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माँ का उन्माद

मानस दर्शन की एक व्याख्या के अनुसार बाल स्मृतियाँ हमारे अवचेतन के भंडार में संचित रहती हैं और यदा-कदा हमारे सपनों में आन प्रकट होती हैं, उनके केंद्र में रही घटनाएँ बेशक परिधि् पर चली जाएँ किन्तु उन घटनाओं से उपजे मनोभाव एवं मनोविकार तथा आवेश एवं संवेग जीवन-पर्यंत हमारे साथ लिपटे रहते हैं।

इसीलिए आज 2009 में भी सन् 1948 के मेरे पिता के बँगले का वह कुआँ समय- समय पर मेरे सपनों में तो मुझे दिखाई देता ही है, जिसमें माँ को फेंका गया था, अपनी बगल में बैठे सिक्के फेंक रहे पिता के ठहाके की भयावहता भी आज मेरे साथ है जब वे माँ के साथ श्मशानघाट जा रही लारी की खिड़की में से आस-पास जमा हुए भिखारियों को देखकर हँसे थे, ‘देखो शोहदे कैसे इन सिक्कों पर टूट रहे हैं।’

उस समय मेरी उम्र कुल जमा सात साल की थी और मेरी स्मृति की संकेतकी माँ की मृत्यु की पृष्ठभूमि खींचने में अपर्याप्त है। कुछ प्रत्यक्ष और कुछ ऐतिहासिक तथ्य मेरे पास हैं ज़रूर, फिर भी थोड़े ब्यौरे तो मुझे गढ़ने ही होंगे। कुछ अंतराल तो भरने ही पड़ेंगे। और यहाँ मेरी कल्पना घपला कर सकती है। मेरी समझ पलटा खा सकती है।

1902 में जन्मे मेरे पिता अमृतसर के एक नामी वकील थे जिनकी सपफलता वंशागत न होकर स्वनिर्मित थी।

मेरे दादा वहाँ की करमों-ड्योढ़ी के एक साधरण कपड़ा व्यापारी थे परंतु मेरे पिता की न्याय-विधि् की असाधरण प्रयुक्ति, विश्लेषण-क्षमता एवं अध्विक्तृता द्रुत गति से उन्हें ध्नाढ्य बना गई थी।

हाँ, तेईस वर्ष की अपनी अल्पायु में तपेदिक के हाथों वे अपनी माँ और पहली पत्नी खो चुके थे।

अपनी दूसरी पत्नी वे लाए थे चौदह साल बाद सन् 1939 में। जब अमृतसर की रेसकोर्स रोड पर उनका भव्य बंगला तैयार हुआ, उस समय सत्रह वर्षीया मेरी माँ लाहौर के सर गंगाराम हाईस्कूल से मैट्रिक कर रही थीं और लाहौर निवासी मेरे नाना अपने दामाद के मित्र भी थे और उनकी तरह वकील भी, लेकिन कम सफल।

माँ को बड़बड़ाने की आदत भी अपने विवाह के तीसरे-चौथे  वर्ष से ही शुरू हो गई थी। सच पूछें तो मेरा पूरा बचपन उनकी बड़बड़ाहटें सुनते ही बीता था।

‘मैं अखबार क्यों नहीं पढूँ? पढूँगी... ज़रूर पढूँगी, रोज़ पढूँगी... मैं रेडियो क्यों नहीं सुनूँ? मैं तो रेडियो सुनूँगी... ज़रूर सुनूँगी...’

‘मै अपने लाहौर चिठ्ठी क्यों नहीं लिखूँ? लिखूँगी... ज़रूर लिखूँगी। जब मन चाहेगा तभी लिखूँगी...’

