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बुंदेलखंड का सैर साहित्य

बुंदेलखंड में परिनिष्ठित साहित्य रचना के साथ ही लोक साहित्य की भी समृद्ध परंपरा रही है। साहित्य के यह दोनों रूप यहां समानांतर की स्थिति में ही सहवर्ती नहीं रहे हैं बल्कि कथ्य और भाषा के अनेक अनेक प्रयोगों में उनमें परस्पर अन्तरभुक्ति है। काव्य विषय की चेतना चाहे वह शास्त्रीय परंपरा से ग्रहण की गई हो अथवा समकालीन समाज से , उसकी अभिव्यक्ति बुंदेलखंड में साहित्य के इन दोनों रूपों में हुई है । लोक रचनाकार भी उसे अपने माध्यम से व्यक्त करते रहे हैं और परिनिष्ठित रचनाकार भी । प्रायः यह मान लिया जाता है कि लोक रचनाकारों को संवेदना का परिदृश्य और उनकी अभिव्यक्ति के उपकरण सीमित होते हैं। अतः उसमें समय के संदर्भ प्रायः अनुपस्थित होते हैं। यह धारणा किस तरह गलत है इसका प्रमाण हमें व्यापक साहित्य पढ़ने से तो मिल ही जाता है, बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में रचे गए बुंदेलखंड के साहित्य से अधिक प्रत्यक्ष हो जाता है । इस अवधि में ऐसे अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने परिनिष्ठित साहित्य के साथ ही लोक रूपों में भी काव्य रचना की है ।
शिशु जन्म, देव-पूजन,पर्वो और विवाहादि उपलक्ष्यों से जुड़े पारंपरिक लोक गीतों के अतिरिक्त लोक से जुड़ा बहुत सा काव्य ऐसा है जो अपने समय के प्रख्यात कवियों द्वारा रचित है । लोकास्वादन और लोक गायन से जुड़ी इन काव्य विधाओं में ख्याल, लावणी, भाग और सैर अधिक प्रचलित रही हैं। प्रस्तुत लेख में बुंदेलखंड के छतरपुर, झांसी, मऊरानीपुर, गुरसराय आदि स्थानों में सैर काव्य की प्रमुख रचना और उसकी प्रतियोगिताओं के कुछ प्रसंगों का परिचय दिया जा रहा है । सैर काव्य की रचना बुंदेलखंड के अन्य स्थानों पर भी होती रही है किंतु झांसी , मऊरानीपुर और छतरपुर इसकी प्रतियोगिताओं के प्रमुख केंद्र रहे हैं । इन प्रतियोगिताओं को दंगल और फड़ भी कहा गया है और डॉक्टर गणेशी लाल बुधौलिया ने इसे फड़ साहित्य कहा भी है और फड़ साहित्य की अन्य विधाओं के साथ सैर काव्य की प्रतियोगितात्मक परंपरा का विस्तार से वर्णन भी किया है।(1)
हिंदी कविता का प्रसार और संवर्धन हर साहित्य के रूप में भी बहुत हुआ है । फड़ साहित्य का अर्थ है विभिन्न काव्य दलों के द्वारा प्रतियोगिता के रूप में प्रस्तुत साहित्य। इन प्रतियोगिताओं में सैर, ख्याल, फाग ,मंज, तड़ाका आदि लोक काव्य विधाओं के दंगल हुआ करते थे । इस क्षेत्र के झांसी, मऊरानीपुर, छतरपुर और गुरसराय नगरों में ख्याल और सैर सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित होते रहे हैं । कालांतर में प्रसिद्ध कवियों के आश्रय में यहां सैर-काव्य को ही प्रमुखता मिली।
