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होली के रंग



अमर चौबीस वर्षीय मस्त मौला गबरू जवान है। लंबी कदकाठी व कसरती काया के साथ शहरी रहन सहन का सलीका व शालीन व्यवहार उसकी छवि को और प्रभावशाली बनाते हैं। जो भी उससे कुछ समय बात कर लेता उसकी वाक्पटुता व उसकी समझदारी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उसके पिताजी कई साल पहले गाँव छोड़ कर रोजीरोटी की तलाश में मुम्बई के एक उपनगर में बस गए थे। अमर का जन्म और उसकी शिक्षादीक्षा सब मुम्बई में ही हुई थी। महानगरों का भी लोगों की सोच व उनकी जीवनशैली पर काफी प्रभाव पड़ता है। अमर भी इससे अछूता नहीं था।

शहर के दौड़भाग वाले माहौल में पला बढ़ा अमर भी गाँवों की सुंदरता से प्रभावित था, और अक्सर गाँवों में समय बिताने का बहाना खोजा करता था लेकिन जिंदगी के चौबीस वर्ष पूरे हो जाने के बाद भी उसकी मंशा पूरी नहीं हुई थी। शिक्षा पूरी होने के बाद उसे एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई और पढ़ाई के बाद वह कर्मयोगी की अपनी भूमिका में व्यस्त हो गया।

इस बीच कई खूबसूरत लड़कियों के रिश्ते उसके लिए आए लेकिन तस्वीर देखकर ही वह उन लड़कियों को नकार देता। वह खुद भी नहीं समझ पाता कि इतनी खूबसूरत लड़कियाँ भी आखिर उसे क्यों नहीं पसंद आ रही थीं ? आखिर उसे किसका इंतजार था ? उसके मातापिता उसके इस रवैये से बेहद दुःखी थे। बिरादरी और समाज के लोगों का अतिरिक्त दबाव भी था उनके उपर।
आज के इस आधुनिक युग में भी समाज की नजर में अब तक उसकी शादी कबकी हो जानी चाहिए थी। समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों की नजर में उसकी शादी की उम्र निकली जा रही थी लेकिन अमर इन सबसे लापरवाह अपनी ही दुनिया में मस्त और बेफिक्र था।

अपने कैरियर से वह बहुत खुश था, लेकिन उसकी यह खुशी अधिक दिन तक उसके साथ नहीं रही। लगभग तीन साल नौकरी करने के बाद आर्थिक मंदी की मार झेल रही उसकी कंपनी ने एक साथ कई कर्मचारियों की छंटनी का ऐलान कर दिया जिसमें अमर का भी नाम था।
कंपनी से मिले इस ब्रेक से मायूस अमर नौकरी के लिए दूसरी कंपनियों की खाक छान रहा था लेकिन उसे अपने मनमाफिक नौकरी नहीं मिल रही थी। बीतते दिनों के साथ उसकी मायूसी अब बढ़ने लगी थी। एक दिन अचानक उसके पिताजी ने एक शादी का निमंत्रण कार्ड उसके सामने रखते हुए कहा, " बेटा ! तुम्हारे मामा की बेटी अनुजा की शादी है। तुम जानते ही हो मैं कितना व्यस्त हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम इस शादी में शामिल होने के लिए गाँव जाओ। इसी बहाने गाँव भी घूम आओगे और सबसे तुम्हारी मुलाकात भी हो जाएगी।"
गाँव घूमने जाने की बात सुनते ही अमर का चेहरा खिल उठा, लेकिन फिर भी उसने कसमसाते हुए कहा ," लेकिन पिताजी ! वहाँ जाकर मैं करूँगा क्या ? ना तो मैं किसी को जानता हूँ और न कोई मुझे जानता है। वहाँ जाकर तो बस ऐसा ही लगेगा जैसे ' बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !" कहते हुए अमर हँस पड़ा था।

" सही कह रहे हो बेटा ! लेकिन जानते हो ऐसा क्यों हुआ है ? ऐसा इसलिए क्योंकि हम यहाँ धन कमाने में इतने व्यस्त रहे कि अपनी जड़ों से, अपने लोगों से और अपनी मातृभूमि से ही दूर हो गए। आज हमारे पास धन की तो कोई कमी नहीं लेकिन समाज और रिश्तेदारी के नाम पर अपनों की भारी कमी महसूस होती है। धन चाहे जितना साधन उपलब्ध करा दे , लेकिन मन को शांति तो अपनों के प्यार स्नेह व उनके साथ से ही मिलती है। अपनी जड़ों से जुड़ने का एक मौका हमें मिला है और मैं नहीं चाहता यह मौका गँवाना, इसीलिए तुमसे कह रहा हूँ। वैसे भी अभी यहाँ तुम्हें कोई काम नहीं है। तुम्हारी तफरीह भी हो जाएगी, शादी का न्यौता भी हो जाएगा और इसी तरह आते जाते तो तुम्हारी पहचान बनेगी।" उसके पिता ने उसे समझाते हुए कहा, "अभी तुम जाकर आओ। फिर बहुत जल्द ही हम सब एक साथ गाँव चलेंगे और कुछ दिन वहाँ की आबोहवा में बिताएंगे। सच मन को कितना सुकून मिलेगा ,कह नहीं सकता।"