यहाँ यह बताता चलूँ, माँ मेरे नाना-नानी और अपने दोनों भाइयों से बहुत जुड़ी हुई थीं और सप्ताह में चार-पाँच चिठ्ठी भेजने में माँ को यदि कमाल हासिल था तो मेरे नाना और दोनों मामा लोग भी उनकी हर चिठ्ठी का उत्तर तत्काल भेजने में पीछे नहीं रहते थे। और इसीलिए सन् 1947 की जुलाई के बाद से जब उनकी कोई भी चिठ्ठी या खबर माँ को नहीं मिली थी तो उनकी बड़बड़ाहटें तेश और उग्र होती चली गई थीं। फोन मेरे ननिहाल में था नहीं। ऐसे में उन्माद को छूती हुई उनकी मनोस्थिति गड़बड़ाई रहती। साथ में रेडियो और अखबार के लिए उनकी ललक ने भी असंयमित प्रबलता धरण कर ली थी। एक मनोग्रस्ति की सीमा तक। दिन में अब वे दस बार अखबार पलटतीं। बीस बार रेडियो सुनतीं।

इसीलिए उस 1948 की 30 जनवरी को महात्मा गाँधी की हत्या की ख़बर उन्हें मेरे पिता से पहले मालूम हो गई थी बी.बी.सी. से और उसे सुनते ही वे बीच का आँगन लाँघकर मेरे पिता के दफ्तर में जा घुसीं, नंगे सिर, नंगे पैर।

शोर-शोर से बड़बड़ाती हुई, ‘कहता था, अहिंसा मेरा कवच है। अहिंसा मेरा हथियार है। फिर गोली खाते समय अपना हथियार उसने कहाँ निकाला? कहाँ दिखाया? और निकालता भी, दिखाता भी, तो क्या हत्यारा अपने हाथ रोक लेता?’

‘जीजी...’ माँ को उस विक्षिप्त अवस्था में देखकर मेरे पिता चिल्लाए।

उन दिनों स्त्रियों का सिर ढकना अनिवार्य रहा करता और सिर पर दुपट्टा ओढ़े बिना सलवार कमीज़ पहनने वाली पर नग्नता अपनाने का आरोप भी लगाया जाता। ढके पैर प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते।

बुआ तत्काल वहाँ आ पहुँचीं।

1935 में हुई मेरे दादा की मृत्यु के बाद मेरे पिता के परिवार में अब वही बची थीं। वे बाल विधवा थीं और मेरे पिता से दस वर्ष बड़ी। भाई के प्रति उनका प्रेम तथा समर्पण भक्ति की सीमा छूता था। मेरे पिता भी उन पर असीम श्रद्धा रखते थे। अपनी गोपनीय से गोपनीय बात भी उन्हें सौंप दिया करते। गृह-व्यवस्था भी बुआ के अधिकतर में रहा करती, माँ के नहीं। बल्कि माँ पर वे मेरे पिता से भी ज़्यादा शासन करतीं। उन्हें स्वयं तो घर से बाहर कहीं निकलना नहीं होता, माँ को भी वे रोक देतीं। यहाँ तक कि माँ का लाहौर जाना भी उन्हें स्वीकार न रहा करता। कहतीं, ‘तुम्हें कुछ देने-दिलाने का उन लोगों को इतना शौक चर्राया है तो वे इधर आकर दे-दिलाएँ।’ ऊपर से मेरे पिता जोड़ देते, ‘अपनी जान आफत में जिसे डालनी हो वही घर से बाहर कदम निकाले।’ कभी विश्व में छिड़े दूसरे महायुद्ध से उत्पन्न हुई भीषिका का तो कभी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की राजनैतिक उथल-पुथल का तो कभी आस-पास की गलियों एवं सड़कों, रेलगाड़ियों एवं लारियों की लूट-पाट और मार-काट का बखान करने लगते। सभी जानते हैं कि 1940 के दशक के पंजाब के वे साल कितने वीभत्स एवं दुर्भाग्यपूर्ण थे।

‘पगली को भगाओ यहाँ से’ मेरे पिता ने बुआ से कहा।

किन्तु बुआ के आगे बढ़ने से पहले ही माँ बाहर दौड़ पड़ीं, उसी अवस्था में। पोर्टिको की मोटर गाड़ी हाथ से पीटी और कंपाउंड की तरफ बढ़ लीं।

