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एक शेर चाहिए

जब पापा की लाडली शिशु का जन्मदिन नजदीक आने लगा तो पापा ने एक दिन उससे पूछा, ‘‘बेटे, जन्मदिन पर तुम्हें क्या चीज चाहिए.’’

नटखट शिशु ने आंखे गोल-गोल करके कहा, ‘‘एक शेर चाहिए’’

अब पापा शिकारी थोड़ ही थे, जो कि वे जंगल जाते और शेर पकड़ कर ले आते. पापा के पास बंदूक भी नहीं थी. पापा तो एक ऑफिस में काम करते थे और कहानियां लिखा करते थे. फिर भला पापा शेर कहां से लाते. इसलिए शिशु की बात सुन कर पापा ने सिर खुजाते हुए कहा, ‘‘ बेटा तुम्हारे लिए मैं एक बिल्ली ला दूं.’’

शिशु ने कहा, ‘‘ नहीं , मुझे बिल्ली नहीं चाहिए. मुझे तो लंबी मूंछों वाला शेर चाहिए.’’

पापा ने फिर कहा‘‘ गुलाबी आंखों वाला और लंबे-लंबे कानों वाला खरगोश ला दूं.’’

मगर शिशु नहीं मानी. उसे तो बस शेर ही चाहिए था, वो भी कागज-कपड़े का नहीं सचमुच का.

अब तो पापा परेशान हुए. वे तो बेटी की हर मांग पूरा करते थे क्योंकि बेटी उनकी हर बात मानती थी. सच तो यह था कि शिशु और पापा खूब अच्छे दोस्त थे. इसलिए वे गंभीरता से सोचने लगे कि कहां से शेर का इंतजाम किया जाए. अब भले ही वह चूहे जितना बड़ा ही क्यों न हो.

पापा ने चिड़ियाघर वालों को चिट्‍टी लिखी कि क्या पिंजरे में बंद करके एक शेर को थोड़ी देर के लिए उनके यहां भेज सकते है. शहर की जीवदया समिति से भी बातचीत की और सर्कस वालों तथा पालतू जानवरों की दुकान से भी संपर्क किया, पर कहीं भी शेर नहीं मिला. एक -दो जगह भालू-भेड़िए का तो पता चला लेकिन शेर की तो कहीं खाल भी नहीं मिली.

इधर ज्यों-ज्यों जन्मदिन का दिन पास आने लगा, शिशु भी शेर की बात रोज याद दिलाने लगी. और यही नहीं उसने तो अपनी सहेलियों और दोस्तों को कह दिया था कि उसके तीसरे जन्मदिन में पापा उसके लिए शेर ला रहे है.

अब ऐसे में शेर का न आना बड़ी ही शर्मनाक बात थी सो पापा ने भी तय कर लिया कि वे जैसे-कैसे भी हो शिशु के जन्मदिन में शेर आएगा ही.

‘‘ शेर आएगा जरूर लेकिन आएगा थोड़ी देर से ! और उसके आने की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए. क्योंकि शेर को भीड़ और तमाशे नापसंद होते है.’’ पापा ने कहा था दो दिन पहले.

और आज शाम को बागीचे में शिशु को अपनी जन्मदिन पार्टी में उसी खास मेहमान के आने का इंतजार था. वैसे पेड़ों पर झूले लगे थे और उसकी सहेलियां, दोस्त उनमें झूल रहे थे. झाड़ियों में छोटे बल्बों की लड़ियां झिलमिला रही थी. कोई शर्बत पी रहा था तो कोई मुंह में समोसा ठूंसे था. गुब्बारे हवा में उड़ाए जा रहे थे. एक मेज में केक सजा हुआ था.

तभी एक हंगामा हुआ. एक भयानक दहाड़ सुनाई दी. झाड़ी के पीछे हलचल हुई और धूल उड़ाता हुआ एक विशालकाय शेर तेजी से कूद कर सीधा पापा पर लपक पड़ा.

सभी काठ हो गए. सचमुच का शेर... खुला हुआ. दहाड़ता शेर पापा को जमीन पर गिराकर नोच-खसोट रहा था. शिशु दहशत से रो पड़ी. जब उसने देखा कि शेर ने पापा की छाती पंजों से लहुलुहान र डाला है.

फिर उसकी घिग्घी बंध गई और वह फूट-फूट कर रोने लगी. वह इतनी तेज-तेज से रोने लगी कि शेर की दहाड़ भी मंद पड़ गई और एकाएक शेर ने दहाड़ना बंद करके हंसना शुरू कर दिया. शेर ने पिताजी को भी छोड़ दिया तथा वे दोनों ही खड़े होकर अपनी-अपनी धूल झाड़ने लगे.

यह देखकर सब तो हैरान हुए ही, पर शेर ने तो हैरानी की हद ही कर दी जब उसने लपेटी हुई खाल की जिप खोलकर एक उपहार निकाला और शिशु के पास जाकर बोला, ‘‘ बिटिया रानी को इत्ता सारा प्यार और ये हमारा उपहार.’’

तब पापा भी शिशु के पास जाकर उसके आंसू और अपनी छाती पर लगा रंग पोंछते हुए बोले, ‘‘ बेटे ये जंगल के शेर तो नहीं है पर नका नाम शमशेर जफर है ये गोविन्द नाटक कंपनी में जानवरों का काम करते है, बड़े प्रसिद्ध है ये इसलिए असली शेर जब कहीं नहीं मिला तो दोस्तों की सलाह पर मैंने इन्हीं से संपर्क किया और फिर ये योजना बनी. क्यों तुम्हें कैसा लगा इनका काम?

सहमी-दुबकी शिशु हंस पड़ी एकाएक. खैर मनाई उसने कि असली शेर नहीं थेयह शमशेर अंकल. वरना आज की तो कहानी दूसरी होती.

और जब खुशी-खुशी केक काटा गया तो शिशु ने भी सोच लिया कि आइंदा कुछ भी फरमाइश करने से पहले वह उसके बारे में एक बार सोच जरूर लेगी.