मन में उठ रहे खुशी के गुबार को छिपाते हुए अंततः उसने गाँव जाने के लिए अपनी सहमति दे दी।

उस दिन अमर के मामा की लड़की ' अनुजा ' की हल्दी समारोह का मौका था जब 'वह 'उसे पहली बार नजर आई थी। जी हाँ ! 'वह 'अनुजा की सहेली थी ! गौरवर्णीय , गोल सुंदर चाँद से चेहरे पर बीच में सुतवां नाक और झील सी गहरी नीली आँखें लिए वह किसी अप्सरा सी नजर आ रही थी। शुभ्र धवल लिबास में सजी लंबी छरहरी काया पर नजर पड़ते ही अमर का दिल जोरों से धड़क उठा और वह कुछ देर तक एकटक उसको ही देखता रह गया मानो उसकी पलकें झपकना भूल गई हों। उसे एकटक अपनी तरफ देखते हुए महसूस कर रजनी का दिल भी जोर से धड़क उठा। एक बार तो उसे अमर की इस धृष्टता पर क्रोध भी आया मगर अगले ही पल नारी सुलभ लज्जा से उसके गाल कनपटियों तक सुर्ख हो गए। अधिक देर तक वह अमर की नजरों का सामना नहीं कर सकी। अनुजा की अन्य सहेलियों की भीड़ में खुद को छिपा कर हल्दी कार्यक्रम में व्यस्त हो गई। लड़कियों की हँसी मजाक और चुहलबाजी के बीच हल्दी का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

एक एक कर सभी लड़कियाँ विदा हो गईं। लेकिन अमर की सूनी निगाहों को अभी भी उस लड़की का ही इंतजार था। उसकी छवि उसके निगाहों के रस्ते उतरकर सीधे उसके दिल में प्रवेश कर गई थी। सभी मेहमानों के जाने के बाद उसने मामा और मामी से थोड़ी देर बात किया और उसके बाद भोजन कर अपने लिये निर्धारित मेहमानों के कमरे में जाकर सो गया।

अगली सुबह नींद खुलते ही उस लड़की का अक्स उसकी निगाहों के समक्ष नृत्य करने लगा। बेचैनी उसके मुखड़े पर स्पष्ट नजर आ रही थी। उसका जी चाह रहा था ' काश ! वह लड़की आज भी नजर आ जाती ! ' और अचानक उसकी खुशी का पारावार न रहा जब वही लड़की एक और लडक़ी के साथ आई और अनुजा के कमरे में समा गई। गुलाबी सूट में उसकी गोरी रंगत और निखर गई थी। मंत्रमुग्ध सा वह उठा और बेख्याली में ही चलते हुए अनुजा के कमरे की तरफ बढ़ा।

दरवाजे के समीप पहुँचा ही था कि उसे अनुजा की फुसफुसाती हुई आवाज सुनाई पड़ी ," क्या कह रही हो पूनम ? वह तो मेरी बुआ का लड़का है। तुम्हें पसंद हो तो कहो , तुम्हारी बात चलाऊँ ? बुआ का इकलौता लड़का है। मुम्बई जैसे महानगर में रहता है । बहुत खुश रहोगी !"

सुनकर अमर के सीने की धड़कन अनायास ही बढ़ गई ! ' तो इसका मतलब कि कुछ कुछ उस तरफ भी हुआ तो है और उनका नाम पूनम है यह भी पता चला है। वाह ! कितना प्यारा नाम है , बिल्कुल पूनम के चाँद जैसा शुभ्र धवल मुखड़ा। जैसा रूप वैसा ही नाम भी , गजब का संयोग है ! ' सोचते हुए उसके अधरों पर गहरी मुस्कान फैल गई और मन को एक अजीब से सुख का अहसास हुआ। उल्टे पैरों वापस आकर वह अपने कमरे में कपड़े पहन तैयार होने लगा।

दस मिनट बाद जब वह बाहर निकला पूनम उसे दूर जाते हुए दिखी। एक ठंडी साँस भरकर वह अनुजा के कमरे की तरफ बढ़ गया। कमरे में अनुजा अकेली थी। इधर उधर देखते हुए अमर ने उससे पूछा " बुरा न मानो तो तुमसे एक बात पूछूँ छुटकी ?" वह प्यार से अनुजा को छुटकी ही पुकारने लगा था।