उनके पीछे मेरे पिता दौड़े, बुआ दौड़ीं, मैं दौड़ा। हमें दौड़ते देखकर माँ हँसी और कंपाउंड की घास के बीचों-बीच बने फव्वारे के नीचे जा खड़ी हुई।

बुआ ने अपने कदम पोर्टिको ही में रोक लिए और मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया, ‘वह तो बावली है, ठंड से नहीं डरती। हम तो होशमंद हैं। हम तो ठंड से डरते हैं, बीमारी से डरते हैं।’

अमृतसर में जनवरी की ठंड तीखी होती है, चोखी होती है।

‘ईश्वर से नहीं डरते? ठंड से डरते हैं? बीमारी से डरते हैं?’ माँ फव्वारे के पानी से खेलने लगी।

‘अरी, पानी का इतना शौक चर्राया है तो पीछे कुएँ में क्यों नहीं जा डुबकी लगा लेती?’ बुआ ने अपने हाथ नचाए।

‘बेपर्दा औरत है।’ गुस्से में मेरे पिता ने अपने दाँतों तले होंठ दबाए, ‘बेहया, बेअदब, ढीठ, अपनी ज़िद की पक्की...’

‘शुरू ही से ख़तरा है, ख़तरा है।’ माँ बड़बड़ाने लगीं। ‘सड़कों पर छुरों, भालों, तलवारों का ख़तरा, गोलियों में फेंके जा रहे तेज़ाब का खतरा, रेलगाड़ी में ख़तरा, लारी में ख़तरा...’

‘तो क्या झूठ कहता हूँ।’ मेरे पिता आपे से बाहर हो लिए, ‘रोज़ अखबार पढ़ती है। दिनभर रेडियो में कान लगाए बैठती है। कैंप-कैंप की खबर रखती है। वहाँ चिठ्ठी भेजती है, यहाँ चिठ्ठी लिखती है...’

माँ अब भी हर सप्ताह दो-तीन पत्र अपने पिता और दोनों भाइयों और माँ के नाम लिखा करतीं, जिन्हें दफ्तर ले जाकर मेरे पिता फाड़ दिया करते, ‘भारत सरकार या रिफ्यूजी कैंपों की मारफत भी कोई चिठ्ठी पहुँचाता है क्या?’

‘तो क्या करूँ?’ माँ की नाक बहने लगी, आँखें बहने लगीं, ‘किसी ने मेरे जन का पता किया? पुछवाया कहीं से, लाहौर के किशननगर वालों पर क्या बीती? कैसे बीती?’

मैं रोने लगा, ‘माँ, तुम बीमार हो जाओगी। पानी के नीचे मत रहो...।’

‘कोई है?’ मेरे पिता अंदर की तरफ मुँह करके चिल्लाए, ‘अशरफी लाल... मुंशी जी... ड्राइवर... पन्नालाल...’

अशरफी लाल हमारा घरेलू नौकर था और पन्नालाल मेरे पिता के दफ्तर का चपरासी जो ‘मुंशी’ के साथ दफ्तर की डाक देखा करता था।

‘जी बाबूजी!’ चारों पोर्टिको में लपक आए।

मनोविनोद और कुतूहल अपने-अपने चेहरों पर चिपकाए।

‘तुम्हारी भाभी का दिमाग फिर से फिर गया है।’ मेरे पिता ने चिंतित मुद्रा में कहा, ‘उसे फव्वारे से बाहर निकालना होगा नहीं तो ठंड खा जाएगी। निमोनिया पकड़ लेगी।’

‘जी, बाबूजी।’ चारों मुस्कुराए और कंपाउंड की ओर चल दिए। तभी माँ के उन्माद को ब्रेक लग गई। शायद उनका शील-संकोच उन पर हावी हो गया था। बिना अगला पल गँवाए उन्होंने अपनी बाँहों को आड़े-तिरछे किया और अपनी छाती और अपने चेहरे को उनकी ओट में ले गईं।