प्रारंभ में छतरपुर में गंगाधर व्यास तथा परमानंद पांडे के और मऊरानीपुर में दुर्गा पुरोहित के काव्य मंडल थे। उनकी मृत्यु के पश्चात मऊरानीपुर के घासीराम व्यास छतरपुर के दल के लिए सैर काव्य लिखने लगे और दुर्गा पुरोहित के दल को पण्डित घनश्याम दास पाण्डेय का आश्रय मिला। इसी समय झाँसी में श्री नाथूराम माहौर के आश्रय से माहौर मण्डल चलने लगा। पहले विभिन्न काव्य दलों में प्रतियोगिता के रूपमें पद्माकर, पजनेस आदि कवियोँ के छन्द सुनाए जाते थे।इनमे प्रमुखतया नायिका वर्णन ,ऋतु वर्णन और विभिन्न पर्वोत्सवो से सम्बंधित विषयो का समावेश होता था। जब इन काव्य दलों को गंगाधर व्यास, घनश्याम पाण्डेय , नाथूराम माहौर और घासीराम व्यास का संरक्षण प्राप्त हुआ तो अन्य कवियों के स्थान पर स्वयं इन्ही कवियों के छन्द पढ़े जाने लगे। मऊरानीपुर में वर्षा काल में पावस गोष्ठियां हुआ करती थी जिनमें विभिन्न संदर्भों में वर्षा, झूला और जलविहार पर काव्य पाठ होता था । इन प्रतियोगिताओं में एक दल जिस विषय का छंद सुनाता था दूसरे दल को उसका उत्तर उसी विषय पर देना पड़ता था। छंदों के भाव और कला-सौष्ठव के आधार पर जय पराजय का निर्णय होता था। कवित्त-सवैया छन्दों की यह काव्य प्रतियोगिता परंपरा बहुत समय तक चलती रही । बाद में इन प्रतियोगिताओं का रूप सैर सम्मेलन ने ले लिया ।

सैर लोक गायकी का रूप है, परंतु बुंदेलखंड के इस अंचल में व्याप्त राजनीतिक चेतना से और श्रेष्ठ कवियों के संपर्क से उसे भाव और कला दोनों स्तरों पर साहित्यिक रूप प्राप्त हुआ। सन् 1930-31 में स्वाधीनता आंदोलन की उत्कटता के समय से सैर सम्मेलनों में राष्ट्रीय विषयों पर सैरें गाय जाने लगी। उस समय में जलियांवाला बाग, बारडोली सत्याग्रह , भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपत राय, तिलक, गांधीजी ,जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल तथा छत्रसाल , गुरु गोविंद सिंह , शिवाजी और झांसी की रानी पर राष्ट्रीय सैरें लिखी जाने लगी। वर्षा ,शरद, जलविहार विजयदशमी, रामनवमी आदि विभिन्न पर्वों का वर्णन भी राष्ट्रीय संदर्भ में किया जाने लगा। इनके अतिरिक्त पारंपरिक विषयों में नायिका वर्णन, प्रकृति चित्रण तथा अन्य स्वतंत्र विषयों पर भी शायरी लिखी जाती रही ।
सैर का रचना विधान बिहारी छंद पर आधारित है। इस मात्रिक छंद में 21 मात्राएं होती हैं । सैर को स्वयं ही छन्द कहा जाने लगा। मदन मोहन द्विवेदी मदनेश ने लक्ष्मीबाई रासो के छठवें विभाग में इसे सैर छंद ही लिखा है- इतिश्री बाई लक्ष्मी राय छै विरचित सिहर छन्दानुसारेन पत्रगमनागमन नाम षष्ठ भाग संपूर्ण शुभम भवतु मि. पा.कृ. संवत 1961(2)