"हाँ भैया ! एक नहीं हजार बात पूछो ! बुरा क्यों मानूँगी ?" अनुजा ने मुस्कुरा के उसको जवाब दिया था।

"अभी अभी जो लड़की गई है गुलाबी सूट वाली तुम उसे जानती हो ? कौन है वो ?" अमर व्यग्रता से बोला।

" अरे भैया वो.... ! वो अपने बगल के मोहल्ले में रहनेवाले हरि काका हैं न , उनकी लडक़ी है। लेकिन तुम क्यों पूछ रहे हो उसके बारे में ?" कहते हुए अनुजा शरारत से मुस्कुरा पड़ी थी।
" अरे नहीं ! बस यूँ ही .....दिल किया तो पूछ लिया !" कहते हुए अमर भी मुस्कुरा पड़ा था।

" यूँ ही नहीं भैया ....! सब समझती हूँ , तुम क्यों पूछ रहे हो ?" कुटिलता से मुस्कुराते हुए अनुजा बोली ," लेकिन भैया ! मान गए ....तुम्हारी पसंद बुरी नहीं है ! पूनम वाकई बहुत अच्छी लड़की है ।"

" अरे नहीं छुटकी ! तू जो समझ रही है वैसा नहीं है , लेकिन एक बात तूने सही कह दी !" कहते हुए अमर शरारत से मुस्कुराया था ," वह वाकई बहुत अच्छी लड़की है ! वो लड़का वाकई बहुत खुशनसीब होगा जिसे भगवान ने उसके लिए चुना होगा ।"

कहकर वह कमरे से बाहर निकल आया था , लेकिन उसके कानों में अभी भी अनुजा के कहे शब्द गूँज रहे थे '.......पूनम वाकई बहुत अच्छी लड़की है ...!' कानों से होते हुए ये शब्द उसकी आत्मा की गहराई में उतरते हुए उसके दिल में गहरे पैठ कर गए। अब उसकी जागती आँखों में भी पूनम के ही सपने नृत्य करते रहते। सपने में ही कभी दोनों बगिया में तो कभी नदी किनारे मस्ती करते। मजे की बात ये थी कि पूनम भी उससे अपने प्यार का इजहार करने में पीछे नहीं थी लेकिन यथार्थ में लौटते ही वह उदास हो जाता। सोचने लगता ' क्या मेरा यह सपना पूरा होगा ? क्या पूनम वाकई मुझे पसंद करती होगी ? कैसे पता लगे उसके दिल की बात ? क्या मुझे उससे मिलकर अपने मन की बात कह देनी चाहिए ? मेरी मंशा भांपकर कहीं नाराज न हो जाए ? नाराज हो भी गई तो ठीक , उसको मनाने का रास्ता खुला रहेगा लेकिन अगर उसने पूरे समाज में कहीं मेरी बेइज्जती कर दी तो ? ऐसा हो गया तो पिता जी को क्या मुँह दिखाऊँगा !' ऐसे ही तमाम तरह के विचार उसके मन में घुमड़ते और फिर अगले ही पल वह उदास हो जाता।

अनुजा की शादी सम्पन्न हो गई थी। वापसी की तैयारी करता हुआ अमर काफी निराश और उदास था। उसकी तैयारी में मदद कर रहे उसके मामा और मामी उसकी उदासी को भाँपते हुए उसे समझा रहे थे ," बेटा ! इतने दिन तुम रहे हमारे साथ बड़ा अच्छा लगा ! तुम्हारे जाने से दुःखी तो हम लोग भी हैं लेकिन अपने घर तो जाना ही पड़ता है नहीं तो जीजाजी नाराज हो जाएंगे। लेकिन बेटा ! अब यह घर भी तुम्हारा ही है , जब मन कहे आ जाया करो कुछ दिनों के लिए। दिल बहल जाया करेगा।"

"जी मामाजी !" कहकर अमर अपना बैग पैक करने लगा।

उसके मामा किसी काम से बाहर निकल गए और मामी रसोई की तरफ बढ़ गई। पाँच मिनट बाद दरवाजे पर किसी की आहट सुनकर उसने घूमकर दरवाजे की तरफ देखा। आश्चर्य मिश्रित खुशी से उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया।
नीले सूट में किसी अप्सरा के समान गजब की खूबसूरत पूनम खड़ी हुई एकटक उसकी तरफ ही देखे जा रही थी। देर तक उसकी निगाहों का सामना नहीं कर सका अमर ! झेंपते हुए बोला,"क्या देख रही हो ?" बड़ी मुश्किल से शब्द उसके हलक से बाहर निकले थे। ऎसा लग रहा था जैसे उसका गला खुश्क हो गया हो।

उसकी अवस्था का भरपूर मजा लेते हुए पूनम बोली ," देख रही थी , कितने करीने से अपनी एक एक चीज को सहेज रहे हो। वाकई कितने केयरिंग हो!"