फिर कम्पाउंड के किनारे बिछी फूलों की क्यारियाँ उन्होंने फाँदीं और घर के पिछले भाग में खुलने वाले दरवाज़े की दिशा में दौड़ पड़ीं।

‘तुम लोग जाओ अब।’ मेरे पिता ने अंदर से ही आए समूह को आदेश दिया।

‘जी, बाबूजी।’ आशान्वित तमाशा निरस्त होते देखकर समूह के समस्त चेहरे बुझ लिए।

बुआ की बाँहें छुड़ाकर मैं माँ के लिए गए रास्ते की ओर दौड़ पड़ा। बुआ व मेरे पिता भी उधर ही बढ़ आए।

‘उसे ठीक से समझाना होगा।’ मेरे पिता बोले। मैंने अपने कदम धीमे कर दिए।

‘अब उसका इलाज करना पड़ेगा।’ बुआ ने कहा, ‘अब वह हमारे समझाने की अवस्था से बाहर हो गई है...’

‘पागलखाने भेजकर?’

‘वहाँ भी वह ठीक होने वाली नहीं।’ बुआ ने अपना स्वर नीचा कर लिया। जब भी वे माँ के विरोध् में कुछ कहा करतीं अपनी आवाज़ ज़रूर धीमी कर लेतीं, ‘और मायका भी उसका ला-पता है...’

‘फिर?’ मेरे पिता ने अपनी आवाज़ नीची कर ली। मैं अचानक रुक गया।

‘उसे पूछने वाला अब कोई नहीं, हमीं को कुछ करना होगा। यहीं घर पर।’ बुआ फुसफुसाईं।

‘क्या?’

बुआ ने अपनी बगल में मुझे पाकर मेरे पिता को अपने कान नीचे लाने का संकेत दिया। वे ले गए।

बुआ ने उनमें कुछ कहा।

‘क्या...या...या...या?’ मेरे पिता की हँसी छूट गई।

बुआ ने उनकी हँसी का पीछा किया। अपना सिर उठाकर मैंने दोनों की ओर देखा, उनकी हँसी का कारण भाँपने के लिए। दोनों सामने दिखाई दे रहे कुएँ पर टकटकी बाँधे थे।

वह कुआँ हमारी पिछली चौहद्दी दीवार के साथ सटे बगीचे में खुदा था।

बँगले के निर्मित क्षेत्र के पिछले भाग के प्रांगण के पार। यह निर्मित क्षेत्र दो भागों में बँटा था। इस पिछले भाग के प्रांगण में हमारी रसोई थी, हमारा हैंडपम्प था, दो गुसलखाने थे और उसके आगे चार कमरे। जिनमें से एक को बुआ ने अपना मंदिर बना रखा था। इन कमरों के बाद ‘बीच का आँगन’ पड़ता था और आँगन के आगे के तीन बड़े कमरे पिता के अनन्य प्रयोग के लिए निर्धारित थे। तीनों थे ही उनके नाम के…‘बाबूजी की बैठक, बाबूजी का दफ्तर, बाबूजी का वेटिंग रूम’ इनमें घर के सदस्यों का जाना लगभग वर्जित था। अपने मुवक्किलों, मुंशी-चपरासी के लिए जब भी मेरे पिता को कुछ मँगवाना होता तो वे इस ‘बीच के आँगन’ में आकर अशरफीलाल को पुकारते। पीछे के अपने कमरे में बैठी बुआ तत्काल रसोई की ओर लपक लेतीं और भाई की माँग को देखने, सँभालने लगतीं। हाँ, इन पिछले दो-एक वर्षों से अशरफीलाल को कम ही पुकारा जाता था।

मेरे पिता मंदी के दौर से गुशर रहे थे और उनका दफ्तर अब कई बार पूरा-पूरा दिन खाली पड़ा रहता था।

माँ अपने कमरे में थीं, सिटकनी चढ़ाए। छींकती हुईं, बड़बड़ाती हुईं, ‘साँस खींचो तो आफत, साँस छोड़ो तो आफत, बाहर प्राण और शील जोखिम में तो अंदर चित्त और चैन...’