उन्होंने सैर की एक काव्य इकाई में एक दोहा, बिहारी छंद में दो चरणों की टेक और फिर उसी क्षण में आठ-आठ पंक्तियों के चार संपद रखे हैं। आठवी,सोलहवीं,चौबीसवीं और बत्तीसवीं पंक्ति टेक की है। सैर के अनेक रूप प्रचलित रहे हैं , परंतु बाद में प्रायः सर्वमान्य रूप में एक दोहा और सैर के सोलह चरण रखे जाने लगे। यह सोलह चरण चार इकाइयों में विभाजित रहते हैं। हर इकाई का अंतिम चरण वही रहता है जो टेक का काम देता है। कभी सैर में एक दोहा,एक सोरठा ,चार चरणों का एक छन्द और फिर सोलह चरण भी रखे जाते हैं । सैर को राधिका छन्द भी कहा गया है।

पहले छतरपुर में गंगाधर व्यास और परमानंद पांडे के सैर मंडल थे। इनमें प्रायः प्रतियोगिता होती रहती थी ।कभी-कभी तो काव्य प्रतियोगिता फौजदारी का रूप ले लेती थी ।इसलिए तत्कालीन छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह ने एक लिखित आदेश दिया था कि यह दोनों दल कभी एक साथ नहीं बैठेंगे ।उसी समय मऊरानीपुर में दुर्गा पुरोहित का मंडल था। झांसी में भग्गी दाऊजी श्याम बड़े अखाडिया कवि थे बाद में मऊरानीपुर में घनश्याम पांडे और घासीराम व्यास तथा झांसी में नाथूराम माहौर के अलग-अलग मंडल हो गए । सैर सम्मेलनों का रूप बहुत रोचक होता था ।प्रायः 8-9 बजे रात से प्रारंभ होकर यह सम्मेलन दूसरे दिन 9-10 बजे तक चलते रहते थे ।विभिन्न दलों में प्रतियोगिता के कारण श्रोताओं को विशेष आनंद मिलता था शे।र सम्मेलनों के लिए विषय प्रायः पूर्व निर्धारित होते थे ।सामान्यतः प्रचलित विषयों का प्रत्येक मंडल के पास पहले से ही रचनाएं तैयार रहती थी ।कभी-कभी किसी विषय पर उत्तर देने के लिए यदि सैर तैयार नहीं होती थी तो उसी समय उनकी रचना बना ली कर ली जाती थी। एक दल एक बार में लगातार चार से रहेगा तथा इस अंतराल में अन्य पार्टी को तत्काल रचना करने का अवसर मिल जाता था ।
एक अवसर पर मऊरानीपुर में घासीराम व्यास गंगाधर व्यास की पार्टी की ओर से शहर में प्रस्तुत किया गया- अम्मा को मिली चूड़ामणि किससे बताऊं इस में ही हार जीत जीत आज मनाना मनाना।

दुर्गा पुरोहित का उस समय स्वर्गवास हो चुका था। उनके शिष्य बोधन सुनार के पास उत्तर तैयार नहीं था । वह अविलंब प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ पंडित गणपत चौबे के पास गए और चूड़ामणि की उतपत्ति पूछ आये।चौबे जी ने बताया इसकी उत्पत्ति क्षीरसागर से हुई है। बोधन सुनार ने लौटकर तुरंत एक सैर लिख डाली ।
जब पुरोहित जी के दल की ओर से बेहतर पढ़ी गई तो गंगाधर व्यास के दल के रामदास दरजी खड़े होकर बोले -यदि चूड़ामणि की उत्पत्ति जी सागर से हुई है तो हम दंगल में अपनी पराजय स्वीकार कर लेंगे।
बोधन सुनार को चौबे जी की मित्रता का बल था ।उन्होंने भी चुनौती स्वीकार करते हुए कहा कि अगर यह सत्य ना हो तो हम हार मान लेंगे ।
