाना होगा मुझे “और मैं भी उसके जुड़े कांपते हाथो को थाम वही खडा रह गया। और अचानक मेरी नींद टूट गयी खिड़की से दिखते आसमान में घने बादल थे और मैं पसीने से नहाया हुआ देख रहा था सपने का सच जैसा लगना।
उसके बिस्तर के पास नर्स उनका बुखार नाप रही थी। नाड़ी धीमी चल रही थी। शारदा को स्पंज किया जाना था। मुझे डॉ. ने बाहर जाने का इशारा किया। ऑय सी यू के विजिटिंग कक्ष में बेटा तीन कुर्सी मिलाकर सोया हुआ था। बाकी सब शायद घर जा चुके थे या रेस्टरूम में थे। माँ की अंतिम रात हैं निश्चित जान कर कुछ सदस्य घर जाकर उसके अंतिम प्रस्थान की तैयारी के लिए वापिस चले गये थे। पत्नी का स्पंज किया जा चुका था। एम्बुलेंस आती होगी जैसे ही वेंटीलेटर हटाया जाएगा कुछ क्षण ही सांसे साथ देगी। फिर डोर से टूट कर शारदा की रूह दूर आसमा में उड़ती चली जायेगी। हमसे बहुत दूर।
बहू ने डोरमेट्री से आकर बड़े बेटे को जगाया।
“सुनो, सब बिल पेमेंट कर आओ।”
“पापा चाय पियेंगे “ मेरे पास आकर बहू रानी बोली-
एकदम से शारदा के हाथ की बनी चाय का स्वाद याद गया।
“नहीं“
अभी पिछले सप्ताह इसी बहु ने आँगन में खड़े होकर चिल्ला कर कहा था ना
“मुझसे नहीं बनती सुबह उठकर इनके लिये चाय वाय। “
आज कितना मीठा बोल रही थी बहू असलियत सबकी मैं भी जानता था लेकिन अब पहचान भी रहा था। शारदा किनके साथ छोड़ जा रही हो मुझे। नहीं रह सकूंगा ज्यादा दिन तुम्हारे बिन।
एम्बुलेंस में शारदा को लिटाया जा रहा था। मैं भी साथ जाकर बैठ गया। बेटे ने साथ बैठना चाहा तो मैंने इशारे से मना कर दिया। बेटा ड्राईवर के साथ बैठ गया। सब लोकल रिश्तेदार भी मेदान्ता आगये थे सुबह सुबह। घर में सबको सूचना मिल चुकी थी। सब रिश्ते नातेदारो को खबर दी चुकी थी और अँधेरी सड़क पर मुंह अँधेरे मैं उसके साथ आखिरी सफर पर जा रहा था। अचानक उसकी पलके हलकी सी टिमटिमा कर खुली। उसने मुझे देखा होंठ कुछ बुदबुदाए और मुस्कुराए मैंने उसका हाथ कसकर थाम लिया और उसके चेहरे पर हाथ फिराकर कहा “घर चलोगी न“ कोई जवाब न आया आँखें झपकी और फिर एक खामोशी पसर गयी.... हर तरफ मेरे भीतर भी बाहर भी।
सुबह 8 बजे हम 170 किलोमीटर का सफर तय कर घर पहुँच गये थे। जो कभी हम दोनों का घर था और आज अजनबी सा घर लगा। हम तो अब उस घर के एक कोने में फालतू सामान जैसे थे शायद। सब अपना कसूर लग रहा था मुझे। मैंने ही उसकी कदर ना की कभी। मैंने ही हमेशा उसको एक देह एक दासी से ज़्यादा दर्ज़ा न दिया। उसने कभी बच्चो को पिता के सामने बोलने की इज़ाजत ना दी थी। फिर भी बच्चे हमारे विरुद्ध हो गये थे। उसने कभी बहुओं को दहेज़ का ताना नही मारा। फिर भी वो कभी बेटियाँ न बनी। उसने कभी बेटियों को मन मर्जी ना करने दी। फिर भी वो उसकी प्रतिच्छाया बन गयी। उसने कभी दामादों को विशेष दर्ज़ा ना दिया। फिर भी उन्होंने उसको बेटो सरीखा मान दिया। मैं कहाँ था इन सब के मध्य। सबके मध्य मैं ही तो अकेला था।
सब व्यस्त थे अपने अपने हिस्से का दुःख लेकर और मैं बौराया सा घूम रहा था। डॉ वेंटीलेटर हटा रहे थे रिश्तेदार दान पुन्य करा रहे थे। मुझे सामने आकर खड़े होने को कहा ताकि अगले जन्म भी मेरा साथ मिले। लेकिन मैंने उसके सिरहाने खड़े होकर उसको मन ही मन कहा “जा शारदा अब कभी मत आना मेरी ज़िन्दगी में , नही हैं मेरे पास कुछ भी, लेकिन तू तो जाते जाते भी मुझे भर गयी यादो से। और अगर आना भी मेरी ज़िन्दगी में तो पति बनकर आना मै प्रायश्चित करना चाहता हूँ इस जन्म में की गयी गलतियों का .....
और आँखे सबके सामने बरस ना जाए , इस लिए अपने कमरे में चला आया। मेरी आत्मा छटपटा कर देह में अंतर्यात्रा कर रही थी और बाहर उसकी देह आत्मा से विलग होकर अंतिम यात्रा की तैयारी