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पोस्टर पेस्टर

एक थर्राती आवाज गूंजी थी, ‘‘ अबे नीचे उतर.’’

अकबर ने पीछे मुड़ कर देखा. एकाएक यकीन न हुआ. पोस्टर का राक्षस सामनेसाक्षात खड़ा था.

अकबर के थर-थर कांपने से सीढ़ी डगमगाने लगी थी और हथेली से पसीना चूने लगा था.

शाम को ठेकेदार ने चीजें पकड़ाते हुए अपना बदबूदार मुंह खोलकर दो बातें कहीं थीं. पहली बात थी कि पोस्टर रात को 10 बजे के बाद ही चिपकाने है. दूसरी बात यह कि दादर से बांद्रा तक के इलाके में चिपकाने हैं.

उसके पास चार चीजें थी. बांस की सीढ़ी, गोंद की बाल्टी, झाड़ू जैसा ब्रश औरपोस्टरों का गट्‍ठर. वह उन्हें उठाकर चल पड़ा था.

अकबर पुराना पोस्टर पेस्टर था. नाम से रोब पड़ता है न. ठेकेदार अपने सभी बंदोंको इसी नाम से पुकारता था. ठेकेदार के रजिस्टर में उसका नंबर था-3070. ठेकेदार मुंबई भर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने का ठेका लेता था और उसकी मेहरबानी से जैसे फुटपाथ पर रहने वाले कई लड़कों का पेट पलता था.

पोस्टर चिपकाना वैसे काम है कलाकारी का . रात नौ बजे से शुरू कर के कभी-कभी तो पोस्टर चिपकाते-चिपकाते आधी रात भी बीत जाती थी. उसे मेहनताना के रूप में पांच रूपए प्रति पोस्टर मिलते थे. वैसे अकबर को एक पोस्टर चिपकाने में तीन मिनट से ज़्यादा नहीं लगते . जमीन पर पोस्टर को उल्टा बिछाकर वह गोंदमें सना ब्रश तेजी से चलाता है. फिर सीढ़ी के जरिए दीवार पर बंदर की तरह चढ़कर इस तरह छपाक से चिपकाता है कि नया पोस्टर सीधा दीवार पर चिपक कर मुस्कराता सा नज़र आता.

फिर भी मुश्किल तब होती थी, जब दूसरे किसी पोस्टर के ऊपर गलती से या फिर जानबूझ कर ही अपना पोस्टर चिपका दिया जाता था और दूसरा उसे रंगे हाथों पकड़ लेता था. कई बार गोंद की बाल्टी पर चूहे या कुत्ते भी भूखों की तरह टूट पड़ते थे. और फिर मुंबई की भीड़भरी फुटपाथों पर सीढ़ी के लिए जगह बनाते हुए उन के ऊपर खड़े हो कर दीवार पर पोस्टर चिपकाना मजाक नहीं.

अकबर को यह याद कर के हंसी आती थी कि कैसे एक बार गोंद से लथपथ एकपोस्टर उस के हाथ से छूट कर फुटपाथ पर सोए पड़े एक आदमी के पीठ पर जा गिरा था. उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि उसे जगा कर उस पोस्टर को उसकी पीठ पर से उतार ले. अगली सुबह कई लोग उस आदमी को देखरेख कर हंसते रहे थे. बहुत याद में उस आदमी को बता चला कि उस की पीठ पर ‘‘ मैं जोकर हूं’’ का पोस्टर चिपका हुआ था.

अकबर ने उस आदमी को जैसे ही देखा उसके चेहरे से पसीना छूटने लगा.

ठेकेदार की आंखें इतनी तेज थी कि उसे धोखा दे कर पोस्टर फाड़ कर फेंक देना भी मुमकिन नहीं था. वह सबको पोस्टर पर नंबर लगा कर देता था. मौका मिलने पर खुद घूम-घूम कर उन की जांच भी कर लेता था. लेकिन पैसों के मामले में वह खरा था. ‘‘ पोस्टर पेस्टरों’’ का हजारों रूपया उस के पास बकाया रहता था. उसने कभी भी किसी का एक पैसा भी नहीं मारा था.सभी उस पर विश्वास करते थे. उसकी वजह यह है कि एक समय ठेकेदार खुद भी ‘‘ पोस्टर पेन्टर’’ था. कभी उसने भी दुख के दिन देखे थे.

अकबर के पास आमतौर पर फिल्मों या किसी कंपनी के प्रचार के ही पोस्टर होते थे. जब भी ठेकेदार कोई नया पोस्टर देता था तो सभी लड़के झुंड बनाकर बहुत सी नई नई बाते ढूंढ निकालते थे उसमें. पुराने ‘‘ पोस्टर पेस्टरों’’ की तो बात कुछ और होती थी. वे एक ही पोस्टर देखकर नई फिल्म की कहानी तक बता डालते थे. सच तो यह था कि ‘‘ पोस्टर पेस्टरों’’ के पास इतना वक्त, पैसा और हिम्मत कहां होती कि वे नई फिल्म देख कर पुराने ‘‘ पोस्टर पेस्टरों’’ की बताई कहानी का खंडन कर सकते.