वास्तव में दोनों ही पक्ष अपने-अपने अभिप्राय में सही थे। रामदास दर्जी का प्रश्न था कि सीता को चूड़ामणि कहां से मिली। तो वे उन्हें अनुसूया से प्राप्त हुई थी। बोधन सुनार ने हड़भड़ाहट में सीता जी का संदर्भ छोड़कर चूड़ामणि की मूल उत्पत्ति का स्रोत ढूंढ लिया था।
जहां तक रामदास दर्जी के ज्ञान की पहुंच नहीं थी ।गंगाधर व्यास दोनों का आशय समझ रहे थे। उन्होंने रामदास दर्जी को शांत किया, परंतु फिर उस दिन आवेश बढ़ जाने के कारण सम्मेलन आगे नहीं चला। दूसरे दिन पंडितों ने लिखित प्रमाण दिए कि चूड़ामणि की उत्पत्ति क्षीरसागर से हुई थी ।
इन सैर सम्मेलनों में सिद्ध कवियों की प्रतिभा के द्वारा उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुई है।
कुशवाह एक रुप से भी और प्रतियोगिता की भावना के कारण सैरों में इन कवियों की कल्पनाशीलता सूझबूझ , उक्ति चातुर्य और कलात्मकता का श्रेष्ठ रूप प्रकट हुआ है ।
प्रतियोगिता की भावना के कारण प्राय ऐसी रचनाएं की जाती थी। जिन से बढ़कर भाव की दृष्टि से विरोधी दल सैर ना पढ़ सके । कभी-कभी सैरों में प्रहेलीका का प्रयोग किया जाता था । अनुत्तर की स्थिति में उस दल की पराजय मान ली जाती थी ।
घनश्यामदास पांडेय और नाथूराम माहौर के मंडलों में सैर प्रतियोगिताएं बहुत हुई हैं। नरोत्तमदास पांडेय मधु भी पांडेय मंडल के लिए सैर लिखा करते थे। घासराम व्यास का भी मऊरानीपुर में दल था, परंतु पांडेय मंडल के साथ प्रतियोगिता होने पर व्यास जी का दल और माहौर मंडल प्रायः सम्मिलित रहते थे।
सैर-सम्मेलन मऊरानीपुर में जल विहार के अवसर पर और झांसी में तुलसी जयंती पर होते ही थे । वर्ष में अनेक बार अन्य उपलक्ष्य में भी आयोजित किए जाते थे ।यह साहित्यिक प्रतियोगिता कभी-कभी साहित्य कला से च्युत होकर व्यक्तिगत आरोपों और प्रत्यारोपों में बदल जाती थी । तब माहौर के विष और महावर तथा घनश्याम के बादल और कृष्ण अर्थ लेकर एक-दूसरे पर कटु व्यंग किए जाते थे। ऐसी सैरो में प्रायः अपने नाम की छाप ना देकर मंडल के अन्य लोगों का नाम दे दिया जाता था। पांडे जी ने ऐसी शहरों में शत्रुघ्न पुजारी तथा प्राण दास के नाम दिए हैं । इनका कवियों के में कवियों के पारंस्परिक व्यवहार में कटुता नहीं आती थी ।माहौर जी जब भी मऊरानीपुर आते थे घनश्यामदास पांडे के यहां अवश्य जाते थे तथा उनके प्रति आदर प्रकट करते थे।

इन प्रतियोगिताओं के संदर्भ में डॉक्टर भगवानदास माहौर ने श्री नाथूराम मांहोर अभिनंदन ग्रंथ में जो वर्णन किया है उसका स्पष्ट आशय है कि कवित्त, सवैया और शहरों को प्रतियोगिताओं में आक्रमण की चाल हमेशा पांडेय-मंडल की ओर से हुआ करती थी और माहौर जी की रचनाएं केवल उत्तर के रूप में पढ़ी जाती थी। उन्होंने यह भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि माहौर जी ने सदैव सटीक उत्तर दिए ।यद्यपि डॉक्टर माहौर ने बाद में यह स्वीकार किया है कि यह कहने से पंडित घनश्याम दास पांडे जी पर ही पड़ता है। यहां डॉक्टर माहौर संबंधजनित पूर्वाग्रह के कारण तटस्थता से विचलित हो गए हैं ।श्री नाथूराम माह और उनके मामा थे ।