‘अभी तुम दफ्तर लौट जाओ।’ बुआ ने मेरे पिता से कहा। ‘फिर मिल-बैठकर कोई रास्ता निकालते हैं...’

पाँचवीं-छठी सुबह हम सभी बगीचे में बैठे थे जब हमारे गेट की घंटी बजी। पिछले दो-एक साल से मेरे पिता ने अपने बँगले के बाहर एक बंदूकधरी गार्ड तैनात करवा रखा था। सभी आगंतुकों से वह पूरी पूछताछ करता और संतुष्ट होने पर गेट की घंटी बजा दिया करता।

‘इतनी सुबह कौन आया होगा?’ मेरे पिता अपनी रिवॉल्विंग चेयर से उठ खड़े हुए और अशरफीलाल के साथ गेट की तरफ निकल लिए। उनका दफ्तर साढ़े नौ पर खोला जाता था। दस बजे तक अशरफीलाल उसकी सफाई व डस्टिंग खत्म करता था। तब तक दफ्तर के लोग वहाँ आ पहुँचते थे। मेरे पिता का प्रसाधन सुबह सात बजे से नौ बजे तक रुक-रुककर चला करता। इस बीच गर्मियों में जहाँ वह अधिकांश समय सामने वाले लॉन में गुज़ारते, सर्दियों में सूरज उगने पर अपनी यह रिवॉल्विंग चेयर बगीचे में डलवाते और सुबह का अखबार वहीं बाँचते। उनकी कुर्सी की बगल में बुआ भी अपना तख्त लगवा लेतीं और माँ को बुलावा भेजतीं, ‘यह सब मेरे साथ छील तो, मुरब्बे के लिए..., गोभी और शलजम की फाँकें तैयार करनी हैं, अचार डालेंगे..., काली ये गाजरें काट तो काँजी के लिए...’

यों भी अचार और मुरब्बे के जिन मर्तबानों को धूप दिखानी होती, उन्हें इधर पहुँचाने और वापिस ले जाने का जिम्मा भी माँ का ही रहा करता। चौदह-पंद्रह साल के अशरफीलाल के हाथ से उनके छूट जाने का डर दिखाकर। वे मर्तबान थे भी ऊँचे और वज़नी। माँ के हाथ मजबूत थे और बाँहें बलवती। सच पूछें तो पूरे परिवार में एक वही थीं जो खड़ी-खड़ी मुझे अपनी छाती से चिपका सकती थीं। बुआ का कद माँ से काफी छोटा था और शरीर दुगना भारी। ऐसे में मुझे उठाते ही उनका दम फूलने लगता। उधर मेरे पिता का कद बेशक बुआ से ऊँचा था, लगभग माँ ही के बराबर मझोला था किंतु उनकी देह की संरचना माँ की तुलना में तनु थी, छरहरी थी। शायद इसलिए उन पिछले तीन-चार वर्षों से अपने लाड़ की हिलोर में वह मुझे पहले की तरह अपने कंधे पर नहीं बिठाते, बल्कि अपने घुटने और पैर चिपकाकर लेट जाते, मेरी ठुड्डी अपने घुटनों पर टिकाते और मेरे पैर अपने पैरों पर रखते और मुझे झूला झुलाने लगते। मेरी बाँहों को अपने हाथों में थामकर।

गेट से वे लौटे तो उनके पीछे चल रहे अशरफीलाल के साथ एक अजनबी भी था। ऊँचे कद का। लंबाई-चौड़ाई में खूब हट्टा-कट्टा मगर फटीचर हालत में। रूखे बाल, चार-पाँच दिन पुरानी दाढ़ी, फटी कमीज़, मैला पाजामा, जीर्ण चप्पल। उम्र यही कोई पैंतीस और चालीस के बीच।

