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बुद्ध का दर्शन

बुद्ध का दर्शन

यह संसार कुछ महापुरुषों के बताए रास्ते पर चलता है। उन महापुरुषों ने अपने जीवन से समस्त मानव जाति को एक नई राह दिखाई। उन्हीं में से एक महान विभूति गौतम बुद्ध थे, जिन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से जाना जाता है। दुनिया को अपने विचारों से नया मार्ग (मध्यम मार्ग) दिखाने वाले महात्मा बुद्ध भारत के एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। भारतीय वैदिक परंपरा में धीरे-धीरे जो कुरीतियाँ पनप गईं थी, उन्हें पहली बार ठोस चुनौती महात्मा बुद्ध ने ही दी थी।

विश्व के 100 महापुरुषों में प्रथम स्थान प्राप्त विश्वगुरु शाक्यमुनि तथागत भगवान गौतम बुद्ध जी की जयंती त्रिविध पावनी बुद्ध पूर्णिमा के रूप में देश में मनायी जाती है। भगवान गौतम बुद्ध का जन्म, सत्य का ज्ञान और महापरिनिर्वाण एक ही दिन यानी वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुआ। इस कारण वैशाख महीने में पूर्णिमा के दिन ही बुद्ध पूर्णिमा मनायी जाती है।

बुद्ध ने वैदिक परंपरा के कर्मकांडों पर कड़ी चोट की किंतु वेदों और उपनिषदों में विद्यमान दार्शनिक सूक्ष्मताओं को किसी-न-किसी मात्रा में अपने दर्शन में स्थान दिया और इस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक विरासत को एक बने-बनाए ढर्रे से हटाकर उसमें नवाचार की गुंजाइश पैदा की। मध्यकाल में कबीरदास जैसे क्रांतिकारी विचारक पर महात्मा बुद्ध के विचारों का गहरा प्रभाव दिखता है। डॉ अंबेडकर ने भी वर्ष 1956 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था और तर्कों के आधार पर स्पष्ट किया था कि क्यों उन्हें महात्मा बुद्ध शेष धर्म-प्रवर्तकों की तुलना में ज़्यादा लोकतांत्रिक नज़र आते हैं। आधुनिक काल में राहुल सांकृत्यायन जैसे वामपंथी साहित्यकार ने भी बुद्ध से प्रभावित होकर जीवन का लंबा समय बुद्ध को पढ़ने में व्यतीत किया।

बुद्धत्व प्राप्त करने के पहले उनका नाम सिद्धार्थ था। वे राजकुमार थे। उन्होंने जीवन में दुख का कोई दृश्य तक नहीं देखा था। ऐसा लगता है कि कपिलवस्तु का राजप्रसाद उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। पिता शुद्धोधन ने तो जैसे उनके महल में दुःख का प्रवेश ही वर्जित कर रखा था। पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल के लिए वे सर्वस्व थे। कहीं कोई कमी नहीं थी। जीवन में मृत्यु, बीमारी, बुढापा आदि का दृश्य देखा तो इस जीवन से उन्हें वितृष्णा हुई। व्यक्ति के जीवन में कभी-कभी वैराग्य आता है। सांसारिक सुखों से मन उचट जाता है। अतः सुखों के अखंड सागर-विस्तार को छोड़कर राजकुमार सिद्धार्थ दुख-निवारण की तलाश में निकल पड़े। कठोर तपस्या से बात नहीं बनी। तब उन्हें संसार के ‘सम्यक’ रूप का ज्ञान हुआ। संसार चमत्कृत हुआ। ज्ञान और दर्शन की क्रांति हुई। बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें ‘परमज्ञान’ की प्राप्ति हुई। उन्हें दुःख का साक्षात्कार हुआ था। इसके बाद जगत को चार आर्य सत्य की प्राप्ति हुई और यही बुद्ध दर्शन का मूल है।