उनके वर्णन से ऐसा भी प्रतीत होता है कि घासीराम व्यास और घनश्यामदास पांडेय के मंडल एक साथ थे ।वास्तविकता यह है कि वास्तविकता यह है कि व्यास जी का दल और माहौर जी का दल सम्मिलित रूप से पांडेय मंडल के विरुद्ध प्रतियोगिताओं में उतरता था । वह स्वयं स्वर्गीय नाथूराम माहौर के पत्र से स्पष्ट है। उन्होंने मऊरानीपुर के श्री हलकाई को पत्र में लिखा था -आप किसी बात की चिंता ना करना खूब अच्छी तरह से उनके साथ फड़बाजी करना है जो ख्याल जी से सेल दिखाने की कोशिश करना । मैं लश्कर से आकर सैर आपकी सेवा में जैसे आप चाहते हैं वैसे ही भेजूंगा यदि हो सका तो मैं स्वयं हाजिर होऊंगा।(5) इस पत्र में माहौर जी ने कुछ सैर भी लिखी हैं, जिनमें माहुर (महावर और विष) की प्रशंसा की है ।एक सैर में अन्योक्ति का व्रत लेकर घनश्याम की निंदा की गई है -
अन्योक्ति के कहने को माहौर ने व्रत कियो
घनश्याम की बहन ने घनश्याम पति कियो।
यहां तथ्य की दृष्टि से कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है। अनेक अवसरों पर सैर सम्मेलनों का निमंत्रण लेकर झांसी से कोई व्यक्ति एक या दो दिन पहले आता था। जब पांडेय जी की ओर से यह कहा जाता था कि समय बहुत कम है तो तर्क पूर्ण आग्रह किया जाता था कि प्रतियोगिता की घोषणा कर दी गई है और चंदा भी एकत्र कर लिया गया है । इतना अल्प समय इसलिए दिया जाता था जिससे पांडेय जी का दल पूरी तरह तैयारी ना कर सके ।तब घनश्यामदास पांडेय और उनके पुत्र नरोत्तमदास पांडेय की रचना क्षमता निर्झरिणी की तरह प्रभावित होने लगती थी । तब एक दिन में साठ सैर तक लिखी गई। चार लोग लिपिकार होते थे ।जब तक वह अपनी-अपनी सैरे उतारते तब तक उन्हें पिता -पुत्र दूसरी सैर लिख देते थे।
झांसी में सैर सम्मेलन चल रहा था मेहंदी विषय पर सैर पढ़ी जा रही थी । इस विषय पर पांडेय जी की पार्टी बहुत भाव पूर्ण सैरें पढ़ रही थी। माहौर जी के दल ने विषय बदला "माहूर समक्ष मेहंदी को रंग भंग है !" यह विषय परिवर्तन भी था और पांडेय मंडल पर व्यंग भी था।" मधु" ने तुरंत उत्तर लिखा -"घनश्याम भलो माहुर को मजा बिगारो । श्रोताओं ने इस उत्तर की बहुत प्रशंसा की ।
मऊरानीपुर के एक सम्मेलन में जिसमें माहौर जी स्वयं उपस्थित थे, उनकी पार्टी ने छत्रसाल की तलवार पर एक सैर पढ़ी ।पड़ी इसमें एक ही नायिका के लक्षणों का आरोप किया गया था । मधु ने तुरंत उत्तर तैयार किया।
छत्रसाल की तलवार पर नौ नायिकाओं के लक्षणों का भावपूर्ण आरोप किया गया है ।एक अन्य शहर में तत्काल रचित है -
है सैर नरोत्तम की उछाल की।
कुंतल समान घूमे ऐसी छत्रसाल की।

