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बेटी - 4

काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 4

(भ्रूण का आत्म कथन)

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

समर्पणः-

माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’

‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’

मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

मेरी चाहना है, चाहतों की साँझी सजाऊॅंगीं।

अनेकों फूल कलियों से, मनोहर गीत गाऊॅंगी।

सुनहरा सुबह वह होगा, रजत सी शाम होएगी-

खुशी का वह सफर होगा, सभी को में रिझाऊॅंगी।।81।।

सुबटा खेलकर सीखूँ, शादी रस्म के सपने।

पराए किस तरह होते, सच्ची जिंदगी अपने।

किस तरह है निभाना जिंदगी को, सीखना चाहूँ-

झाँझी गीत नहीं केवल, जीवन-गीत-तप-तपये।।82।।

चलेंगी खूब फुलझड़िय़ाँ, दिवाली होयगा जीवन।

जलेंगे जिंदगी-दीपक, मिटेगा तमा का ही सीजन।

गौधन पूज-गर्वीले, दौजौं को सजाऊॅंगी-

तिलक कर भाई-भाभी के, बनाऊॅं अनूठा जीवन।।83।।

जगाऊॅं देव जो सोए, बजैं सहनाइय़ाँ प्यारी।

नया तब होयगा मौसम, सर्दी शर्द से न्यारी।

तरनि भी तेज तज करके, बनेगा शशी सा न्यारा-

बसंती बयारि मचलेगी, गुँजन भौंर मतवारी।।84।।

नाचे झूमकर फागुन, ठुमकन ढुलक की पाकर।

नगड़ियन की हो घनघोरें, मन हो फाग ही आकर।

मौसम रंग भरा देखूँ, केशर की फुहारौं का-

नचै मन मोर होकर के, गुलाबी रंग में नहाकर।।85।।

अखती खेल-खेलूँगी, कई गुड़िया बनाऊॅंगी।

रंग झंगुली पिन्हाकर के, नए फीतन सजाऊॅंगी।

ख´्जनी नयन कर दूँगी, देकर आंख में काजल-

पिन्हाकर पैर में घुँघरू, उन्हैं मन में नचाऊॅंगी।।86।।

पाकर गंध महुअन की, मौसम बहक जाएगा।

त्यागकर पात-अम्बर को, विरछा गीत गाएगा।

निर्धन हाऐंगे विरबा, छाया-छाँव ढूढ़ेगी-

तरसत देख दृग इनके, असाढ़ी मेघ होएगा।।87।।

सावन बरसता रिमझिम, ओढ़े हरितिमा अवनी।

अमुअन डार पर झूला, झूलत प्यार ले सजनी।

यह सब देखना चाहूँ, चाहत दे मुझे माता-

जाऊॅं पिया घर सजके, पहनकर पायलें बजनीं।।88।।

तुम्हारे दर्द के झरने, गाते गीत थे मुझसे।

सुन कुछ अनबुझीं बातें, पूँछूँ आज मैं तुमसे।

विकट संसार में जीना, कैसा क्या बताओगी?