उसका जी चाह रहा था बोल दे ,' मैं तुम्हारी इससे भी अधिक केअर करूँगा , बस तुम मुझसे शादी कर लो ! ' लेकिन बोल उसके मुँह से न निकल सके।

" क्या वापस मुम्बई जाने की तैयारी कर रहे हो ? अब पाँच ही दिन तो बचे हैं होली में। आ ही गए हो गाँव , तो गाँव की होली भी देख लो !" कहते हुए पूनम के चेहरे पर लाज की लाली फैल गई थी।

"लेकिन मेरा रिजर्वेशन है कल सुबह वाली ट्रेन में ....और फिर वैसे भी अब अनुजा की शादी हो चुकी है और वह अपने घर भी चली गई है। अब यहाँ कौन है मेरा ? जिसके लिए ...... ....!" कहते हुए उसके वाक्य अधूरे ही रह गए जब उसकी बात काटते हुए पूनम बीच में ही बोल पड़ी थी ," मैं हूँ ना ......!" और कहने के साथ ही पूनम एक झटके से मुड़कर दरवाजे पर से गायब हो गई।अलबत्ता अब उसकी आवाज बगल वाले कमरे में से आ रही थी जहाँ वह मामीजी से पूछ रही थी ," चाची ! अनुजा को लाने के लिए कब जानेवाले हैं ?"

मामी ने क्या जवाब दिया अमर ने ध्यान नहीं दिया। उसके कानों में तो पूनम के कहे वाक्य बार बार गूँज रहे थे " मैं हूँ न ...!"

उसका दिल जोरों से धड़क उठा था और पूनम के कहे वाक्य के पीछे छिपे मर्म को समझने का प्रयास कर रहा था।
' तो क्या पूनम भी उसे पसंद करती है ? '
'नहीं ..नहीं शायद यह उसके मन का भ्रम हो ! ' 'फिर उसने ऐसा क्यों कहा ? '
' शायद मजाक किया हो.....! '
' खैर अब क्या किया जा सकता है ? अब तो जाना ही होगा । ' सोचते हुए निराशा के सागर में डूबा वह अपने कपड़ों की तह सूटकेस में लगाने लगा। तभी कुछ सोचकर उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

बड़े सवेरे वह मामा ,मामी से विदा लेकर शहर जानेवाली बस में सवार हो गया जहाँ से उसे मुम्बई जाने के लिए ट्रेन मिलनेवाली थी।
सही समय पर वह रेलवे स्टेशन पहुँच भी गया लेकिन उसकी नजरों के सामने तो पूनम का चेहरा नाच रहा था और एक प्लान उसके दिमाग में कल से ही तैयार हो गया था जिसके मुताबिक अब वह ट्रेन की तरफ बढ़ने की बजाय समीप ही बने गार्डन
की तरफ बढ़ गया।

लगभग एक घंटे वहाँ बिताने के बाद वह उठा और वहाँ से गाँव के लिए वापसी की बस पकड़कर गाँव वापस आ गया।
मामी के पूछने पर उसने उनको समझा लिया कि शहर से थोड़ा पहले ही उसकी बस पंचर हो गई थी जिसकी वजह से उसे स्टेशन पर पहुँचने में देर हो गई और ट्रेन छूट गई। मामी जी ने खुश होकर कहा ," कोई बात नहीं बबुआ ! अब इसी बहाने कम से कम होली तो बिता लो गाँव में ।"

अमर मेहमानों के कमरे में अपना सामान रखकर अंदाजे से ही उस तरफ निकल पड़ा जिस तरफ से उसने अक्सर पूनम को आते हुए देखा था।

कुछ देर तक वह गाँव की टेढ़ी मेढ़ी संकरी गलियों से गुजरता रहा। उसकी नजर को व्याकुलता से पूनम की तलाश थी। अचानक एक मकान की छत पर उसकी नजर ठहर गई। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसकी तलाश पूरी हो गई थी। पूनम मकान की छत पर खड़ी उसको ही देखे जा रही थी। कुछ इशारे करती हुई वह छत से नीचे उतरने को दौड़ पड़ी। उसके नजरों से ओझल होते ही अमर वहीं ठिठक कर रुक गया था।
तभी उस घर से एक संभ्रांत महिला बाहर निकली और अमर से बोली ," आओ बेटा ! आज इस तरफ कहाँ निकल पड़े ?"
" जी चाची ! घर बैठे जी नहीं लग रहा था तो वैसे ही बस घूमने की नीयत से निकल पड़ा था।" अमर ने अंदाजा लगाया ,वह महिला शायद पूनम की माँ है और जवाब दिया। तब तक पूनम भी घर से बाहर बरामदे में आ गई थी।
" तुम्हारे मामा रजनीश जी से हमारे बहुत करीबी संबंध हैं। बहुत भले इंसान हैं।" वह महिला उसके लिए बरामदे के बाहर खटिया बिछाते हुए बोली और पूनम को आवाज दिया ," अरे बेटी कुछ जलपान की व्यवस्था करो ,देखो रजनीश अंकल के भांजे आये हैं। मुंबई में रहते हैं।"