दुखका अस्तित्व है। दुख के कारण है। दुख का निवारण हो सकता है। निवारण का मार्ग है। सोचने वाली बात है कि आज से लगभग 2600 वर्ष पहले इस सत्य की स्थापना की गयी। यह सत्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। यदि समस्या को स्वीकार करें, सही दृष्टि हो, संकल्प और कर्म से लेकर अतीत के प्रति सही स्मृति हो तो कौन सा ऐसा दुख है, जिससे निवाण प्राप्त करके समाधि की पूर्णता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। दृष्टि के सम्यक या सही होते ही आगे जाने का रास्ता खुल जाता है। सम्यक संकल्प,सम्यक वाक्य, सम्यक कर्म। सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम और सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि से निर्वाण संभव है। इन आठ मार्गों का पालन करना आवश्यक है। इनके पालन से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और ज्ञान का उदय होता है। बौद्ध-साधना में साधक ध्यान आदि के लिए किसी न किसी आसन का प्रयोग करता ही है। स्वयं भगवान बुद्ध की मूर्ति पदमासन में पाई जाती है । अष्टांग मार्ग को 'काल चक्र' कहते हैं। अर्थात समय का चक्र। समय और कर्म का अटूट संबंध है। कर्म का चक्र समय के साथ सदा घूमता रहता है। आज जो व्यवहार है वह बीते कल से निकला हुआ है। कुछ लोग हैं जिनके साथ हर वक्त बुरा होता रहता है तो इसके पीछे कार्य-कारण की अनंत श्रृंखला है। दुःख या रोग और सुख या सेहत सभी हमारे पिछले विचार और कर्म का परिणाम हैं। भगवान बुद्ध इसी दुखों से छुटकारा पाने के लिए अष्टांग – मार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। इन मार्ग पर चलकर मोक्ष को प्राप्त किया जा बुद्ध के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘आत्म दीपो भवः’ अर्थात ‘अपने दीपक स्वयं बनो’। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या नैतिक-अनैतिक प्रश्न का निर्णय स्वयं करना चाहिये। यह विचार इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में एक छोटे से बुद्धिजीवी वर्ग के एकाधिकार को चुनौती देकर हर व्यक्ति को उसमें प्रविष्ट होने का अवसर प्रदान करता है।

इनके विचार को ‘मध्यम मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। सूक्ष्म दार्शनिक स्तर पर तो इसका अर्थ कुछ भिन्न है, किंतु लौकिकता के स्तर पर इसका अभिप्राय सिर्फ इतना है कि किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिये।

उनके विचारों में ‘संवेदनशीलता’ है। यहाँ संवेदनशीलता का अर्थ है दूसरों के दुखों को अनुभव करने की क्षमता। वर्तमान में मनोविज्ञान जिसे समानुभूति कहता है, वह प्रायः वही है जिसे भारत में संवेदनशीलता कहा जाता रहा है।

वे परलोकवाद की बजाय इहलोकवाद पर अधिक बल देते हैं। गौरतलब है कि बुद्ध के समय प्रचलित दर्शनों में चार्वाक के अलावा लगभग सभी दर्शन परलोक पर अधिक ध्यान दे रहे थे। उनके विचारों का सार यह था कि इहलोक मिथ्या है और परलोक ही वास्तविक सत्य है। इससे निरर्थक कर्मकांडों तथा अनुष्ठानों को बढ़ावा मिलता था।

बुद्ध ने जानबूझकर अधिकांश पारलौकिक धारणाओं को खारिज किया। वे व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं। अहंकार का अर्थ है ‘मैं’ की भावना। यह ‘मैं’ ही अधिकांश झगड़ों की जड़ है। इसलिये व्यक्तित्व पर अहंकार करना एकदम निरर्थक है।

उनके विचार ह्रदय परिवर्तन के विश्वास से संबंधित है। बुद्ध को इस बात पर अत्यधिक विश्वास था कि हर व्यक्ति के भीतर अच्छा बनने की संभावनाएँ होती हैं, ज़रूरी यह है कि उस पर विश्वास किया जाए और उसे समुचित परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ।

अतः अंत में बुद्ध पूर्णिमा के दिन सम्यक या सही करने के लिए हम सब उनके आदर्शों पर चलते हुए प्रकृति का जो दोहन मानव ने किया है, उसे सुधारने का विनम्र प्रयास पौधारोपण कर सकते हैं। इससे प्रकृति में हरियाली फिर से आएगी तथा सही अर्थों में हम बुद्ध को जान सकेंगे।