इसमें मधु के आसुकवित्व का परिचय मिलता है । विशेषता यह है कि उनकी शहरों में का विपक्ष भी बहुत समृद्ध है।
घनश्याम दास पांडेय को यह सैर माहौर के दल को दिया गया उत्तर है अपनी ओर से रखा गया प्रश्न नहीं। माहौर जी की ओर से प्रश्न किया गया कि वर पूजन ( वट वृक्ष के पूजन )में नायिका संकोच क्यों कर रही है । इसका उत्तर मुग्धा नायिका के लक्षणों के आधार पर दिया गया -
मुग्धा पतिव्रता है है वयस सयानी
प्रतिपक्ष की ओर से समस्या प्रस्तुत की गई कि पूर्णमासी की रात में नायक नायिका के मुख को चंद के समान कहता है तो नायक का खींचकर भीतर क्यों चली जाती है। पांडेय दल की ओर से उत्तर दिया गया-
हंस रही कुमोदिनी है शशि की प्रभा लखात।
चढ़ अटा एक दंपति छवि देखत अनदात।
पति शशि सो मुख तिय को कहें नारी रिसयात।
सुन लेहु हेतु पिय तज तिय घर में घुस जात।।
उत्तर में कहा गया कि नायिका -नायक से मानपूर्वक कहती है कि मेरे मुक्ति चंद्रमा के समान मुख को चंद्रमा के समान क्यों कहते हो। चंद्रमा तो कलंकी है ।वह घटता बढ़ता भी रहता है। इतने में ही एक सखी कहती है कि तुम्हारे निष्कलंक मुक को देखकर राहु वास्ते चंद्रमा को छोड़कर उसे ही ग्रस्त कर लेगा। इसलिए नायिका घर के भीतर चली जाती है ।
प्रतिपक्ष की ओर से प्रश्न किया गया कि वसंत ऋतु में गुलाब को क्यों सींचा जा रहा है । "मधु "ने सुरत प्रिया नायिका का हेतु लेकर कवि-सिद्धि के आधार पर उत्तर दिया -
जो हो बसंत में गुलाब तरु का सिंचन।
उसमें ना फूलते तो उस वर्ष पुष्प गन।। बतलाते हैं कान लगा सुनो सभा जन। मधुमास में गुलाब सीचने का कारण।।(9)
रतिप्रिया नायिका को आशंका है कि खिलते हुए गुलाब के फूलों की चटकन को सुनकर प्रातः काल का आभास पाकर प्रिय जाग उठेगा और प्रिया के सदन से चला जाएगा। कवि सिद्धि के अनुसार वसंत ऋतु में गुलाब को सींचने पर उस वर्ष फूल इस में फूल नहीं लगते । जब फूल ही नहीं लगेगे तो चटकन की ध्वनि भी नहीं होगी। " प्रातहिं जगावत गुलाब चटकारी दे" में इस सूक्ष्म ध्वनि को सुना गया है। इसी प्रश्न का उत्तर मालिन के संदर्भ में भ्रम अलंकार के प्रयोग से भी दिया गया है-
भ्रम माहि भ्रमी भोरी दृग खोले मीचे।
न छुअत तिन्हें भीति मान जिय के बीचे।
तिनको बुझायबे फिर जलधार उलीचे।
मालिन बसन्त में गुलाब या से सीचें (10)

इन प्रतियोगिताओं में समस्याएं दोनों पक्षों की ओर से प्रस्तुत की जाती थी ।इसी में सैर सम्मेलनों की रोचकता और सजीवता थी । प्रश्न उपस्थित करने और किसी प्रश्न का उत्तर देने में कभी सिद्धियों तथा काव्य शास्त्र का ज्ञान, विविध लोकानुभव और आंसू कवित्व की आवश्यकता पड़ती थी । कल्पनाशीलता और अनोखी सूझ का प्रयोग इन सैरों के प्रभाव में सहायक होता था ।पांडेय जी के सैर काव्य को देखने से पता चलता है कि उनकी ओर से भी प्रश्न उपस्थित किए गए हैं -