" जी मम्मी !" कहकर पूनम फिर से घर में समा गई। कुछ देर बाद उसके सामने ढेर सारा भूना हुआ चना और नमक मिर्च पुदीना कूचकर बनाई गई चटनी रखी हुई थी। अनमने ढंग से थोड़ा सा चना लेकर अमर ने औपचारिकता निभाई। उठकर जाने ही वाला था कि हाथों में एक प्लेट में पकौड़ी लिए पूनम ने प्रवेश किया। मुस्कुराते हुए अमर ने पकौडी पर हाथ साफ किया और फिर गरमागरम मसालेदार चाय पीकर उसका तन और नजरों से जीभर पूनम का दीदार कर उसका मन दोनों ही तृप्त हो गए। उसके साथ ही चाय सुड़कते हुए पूनम की माँ ने उससे बातों का सिलसिला जारी रखा तथा उसके परिवार व कारोबार की पूरी जानकारी हासिल कर ली। सब कुछ बताने को आतुर अमर उसकी हर बात का शालीनता से जवाब देता रहा। उनकी बातों का क्रम टूटते ही पूनम पूछ बैठी ," तुम तो आज मुम्बई जानेवाले थे ,क्या हुआ ?"
" गया तो था स्टेशन तक , लेकिन ससुरी ट्रेन हमको लिए बिना ही चली गई !" अमर ने हँसते हुए ठेठ देहाती अंदाज में कुछ इस तरह कहा कि पूनम सहित उसकी माँ भी खिलखिलाकर हँस पड़ी। आगे उसने कहा ," अब लगता है जो हुआ , अच्छा ही हुआ। अब हम आराम से यहाँ होली बिताकर जाएँगे।" कहते हुए उसकी नजरें पूनम के चेहरे पर बदल रहे भावों का निरीक्षण कर रही थीं। शर्मोहया की लाली उसके चेहरे पर फैली और निगाहें झुकी हुई देखकर उसके मन को असीम शांति का अनुभव हुआ। उसका दिल खुशी से बल्लियों उछलने लगा था।

पूनम के घर से वापस आते हुए अमर का मन भविष्य के सुनहरे सपने सजाने लगा था। पूनम के हावभाव को परखने के बाद उसे यकीन हो गया था कि वह भी उसे चाहने लगी है। अब उसकी राह में कोई रोड़ा नहीं था सो उसने तय कर लिया कि इस बारे में अपनी मामी से बात करेगा और बातों के क्रम में ही कोई न कोई जरिया निकल आएगा जिससे अपने मन की बात कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी।

शाम को आम गृहिणी की तरह चूल्हे चौके से फुर्सत पाकर अमर की मामी बैठके में आकर टीवी पर अपने मनपसंद धारावाहिक का आनंद ले रही थी कि तभी अमर ने भी कमरे में प्रवेश किया। उसे देखते ही वह बोलीं ," आ गए बबुआ ! कहाँ निकल गए थे ?"

" आज जरा इस उत्तर दिशा वाले मोहल्ले में यूँ ही घूम रहा था कि एक घर से एक लड़की ने आवाज लगाई। उस लड़की को मैंने अनुजा की शादी में भी कई बार देखा था , शायद खास परिचित हो इसलिए मैं रुक गया था।" अमर ने स्पष्ट किया।

" अच्छा ! अच्छा ! तुम शायद हरि भाईसाहब की बात कर रहे हो। बहुत भले लोग हैं। पूनम उनकी इकलौती लडक़ी है। बहुत भली और बहुत गुणी लडकी है। इसी लड़की से मैंने तुम्हारे रिश्ते की बात चलाई थी लेकिन तुम्हारे पिताजी ने साफ इंकार कर दिया था।" मामी ने रहस्योद्घाटन किया।

" ओह ! लेकिन क्यों भला पिताजी ने इंकार कर दिया था ?" मन में टूट रही आस की डोर को मजबूती से थामे हुए अमर ने पूछा।

" वो बबुआ ! क्या है न कि , असली बात तो वही जानें। हमें बताया था कि गाँव में शादी नहीं करना चाहते।" मामी ने सपाट स्वर में बताया था।