बसेरा दानवो का यहाँ, अनेकों प्रश्न यौं, तुझसे।।89।।

जी सकी हो किस तरह, इन भेड़ियों के घर।

खून से चैराहे लथपथ, काँपता है उर।

घूमते ये राजपथ पर, देखते है सब-

कह सके नहिं कोई उनसे, ऊॅंचा उठाकर कर।।90।।

हैं गली गमगीन कितनी? खौंफ का साया लिये।

रास्ते भी मौन, गुम है, खाश्ता में ज्यौं जिये।

बीहड़ों, पगडण्डियों की, बात मत पूँछो अभी-

किस तरह जीतीं, सम्भाले गूदड़ी अपनी लिये।।91।।

सुबह का होना, किसी ने आज तक जाना नहीं।

शाम के उस धुँधलके में, कौन क्या गाता कहीं।

कोई चिड़िया नहीं फड़कती, पेड़ की उस डाल पर-

यौं लगे, दुनिया है सूनी, कोई दुनिया है नहीं।।92।।

शेर-गीदड़ बन गए है, और गीदड़ शेर हैं।

है नहीं कोई किसीका, देर है-अॅंधेर है।

व्यवस्था का ढोल, कोरा पिट रहा है अब यहॅं-

किस तरह जीवन जियें अब, समय का ये फेर है।।93।।

समझ में आता नहीं है, कौन किसका मीत है।

इस तरह की आज दुनिया, सभी तो भयभीत है।

है कठिन घर से निकलना, और घर के बीच भी-

न्याय की औकाद ओछी, अन्याय की ही जीत है।।94।।

कहानी खूब कहती तुम, जिन्हें मैं उदर में सुनती।

तुम्हारे दर्द की इस धार को, मैं खूब ही गुनती।

पिता को नही पता जिसका, छिपा संबाद था तेरा-

इस तरह जिंदगी की तूँ, सदाँ सदरी रही सिलती।।95।।

छली गई राह में चलते, दरिंदों ने तुझे घेरा।

कितनी क्या आबाजों में, उन्होंने तुम्ही का टेरा।

अनसुनी कर, चलीं पथ पर, रूईंयाँ कान में देकर-

कठिन था जिंदगी जीना, जटिल था समय का घेरा।।96।।

कहीं था घास में जीवन, कहीं झाड़ी घनेरी थीं।

कहीं पत्थार की खानें भी, कहीं माटी की ढेरी थी।

भूँखे पेट की सिकुड़न, न जाने ले गई कहाँ-कहाँ-

कठिन जीवन की पगडण्डी, घनी रातें अॅंधेरी थी।।97।।

फैला जाल था उनका, किधर जाऐं कहाँ जाऐं।

दिखते भले थे, लेकिन दरिंदे रूप बन जाऐं।

सुनता कोई नहीं, सुनकर, किनारा ही सभी करते-

हिंसक, खून प्यासों की, आफत कौन सिर लाऐ।।98।।

कितने हाथ जोड़े थे, की थी मिन्नतें कितनी।

हा-हा खूब ही खाईं, लड़ी भी, शक्ति थी जितनी।

मगर वे यौवनी डाढ़ें, किसीकी नहीं सुनती थी-

किस तरह कितना चीथा था, निशानी हैं अमिट इतनी।।99।।

छली गईं यौं कहाँ कितनी, सपने आज रोतीं हो।

छिपा कालिख भरा चेहरा, अॅंधेरे में ही सोतीं हो।

कभी शादी के पहले ही, कभी शादी की दुनिय़ाँ में-

कालिखौं से भरा जीवन, उसाँसें लेते, जीतीं हो।।100।।

रातें कालिखों की घेरती, तब चेतना भटके।

खड़ी होती दुराहों पर, उदर का बोझ ये खटके।

जीवन-मौत के द्वारे, लगे उपहास के डेरे-

यहीं भटका कभी जीवन, फोड़े विष भरे मटके।।101।।

फैंके कभी झाड़ी में, कभी नाले बहाए है।

कभी कूड़ा के ढेर में, कभी गड्डों दबाए है।

कभी तो राह में छोड़े, कभी सुनसान साए में-

मदद ली वैद्य की यूँ ही, समय ऐसे बिताए है।।102।।

कितने पी लिए आंसू, कितने बह गए विस्तर।

कितने सूखे गालों पर, कितने जी लिए हॅंसकर।

हमारी जिंदगी गाथा, हमीं ने जान पाई बस-

कहीं भी हक नहीं मिलता, सुनाऐं कौन से दफ्तर।।103।।

उदर से प्यार तो होता, मगर संसार का है डर।

उदर में जो छिपा कुछ भी, वही तो प्यार का है घर।

चाहती प्यार को दें, प्यार का संसार, दिल देकर-

ये दुनिया ही दुरंगी है, इसमें जीवन है दुर्भर।।104।।

हमाही बहनिय़ाँ भी तो, नहीं देतीं सहारा है।

हमारी कौम है ओछी, हमें बदतर निहारा है।

अगर ये साथ दे जाऐं, मरद किस खेत की मूली-

हमारी सब अमानत हों, तो सब कुछ ही हमारा है।।105।।

अरे! संतान अपनी से, किसे नहीं प्यार होता है।

सभी कुछ वैद्य इस उर में, जमाना यौं ही रोता है।

गुलामीं कब तलक झेलें, हमें आजाद होना है-

बंधन मुक्त हो जीवन, तो सब कुछ, आप होता है।।106।।

रोना इस तरह सुनकर, उदर में लाड़ली बोली।

नहीं घवराओ, ओ! माता, संभालो अपनी चोली।

तुम्हारे सम्भल जाने से, जमाने को मिले राहत-

समय को साथ दो माता, हमें ले-लो जरा ओली।।107।।

हिम्मत हृदय में लाओ, जमाने की नहीं सुनना।

चलो नहिं और की राहों, अपनी राह खुद चुनना।

हल्का सोच मानव का, समझता भार बेटी को-

तुम्हारा ही सहारा है, हमारी जिंदगी बुनना।।108।।

बना लो संगठन अपना, शक्ति-संगठन होती।

बदल लो सोच ही अपना,उगाने चल पड़ो मोती।

जमाना भाड़ में झोंको, जगालो शक्ति अपनी को-

ये दुनिया दूर ही होगी, जलाओ हृदय की ज्योति।।109।।

कैसे भूल जातीं हो, उदर की पीर को क्षण में।

कायर हो के रोतीं हो, अजी क्यों जिंदगी रण में।

यही सब सोचना होगा, हमारी बात कुछ सुन लो-

करो तो सजग अपने को,भटकतीं क्यो हो तम वन में।।110।।