‘जीजी, मेरे पिता ने अपनी दोलन कुर्सी ग्रहण की।’ यह मदन माली है। सुबह आठ बजे से एक घंटे के लिए हमारे बगीचे में काम करेगा। उधर लाहौर के शहादरे में बने कालीन के कारखाने में बुनाई-मजदूर था।’

‘लाहौर से आया है?’ माँ उतावली हो उठी, ‘किशननगर जानता है? मेरे पिता श्री गिरधारीलाल को? मालूम है वे कहाँ हैं?’

‘बीबी जी!’ मदन माली बोला, ‘कोई नहीं जानता कौन बचा? कौन तबाह हुआ? समझिए लाहौर का पुराना नाम ‘अँधेरों का शहर’ फिर से दीख गया...’

‘तुम कब आए? कैसे आए?’

‘अपनी साइकिल से। दिन में छुप जाता, रात में निकल लेता।’

‘अपने घर के लोगों के साथ?’

‘नहीं बीबी जी, मेरी दो बहनें थीं, घरवाली थी, तीन बेटियाँ थीं। सभी कुएँ में कूद गईं...अपनी लाज की मर्यादा की खातिर...’

‘अब उसे अपना काम शुरू करने दो।’ मेरे पिता ने माँ को चुप करा दिया। माँ का अजनबियों से बात करना उन्हें असह्य था, ‘बाकी बात कल कर लेना, परसों कर लेना, रोज़ ही तो इसे इधर आना है...’

‘क्यों नहीं बात करूँ?’ माँ बड़बड़ाने लगीं, ‘मैं तो बात करूँगी, अपने लाहौर की बात करनी है मुझे... ज़रूर करूँगी...’

‘मदन माली, तुम अपना काम देखो, ये औरत पगलैट है।’

‘जी, बाबूजी।’ मदन माली कुएँ की बगल वाली अंगूर और लौकी की बेलों की तरफ चल दिया।

उस समय तो माँ रूठकर अंदर चली गईं, लेकिन आगामी दिनों में मेरे पिता की आँख बचाकर वे मदन माली के पास पहुँच ही जातीं, मुझे साथ लिए।

दोनों लाहौर की खूब बात करते, लाहौरी पंजाबी में, जिसकी पंजाबी में उर्दू मिली रहती है।

वह अपने शहादरे में बने जहाँगीर के मकबरे की बात करता, हजूरी बाग बिरादरी के रोशनाई गेट की बात करता, शहर के अंदर बने लाहौर सेन्ट्रल रेल्वे स्टेशन की बात करता, शाही गुज़रगाह की बात करता जो अकबरी गेट से लाहौर किले तक जाती। किले की बात चलती तो माँ लाहौर के पुराने नाम लौह-वार का मतलब बताने लगतीं। लाहौर शहर की नींव 4000 साल पहले हमारे श्री रामचन्द्र भगवान के सुपुत्र, लव, ने जब रखी और यह किला बनवाया तो वह लौह-वार कहलाया, यानी लव का किला। फिर मुझे देखकर बतातीं, जैसे अंग्रजी भाषा में किसी भी शब्द के अंत में वॉवेल के बाद आए अक्षर ‘आर’ को ‘अ’ उच्चारित करते हैं, ‘मदर’ को ‘मदअ’ बोलते हुए लगभग उसी प्रकार पंजाबी भाषा में अक्षर ‘र’ को ‘औ’ बोल देते हैं, ‘जसवंत’ को ‘जसौन्त’ और ‘लव’ को ‘लौ’। पिफर कहतीं, लव ने उस किले में एक मंदिर भी बनवाया था, जो अब खाली था। इस पर मदन माली औरंगज़ेब को याद करता जिसने किले की बगल में बादशाही मस्जिद बनवाई, आलमगिरी गेट बनवाया।