"गाँव में रहना कोई ऐब तो नहीं मामी जी ?" अमर ने कहा।

" नहीं बबुआ ! हम भी तो गाँव में ही रहते हैं और तुम्हारी माताजी इसी घर से विदा होकर तुम्हारे पिता के साथ आज मुम्बई में रह रही हैं। इसमें क्या बुराई है ? ............लेकिन बबुआ ! मुझे लग रहा है कि जीजाजी ने इसकी कम पढ़ाई को लेकर भी विचार किया होगा। पूनम बहुत कम पढ़ी है। गाँव में दसवीं के बाद पढ़ाई का इंतजाम नहीं इसलिए उसकी आगे की पढ़ाई नहीं हो सकी।" मामी एक के बाद एक रहस्योद्घाटन किये जा रही थीं लेकिन अमर के मन में पूनम के लिए कोई नकारात्मक बात नहीं आ रही थी। उसे हर हाल में वह पसंद थी।

" बात तो गुण ढंग और संस्कारों की होनी चाहिए मामी जी , पढ़ाई लिखाई तो बौद्धिक क्षमता बढ़ाने का उपाय है लेकिन जीवन को सुखी तो संस्कारों से ही बनाया जा सकता है।" कहते हुए अमर के चेहरे पर अभी भी उम्मीद की किरण नजर आ रही थी।

" हाँ ! कह तो तुम ठीक रहे हो बबुआ ! लेकिन आज के इस आधुनिक युग में शिक्षा के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता।" मामी ने बात आगे बढ़ाई।

"आपसे सहमत मामी जी ! लेकिन पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। उसकी पढ़ाई शादी के बाद भी पूरी हो सकती थी। " आखिर अमर के मुँह पर उसके मन की बात आ ही गई।

" लगता है बबुआ का दिल आ गया है पूनम पर ....! " कहते हुए मामी रहस्यमय अंदाज में मुस्कुराई थी।

" ऐसा नहीं है मामी जी ! मैँ तो बस इसलिए कह रहा हूँ कि मात्र कम पढ़ाई लिखाई की वजह से ऐसी गुणी व खूबसूरत लड़की को नकार नहीं देना चाहिए।" अमर झेंपते हुए बोला।

" हाँ बबुआ ! सही कह रहे हो ! मुझे भी दुःख हुआ था जब जीजाजी ने साफ इंकार कर दिया था। अगर कहो तो मैं फिर से बात चलाऊँ .....!" मामी ने उसका मन टटोलते हुए कहा।

"अगर हरि काका को कोई आपत्ति नहीं तो मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती है ?" मन में फूट रहे लड्डू पर भरसक काबू पाते हुए आखिर अमर ने शालीनता से अपनी बात कह दी।
" अच्छा ! ठीक है । मैं बात करती हूँ हरि भाईसाहब से, लेकिन क्या तुम एक बार पूनम से बात करना चाहोगे ? मैं चाहती हूँ कि आगे बढ़ने से पहले तुम दोनों एक दूसरे को समझ लो।" मामी ने समझाया था।

" जैसी आपकी मर्जी मामी जी ! आप मेरे लिए सही ही सोचेंगी , इसका मुझे पूर्ण विश्वास है।" अपनी खुशी को जबरदस्ती दबाते हुए अमर ने सामान्य स्वर में जवाब दिया।

" फिर ठीक है ! कल सुबह ही बुलवाती हूँ पूनम को अपने घर। एक बार तुम दोनों आपस में बात तो कर लो।" कहकर मामी जी धारावाहिक देखने में व्यस्त हो गईं।

अगले दिन सुबह का नाश्ता करके अमर के मामा जी अपने काम पर निकल गए थे और अमर अपने कमरे में पहुँचा ही था कि मामी की आवाज सुनाई पड़ी ," बबुआ ! कहाँ चले गए ? यहाँ आओ ! देखो कौन आया है ?"

" जी मामीजी ! अभी आया !" कहते हुए अमर ने बैठक में प्रवेश किया। मामी की बगल में वही लडक़ी पूनम जो उस दिन छत पर दिखी थी और एक और लड़की जिसे उसने अनुजा की शादी के दिन पूनम के साथ देखा था बैठी हुई थीं।

उसे देखते ही मामी जी बोलीं ," देखो अमर ! ये हैं पूनम ! हरि भाई साहब की इकलौती सुपुत्री हैं।" उन्होंने जिस लड़की की तरफ इशारा किया उसे देखकर अमर को तो जैसे साँप सूंघ गया हो। वह जिसे पूनम समझ रहा था , वह लडक़ी पूनम नहीं थी। उसकी बगल में बैठी लड़की पूनम थी। क्या कहे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन औपचारिकतावश वह उसे देख कर मुस्कुराया और हेल्लो कहा !

