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मिलन

आइये न प्लीज , अंदर आ जाइये आख़िर बाहर क्यों खड़े हैं, उसकी आँखें खुली और ओठ सिले हुए थे और नज़र सिर्फ़ उन अधरों पर थे जो बार - बार एक दूसरे से मिलते और बिछड़ जाते, उन अधरों को देख कर मुझे अपने बचपन के चिड़िया के बच्चे की याद आ गयी थी जिसे मैंने लाल रंग में रंगा था और रँगते समय ओ अपने टोंट को खोलती और बन्द करती फर्क सिर्फ इतना था कि टोंट उसके सूखे और कड़े थे , जबकि ठीक इसके विपरीत उसके ओंठ रस से भरे और चासनी में नहाये हुए लगते थे, पूरा प्रयास था कि ओ अपनी नज़रों को वहां से हटा कर कहीं और ले चले मगर ओ चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा था, जब उसे भी इस बात की अनुभूति होने लगी कि महासय मेरी बातें न सुनकर कुछ और ही सुन रहे हैं तो उसने बोला बंद ही कर दिया। जब अधरों की हलचल बंद हुई तो नज़रें चली गयी उस गहरी झील के अंदर जहां शीप में मोती मिलने के आसार रहते हैं और टटोलने लगीं उस अनंत गहराई को जहां जाने के बाद आज तक कोई वापस न आ सका, मगर उस झील में न तो शीप मिला और न ही मोती, मगर हां जो सुकून जो चैन वहां मिला वह न तो आजतक किसी दृश्य में मिला था उसे और न ही किसी स्थान में।
सुकून मिलता भी तो क्यों न , पहली बार जो आज नजरें मिली थी प्रत्यक्ष रूप से। पूरे एक साल इंतजार के बाद पहली बार आज दोंनो आमने सामने मिले थे ,करीब पाँच मिनट के बाद राम जी दरवाजे से अंदर प्रवेश करते हैं। और बैठने का आग्रह करके लाच्चु अंदर पानी लाने चली जाती है। राम जी भी कुर्सी अपनी तरफ खींच कर बैठ जाते हैं। जैसे जैसे पानी का ट्रे लेकर ओ रामजी की तरफ बढ़ रही थी उसके पायल की छनक राम जी के कानों में गूंज रही थी और राम जी को पहली बार उस पिन ड्राप साइलेंट का मतलब पता चल रहा था जो उसके मैथ वाले टीचर अक्सर क्लास में कहा करते थे, और शोर उतना ही जोर - जोर से होने लगता था।
लाच्चु पानी का गिलास राम जी की तरफ बढ़ाते हुए बोलती है पानी लीजिये, नजरों से नजरें मिलाये हुए रामजी ग्लास पकड़ने का प्रयास करते है और ग्लास पकड़ते ही एक अजीब सी सिहरन उसके पूरे शरीर में दौड़ पड़ती है शायद लाच्चु की उंगलियां उसके उंगलियों को स्पर्श कर गयी थी। पानी पीकर रामजी इधर - उधर देखते हैं घर में एकदम सन्नाटा है सिर्फ बाहर पहरेदार के तौर पर दादा जी बैठे थे और अंदर लाच्चु का ख्याल रखने के लिए उसकी छोटी बहन जो उम्र में उससे छोटी है मगर लंबाई और पर्सनालिटी में उससे भी बड़ी है।

बाकी पूरा घर सन्नाटे की भेंट चढ़ा था जो भी हलचल होती थी ओ मात्र लाच्चु की बुलंद आवाज़ से ही होती थी। मगर रामजी को कमरे और घर से क्या मतलब उसकी नजर तो बस उस चेहरे पे जाके रुक जाती थी जिसके रूप और सुंदरता का वर्णन कर पाना मुझ अकिंचन के बस की बात नहीं थी।
गुलाब की पंखुड़ी से भी कोमल उसके होंठ और ढलते सूरज से चुरायी हुई लालिम से बने गाल और ओ आंखें जिसे देख कर लगता है कि इससे कई झीलों का निर्माण हुआ होगा। रामजी कुर्शी पर बैठे हुए उस रूपवती को टक टकी लगाए निहार रहे थे कि अचानक से वो आगे बढ़ी और अपने हाथों से उसके गालों को सहलाते हुए अपने उस नाज़ुक ओंठ को रामजी के ओंठ पर धीरे से रख देती है और दोनों कुछ पल के लिए खो जाते हैं।