माँ को अपना सर गंगा राम स्कूल याद आता, भाइयों का सेन्ट्रल मॉडल स्कूल याद आता, नाना की यूनिवर्सिटी याद आती जो मालरोड के छोर पर बनी थी, लक्ष्मी चौक, चौक यतीमखाना, टालिंगटन मार्केट, मांटगुमरी हॉल, गवर्नमेंट कॉलेज, नेशनल कॉलेज ऑपफ आर्टस, क्लॉक टावर, जी.पी.ओ और वाए.एम.सी.ए की इमारतें याद आतीं। नाना के लाहौर हाईकोर्ट और उसके पार बने गुलाबी गिरिजाघर की माँ खूब बात करतीं जिसमें छह घंटियाँ थीं जो पूरे इलाके में गूँजा करतीं।

बीच-बीच में मदन माली अपने हाथ आकाश की ओर उठाता ओर वारिस शाह की द्विपदी सुनाता…

‘खादा पीता वाए दा, बाकी अहमद शाए दा’ यह अहमद शाह दुर्रानी नादिर शाह का उत्तरवर्ती अफगान आक्रमणकारी था जिसने मुगल साम्राज्य के बचे हुए टुकड़ों पर धावा बोला था और काश्मीर क्षेत्रों को समाहित कर उन पर शासन किया था।

उस दिन मदन माली ने अपनी कारीगरी की बात छेड़ रखी थी, कैसे वह इकहरी भर्नी वाले तुर्कमान ओर काफ स्टाइल, दोहरे बान वाले मुगल टाइप या फिर लोकप्रिय मडैलियन, गोलाकार चित्र और नक्काशी अपने गलीचों में उतारने में निपुण था और माँ तरंग में आकर अपने दहेज में मिली मोठड़े की एक दरी अंदर से निकालकर उसे दिखा रही थीं जब मेरे पिता वहाँ चले आए।

उनके हाथ में एक लिफाफा था।

‘यह क्या हो रहा है?’ उन्होंने दरी देखते ही पूछा।

‘कुछ नहीं, बाबूजी।’ मदन माली हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, ‘बीबी जी हमें अपनी दरी दिखा रही थीं।’

‘इसे छोड़ो, यह बताओ, बगीचे में तुमने पपीता बो दिया क्या?’

‘बीज तो मुझे अभी मिले नहीं थे बाबूजी...’

‘यह लो, लिफाफा उन्होंने उसके हाथ में थमा दिया, इन्हें आज ही बोना है...’

‘कहाँ लगवाएँ?’ मेरे पिता ने माँ से पूछा।

‘जीजी बेहतर बता पाएँगी।’ माँ अपनी दरी समेटने लगीं।

‘वे कहाँ हैं?’ बुआ वहाँ नहीं थीं।

‘अंदर रसोई में अशरफी लाल के साथ ठंडाई तैयार कर रही हैं।’

‘जा।’ मेरे पिता ने मुझे वहाँ से उठा दिया, ‘जीजी को बुला ला।’

मैं प्रांगण के दरवाज़े से रसोई में आ पहुँचा।

बुआ महीन कपड़े के एक टुकड़े में पिसे बादाम और मसाले दूध् में छान रही थीं।

कपड़े का एक सिरा अशरपफी लाल अपने दोनों हाथों से थामे था। बुआ बायें हाथ से कपड़े का दूसरा सिरा पकड़े थीं और दाहिने हाथ से उसमें दूध् घोल रही थीं। कपड़े का गाढ़ा हो रहा दूध् नीचे रखे कटोरदान में जमा किया जा रहा था।

मेरे पिता का संदेश सुनकर बुआ ने अपना दायाँ हाथ रोक लिया और मुझसे बोलीं, ‘इधर मेरी जगह पर बैठ तो। बस यह सिरा ही तो पकड़ना है। इसे सँभालकर पकड़े रखना। मैं अभी आती हूँ...’