कुछ देर की औपचारिक बातों के बाद दोनों लड़कियाँ चली गईं। उनके जाने के बाद मामी जी ने पूछा ," कहो बबुआ ! अब क्या इरादा है ? कैसी लगी पूनम ?"

अब अमर क्या कहता ? उसके तो सारे सपने धूल धूसरित हो चुके थे, लेकिन वह जल्दी हार माननेवालों में से नहीं था। सो मामी की बात अनसुनी करते हुए उल्टे पूछ बैठा ," मामी जी ! पूनम तो ठीक ही है लेकिन वह जो उसके साथ आई थी वह लडक़ी कौन है ? मैं तो उसी को पूनम समझ रहा था।" हल्का सा मुस्कुराया था अमर।

" अरे वो .....! वो तो रजनी है ! पूनम के मामा की लड़की और पूनम की खास सहेली ! पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद अब वह आईएएस की तैयारी कर रही है और सौ प्रतिशत वह कामयाब होगी क्योंकि वह पढ़ने में बचपन से होशियार है ।" मामी ने बताया।

सुनकर अमर बस मुस्कुरा कर रह गया। पल भर में उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह उससे दूर हो गया है। उसके मन में तरह तरह के विचार उठने लगे।
' कहाँ वो खुद एक बेरोजगार और कहाँ एक होनेवाली कलेक्टर ...! दोनों में जमीन आसमान का अंतर ! फिर भला वह क्यों उसे पूछने लगी ? '
' नहीं ! ऐसा नहीं है ! उसके भी मन में तुझे लेकर कुछ न कुछ अवश्य चल रहा है , नहीं तो भला वह शादी के पूरे कार्यक्रम के दौरान क्यों सबकी नजर बचाकर बार बार तुझको ही निहार रही थी ? '
अपने अंतर्द्वंद्व से जूझता अमर खासा परेशान हो गया था सो मामी से विदा लेकर वह अपने कमरे में आ गया।

दो दिन बड़ी बेचैनी में गुजरे। गाँवों में होली की हलचल कुछ पहले ही शुरू हो जाती है। क्या बड़े क्या बुढ़े सब एक नई उमंग और जोश में नजर आ रहे थे। एक दूसरे से हँसी ठिठोली में व्यस्त लोग भी नजर आए तो वहीं कुछ लोग घर के बाहर रहनेवाली चीजों के लिए चिंतित भी नजर आए। होली के दिन गाँवों में से घर के बाहर भूल जानेवाली चीजों का या जिसपर ध्यान न हो ऐसी चीजों का गायब होकर होलिका में जल जाना सामान्य सी बात है। सब कुछ देखते समझते हुए अमर गाँव की सैर कर लेता लेकिन उसका मन किसी चीज में नहीं लग रहा था । उसकी नजरों के सामने तो हर वक्त वही चेहरा नाच रहा था , रजनी का चेहरा जिसे वह अब तक पूनम समझ रहा था। इस बीच गाँव की गलियों में कई बार उसका आमना सामना रजनी से हुआ लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई कि उससे कुछ कहे। जबकि रजनी उसे देखकर मुस्कुराती हुई घर में समा जाती।

आज होलिका दहन का दिन था। रात गहरा गई थी। गाँव के दक्षिण में गाँव से बाहर गाँव के सभी लोग जमा हो चुके थे। एक मैदान के बीचोबीच एरंड का एक वृक्ष गड़ा हुआ था और उसकी चारों तरफ पुआल तथा गोबर के उपले करीने से सजाए गए थे। ग्रामीण पुरूष श्रद्धा भाव से होलिका का पूजन कर रहे थे। अमर अचरज से ग्रामीणों के सभी क्रियाकलापों को देख रहा था। उसके लिए यह सब बिल्कुल नया अनुभव था। मुम्बई में ऐसा उसने कभी नहीं देखा था। सबके पूजन वगैरह के बाद सरपंच के इशारे पर होलिका दहन का कार्यक्रम शुरू कर दिया गया। होलिका दहन शुरू होते ही सभी ग्रामीण खुशी से एक दूसरे के गले मिले तथा युवकों ने बुजुर्गों के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया तथा अपने अपने घरों को लौटे।