पोस्टर तो पोस्टर ही होता है. पर उस दिन वाला पोस्टर कुछ दूसरा ही था. उस में एक भयानक अपराधी की तस्वीर छपी थी. हीरे-जवाहरात के जेवरों की एक दुकान से डाका डाल कर चार आदमियों का खून कर दिया था और लाखों रूपए का माल लूट ले गया था. यह वारदात पिछले हफ्ते ही घटी थी.

अब पुलिस के चारों ओर से की गई नाके-बंदी के कारण वह अपराधी फंस गया था और मुंबई से बाहर नहीं भाग पाया था. पुलिस को खबर मिली थी कि वहदादर और माटुंगा के बीच ही कहीं छुपा है. इसलिए पुलिस उसे तेजी से खोज रही थी. पोस्टर में इस अपराधी का पता देने वाले को 50 हजार रूपए का इनाम देने की घोषणा की गई थी.

‘‘ सुना नहीं तूने’’ नीचे खड़ा राक्षस दोबारा दहाड़ उठा था.

अकबर उसे देखकर अब तक सीढ़ी से नीचे उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था.

‘‘ क्यों चिपका रहा है ये पोस्टर ?’’

‘‘ दादा....ठेकेदार का हुक्म....पेट का सवाल..’’ अकबर हकलाने लगा था.

‘‘ अब घुसा दूं चाकू तेरे पेट में . दूं इनाम तेरी मेहनत का. जानता है, मैं कौन हूं?’’

अकबर की आवाज नहीं निकली.

‘‘ चार खून किए है मैंने’’ डाकू आगे बोला.

तभी दूर से पुलिस जीप के साइरन की आवाज आने लगी. अब राक्षस के खूनी चेहरे का रंग बदलने लगा. वह छिप कर भाग निकलने की जगह तलाशने लगा.

सायरन की आवाज तेज होती जा रही थी. उसने लाल आंखों से अकबर को धमकी दी. फिर अपनी चादर ओढ़ कर वहीं सीढ़ी से सट कर पसर गया.

तभी पुलिस की जीप वहा आकर रूक गई. इंस्पेक्टर अकबर के पास ही खड़ा हो कर उस के चिपकाए एक ताजा पोस्टर को देखने लगा. अकबर का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह साफ महसूस कर रहा था कि वह राक्षस चादर के भीतर से उसी की ओर पिस्तौल ताने पड़ा है. अगर उसने कुछ भी कहने के लिए जरा भी मुंह खोला तो वह एक ही गोली से उसकी गरदन की हड्‍डी तोड़ देगा. यह कल्पना ही उसे आतंकित कर गई. इस बीच सिपाहियों ने फुटपाथ में सोए लोगों को जगा-जगा कर देखना जांचना शुरू कर दिया था.

सिपाहियों की नजर से वह राक्षस बच गया था. पर इंस्पेक्टर ने उस की ओर इशारा करते हुए पूछा था, ‘‘उधर कौन लेटा है अलग से?’’

जवाब के लिए अनायास ही जब इंस्पेक्टर ने अकबर की ओर गरदन घुमाई थी, तब न जाने कैसे उस के मुंह से निकल गया था, ‘‘ साहब, एक कोढ़ी है वह’’

अकबर की बात पर विश्वास कर के पुलिस दल ने उसे वैसा ही छोड़ दिया था. फिर वह दल जीप में बैठकर आगे बढ़ गया था. सभी फुटपाथिए भी शेष रात काटने को बड़बड़ाते और खूनी को कोसते हुए अपनी-अपनी चादरों में घुस पड़े थे.

तब वह खूनी खड़ा हुआ था. उस ने जेब में हाथ डाल कर नोटों का एक बड़ा सा बंडल निकाला था और अकबर के हाथों में थमा दिया था. फिर वह अकबर की पीठ थपथपा कर तेजी से आंखों से ओझल हो गया था.

अकबर ने इतने नोट कभी नहीं देखे थे. बता नहीं, दस हजार थे या बीस हजार. पर थे इनाम के. वह खुश था. यकीनन पुलिस को खबर करने पर इनाम विनाम कुछ नहीं मिलता. उसे अपनी सूझबूझ पर गर्व हो रहा था.

जब अकबर नोटों को जेब में रख कर सीढ़ी हटाने के लिए बढ़ा तो पोस्टर पर नजर पड़ते ही चौंक उठा. पोस्टर से अब उस खूनी की तस्वीर गायब थी और वहां करीब-करीब उसका चेहरा उभर आया था. करीब-करीब क्या, लगभग पूरा ही. अंधेरे के बावजूद भी वह अपने चेहरे को पहचानने की भूल नहीं कर सकता था.

अकबर घबरा उठा. बात गंभीर थी. जब कल सुबह बस्ती के लोग उसे ही पकड़ कर पुलिस के हवाले कर देंगे तो? वह घबरा उठा. रात का स्कूल...गांव....पिताजी...ठेकेदार... ज़िंदगी. तरह-तरह की सोचों से उस का सिर चकराने लगा.

उस ने एक ही झटके में जेब में से नोट निकाल लिए और बेतहाशा उस चौराहे की ओर दौड़ने लगा, जहां अब पुलिस की जीप खड़ी थी और तलाशियां जारी थी.

उसने सोच लिया था कि उस पोस्टर पर हरगिज-हरगिज अपनी तस्वी नहीं आने देगा.