‘जीजी, बाकी हम बना दें?’ अशरफी लाल ने पूछा।

‘ठीक है।’ बुआ ने कहा, ‘मगर कपड़े में दूध् घोलते समय चम्मच इस्तेमाल करना, अपना हाथ नहीं...’

‘जी, जीजी...’

मेरे हाथ में अपना हाथ खाली कर बुआ बाहर चली गईं।

अशरफी लाल ने एक नया गिलास दूध् पिसी सामग्री वाले कपड़े में उड़ेला और उसमें अपना हाथ छोड़ने ही वाला था कि मैंने उसे रोक दिया, ‘बुआ ने अभी क्या बोला था? इसे हाथ नहीं लगाना...’

‘जानते हैं।’ अशरफी लाल उद्दंड हो आया, ‘सब जानते हैं। इन हाथों से हम आटा सानें-मंजूर है, चटनी पीसें-मंजूर है, पूड़ी-परौंठा सेकें मंजूर है, मगर दूध् या बादाम छू लें- यह मंजूर नहीं। भला मंजूर क्यों नहीं? कहीं हाथ धोते समय हम इसे चख लिए तो स्वाद न जान जाएँगे? स्वाद जान जाएँगे तो चस्का न पाल लेंगे...’

‘तुम बहुत बोलते हो।’ मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा।

अशरफी लाल हँसने लगा, ‘बोलता नहीं बहुत, मगर जानता बहुत हूँ।’

‘क्या जानते हो?’

‘जिस मदन को आप मालिक लोग लाहौर के शहादरे के कारखाने का मजदूर मानते हो, वह वहाँ की जेल से छूटा एक अपराध्ी है। यह बुनाई का काम उसने वहाँ जेल में सीखा, किसी कारखाने में नहीं...’

‘अशरफी लाल!’ तभी मेरे पिता की आवाज़ प्रांगण में गूँजी, ‘भागकर गेट से गार्ड को बुला ला, तुम्हारी भाभी ने कुएँ में छलाँग लगा ली है...’

‘जी, बाबूजी।’ अशरफी लाल ने अपने हिस्से का कपड़ा कटोरदान के ऊपर टिकाया और बाहर भाग लिया।  मेरे हाथों की पकड़ में रखा सिरा उसी पल मुझसे छूट गया। मैं कुएँ की ओर लपका।

वहाँ उसकी मुंडेर पर मेरे पिता और बुआ मदन माली के साथ खड़े थे। तख़्त से माँ की मोठड़े की दरी नदारद थी।

‘मुझे ऊपर लो।’ मुंडेर मुझसे ऊँची थी और मैं बुआ के कंध्े पर सवार होकर माँ को देखना चाहता था, पुकारना चाहता था।

‘मैं तुझे कहाँ उठा पाऊँगी काके?’ बुआ ने मेरी बाँह थाम ली। उनकी बाँह छुड़ाकर मैं मदन माली के पास पहुँचा, ‘आप उठा लो।’

उसने ऊपर उठी मेरी बाँहों की ओर अपने हाथ बढ़ाए ही थे कि मेरे पिता ने उसे रोक दिया, ‘रुक जाओ।’

वे बुआ से बोले, ‘जीजी, आप काके को अंदर ले जाइए...’

‘मैं माँ के साथ अंदर जाऊँगा।’ मैं रोने लगा।

‘उसे हम वहीं ला रहे हैं...’ बुआ मुझे घसीटती हुई अंदर ले आईं।

मदन माली उस दिन के बाद हमारे बंगले पर कभी नहीं आया। मगर मुझे अपने सोते में और कभी-कभी तो जागते में भी वह आज भी दिखाई दे जाता है। माँ को मोठड़े की उस दरी में लपेटकर कुएँ में फेंकते हुए, जो कुएँ से माँ की लाश निकालते समय वहाँ पाई गई थी।

29 पफरवरी, 1948 की सुबह।

दीपक शर्मा

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