आज रंगोत्सव था। सुबह से ही गाँव में हलचल मची हुई थी। शिवालय पर पंडों के बीच भंग घोंटने की जंग मची हुई थी। बच्चे एक दूसरे पर रंगों की बौछार कर रहे थे। किसी बच्चे का रंग खत्म हो जाने पर वह दौड़कर रसोई में बर्तन के पेंदे में से कालिख का जुगाड़ कर लाता तो कोई कीचड़ सने हाथों से ही अपने साथी पर टूट पड़ता। सभी बच्चे अपनी अपनी क्षमता का भरपूर प्रदर्शन कर रहे थे। युवकों की टोली जोगीरा गाते हुए गले में लटके ढोलक की थाप पर भंग की तरंग में झूमते नाचते गाते लोगों के घरों के सामने कुछ देर रुकते , जोगीरा गाते , घरवालों और जोगीरा की टोली में स्थित युवकों के मध्य रंगों का आदान प्रदान होता और फिर टोली आगे बढ़ जाती। किसी घर का दरवाजा बंद मिलने पर उसे किसी भी तरह खुलवाने और अंदर छिपी महिलाओं को रंगने का कोई भी मौका ये युवक छोड़ते नहीं थे। इस टोली में कई बुजुर्ग भी थे जो युवाओं का मार्गदर्शन करते हुए किसी युवा से कम नहीं लग रहे थे। चारों तरफ मस्ती व उत्साह का आलम छाया हुआ था।
युवाओं के बीच मस्ती के आलम में भी अमर की निगाहें जैसे किसी को तलाश रही थीं। युवाओं ने गलियों में दौड़ाकर कई लड़कियों को रंगों से सराबोर कर दिया था लेकिन अमर को तो रजनी की तलाश थी जो उसे अब तक नहीं दिखी थी।

आखिर पूरे गाँव का भ्रमण कर जोगिरों की टोली भी बिखर चुकी थी। दोपहर ढल गई थी और शाम होने को थी। अमर नहा धोकर फ्रेश हो चुका था। कुछ बच्चे और युवक अभी भी रंगों से सराबोर धमाचौकड़ी मचाये हुए थे। उन सबसे बचते बचाते अमर रजनी के ख्यालों में खोया हुआ गलियों में यूँ ही चहलकदमी कर रहा था। अपने आप में खोया हुआ वह चला जा रहा था कि अचानक एक तरफ से रंगों की पूरी बाल्टी उसके तनबदन को रंगों से सराबोर कर गई। उसने चौंककर बौछार की दिशा में देखा। अपने हाथ में बाल्टी लिए दरवाजे के सामने खड़ी रजनी उसे ही देखे जा रही थी। न जाने अमर में कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई थी कि वह दौड़ पड़ा उसकी तरफ और वहीं पास ही रंगों से भरी दूसरी बाल्टी उठाकर पूरी उसके ऊपर उंडेल दी। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब रजनी ने उससे बचने का कोई प्रयास नहीं किया।

अचानक उसे ध्यान आया दूसरी बाल्टी आखिर रंगों से भरी हुई वहाँ क्यों रखी हुई थी ? सोचते हुए उसकी निगाहों में बेसुमार प्यार उतर आया। प्यार से उसकी तरफ देखते हुए अमर बोला ," ये बताओ ! तुम मुझसे बच सकती थीं फिर तुमने कोई प्रयास क्यों नहीं किया ? और ये रंगों से भरी बाल्टी यहाँ क्यों रखी हुई थी ?"
रजनी ने आसपास देखा। कोई नहीं था। शोख मुस्कुराहट अमर की तरफ उछालती हुई बोली ," तुमसे होली खेले बिना अधूरी ही रहती मेरी होली।"
शरारत से मुस्कुराते हुए अमर बोला ," अच्छा ! लेकिन ऐसा क्यों ? मैं हूँ कौन ?"

" कुछ रिश्ते बेनाम होते हैं अमर बाबू ! बता सकते हो चकोर का चंदा से क्या नाता है ? सूरजमुखी का सूरज से क्या नाता है ? पतंगा क्यों शमा में झुलसकर अपनी जान दे देता है ? अब कैसे कहूँ कि तुम्हें अनुजा के घर पहली बार देखकर ही मैं अपना दिल हार बैठी थी।" कहते हुए शर्म से दोहरी हो गई थी रजनी। अमर के दिल की धड़कने भी बढ़ गई थीं। खुशी के मारे उसे सूझ नहीं रहा था क्या करे ,क्या न करे। रजनी आगे कह रही थी ," इन रंगों की फिक्र न करो अमर बाबू ! ये रंग तो एकाध दिन में तन से उतर जाएंगे लेकिन ये मन जो तुम्हारे रंग में पूरी तरह से रंग चुका है न.. ये रंग इतना पक्का है कि अब जिंदगी भर तुम्हारा ये रंग दिल से न छूटेगा। अब ये तनमन पूरी तरह से तुम्हारे रंगों में रंग चुका है अमर बाबू !"
भावावेश में अमर उसकी तरफ बाहें फैलाकर आगे बढ़ा। उसकी आगोश में रजनी किसी अबोध बालिका की तरह सिमटती चली गई।