मस्तक सौ नहीं बार सिर ऋषि मुख रसना चार ।
दस हजार है पाँव सो कहो कौन वो नार।।
को पानी हाथ भर को भेद ख़ौलो ज्ञानी।
है शरद पूर्णिमा में निज साज संवारा।
यह दृश्य देख रमणी ने पति से उचारा।
तुम शशि न लखो में न लखू नभ में तारा।
घनश्याम कहो हेतु ज्ञान लखें तुम्हारा
शारदीय चंद निकसो छबि छा रही गगन।
तिहि निरख रहे दंपति अति प्रेम भरे मन।। शशि में है कौन बैठो यह पति के पूतन। हाथों में पिया ढांक लेत प्रिय को आनन।। घनश्याम कहो कौन नायिका करो मनन।।

आचार्य घनश्यामदास पांडे हिंदी संस्कृत के उद्भव विद्वान थे । चार-पांच भाषाओं के ज्ञान के साथ उनका काव्य शास्त्र, दर्शन, ज्योतिष आदि विषयों पर असाधारण अधिकार था। उनके प्रश्नों में उनकी बहूज्ञता की झलक है ।
कभी-कभी वह प्रतिपक्षी को निरुत्तर करने के लिए गंभीर समस्या रख देते थे-
घनश्याम भेद पूछत साहित्य प्रधानी।
ध्वनि अविवक्षित वाक्य भेद कहो वखानी

अब ध्वनि का अविवक्षित वाक्य भेद तो वही बता पाएगा जिसने ध्वनि के आचार्य आनंद वर्धन को पढ़ा हो। साहित्य का पाठ्यक्रमीय अध्ययन करने वाले भी वहां तक नहीं पहुंच पाते। यह तो इन प्रतियोगिताओं का एक रूप था ।इसमें जब व्यक्तिगत आक्षेप होने लगे तो मैथिलीशरण गुप्त ने माहौर जी औऱ पांडेय जी को अलग-अलग पत्र लिखकर आग्रह किया था कि वे अपनी काव्य प्रतिभा का इस प्रकार अपव्यय ना करें। गुप्त जी, पांडे जी और माहौर जी समव्यस्क थे।
विषय की दृष्टि से सैर काव्य में पर्याप्त वैविध्य है । उसमें राष्ट्रीयतापरके सैर की प्रधानता है । इन सम्मेलनों के उपलक्ष से झांसी ,मऊरानीपुर, छतरपुर में बहुत विशाल परिमाण में सैर लिखी गई हैं। अधिकांश सैर काव्य तो प्रायः अ प्राप्त हो गया है ।
अन्य स्फुट कवियों के सैर काव्य के अलावा गंगाधर व्यास , नाथूराम माहौर, घासीराम व्यास , घनश्यामदास पांडेय और उनके प्रतिभाशाली पुत्र नरोत्तम दास पांडेय "मधु " ने हीं हजारों सैरों की रचना की है और सैर काव्य को लोक काव्य की सीमा से निकालकर परिनिष्ठित साहित्य का स्तर प्रदान किया है । इस काव्य का लोप हिंदी काव्य परम्परा की अपूरणीय क्षति है ।इन प्रतियोगिताओं के माध्यम से कविता के आस्वाद का रोमांच ही अद्भुत होता था ।
संदर्भ:-
(1) बुंदेलखंड फड़ साहित्य- डॉक्टर गणेशी लाल बुधौलिया प्रश्ठ 18 से 31

(2)लक्ष्मीबाई रासो- संपादक डॉ भगवानदास माहौर प्रष्ठ 86
(3) बुंदेलखंड का फड़ साहित्य- डॉक्टर गणेशी लाल बुधौलिया पृष्ठ 28
(4) श्री माहौर अभिनंदन ग्रंथ -संपादक गौरी शंकर द्विवेदी शंकर आदि- लेख माहौर जी और उनकी काव्य साधना- भगवानदास माहौर पृष्ठ 2, 23
(5)नाथूराम माहोर का स्वयं लिखित पत्र
( 6) पांडेय मंडल के प्रमुख गायक चोखे लाल ताम्रकार से संवाद
(7) सैर काव्य, 45
(8.)वही, 46,
(9)वही, 230,
(10 )वही 160