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सब मिथ्या है

सब मिथ्या है

ईश्वर ने सृष्टि के निर्माण के समय लगता है कि अपना दिमाग बहुत चलाया होगा. यदि जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु को देखते हैं तो मन एकदम गुस्से से भर जाता है. वे क्षीरसागर में शेषशय्या पर लेटे हुए मंद-मंद मुस्कान बिखेरते हुए लेटे हैं. माता लक्ष्मी आराम से उनके पैर दबाती है. उन्होंने अपना दूरभाष संख्या वगैरह भी किसी को नहीं दिया है. कार्य करने के लिए यमराज तथा चित्रगुप्त की तरह विश्वासपात्र लगा कर रखे हैं. दोनों का कभी स्थानान्तरण भी नहीं करते. अहर्निशं दोनों अपने कार्य में लगे रहते हैं.

अभी कोरोनाकाल का समय है. विद्यालय बंद है. केवल अध्ययन ही होता है. अध्यापन बंद है. वैसे अध्यापन-कार्य करते हुए रजत जयंती मना लिया है. सुबह में प्रातः भ्रमण करने के बाद आवास में नित्य सुबह समाचार-पत्र का अवलोकन तथा अन्य पुस्तकों का अध्ययन चलते रहता है. कहीं से निमंत्रण भी यदि आता है तो स्थानीय बंदी के कारण जाना नहीं होता है. शान्ति से पड़े रहना है.

कोरोना काल में सुबह से ग्यारह बजे तक तीन बार चाय बन जाती है. अब यदि चौथी बार भी श्रीमती चाय के लिए पूछती है और मना कर दूँ तो शेरनी की तरह बिफर जाती है.

उनके अक्षय-तरकश से तीर निकलने लगते हैं. शब्द-बाण के लिए अक्षय-तूणीर श्रीमतीजी को प्राप्त है.

उनके शब्द-बाणों की एक बानगी देखिए, “पूछो तो यह हालत है. नहीं पूछो तो कहेंगे कि चाय नहीं दी. क्या मुझे पता नहीं है, आपने क्या खाया-पीया है. आप समझते क्या हैं? एक सुबह से बैठे हैं. जाकर देखिए, बाहर में दूसरे के पतिदेव कितना कार्य करते हैं? एक आप हैं कि कुछ करते ही नहीं. पता नहीं....” फिर तो कहती ही चली जाती हैं.

इस अवस्था से बचने के लिए एक नया उपाय आर्कमिडीज की तरह खोज लिया है.

यदि श्रीमतीजी पूछती हैं “ चाय पीनी है, बनाऊं?”

जैसी तुम्हारी इच्छा – मैं यही जवाब देता हूँ.

इसके बाद उन्हें कुछ और कहने तथा मुझे सुनने का अवसर प्राप्त नहीं होता है.

अब आते हैं पहनने के ऊपर. जो भी पहनता हूँ, उन्हें पसंद नहीं आता है.

“अरे! ये वाला क्यों पहन लिए? वो दूसरा वाला पहनना था. “

देखा, बाहर में प्रेस करके रखा हुआ था – इसीलिए पहन लिया

“क्यों, दूसरा वाला नहीं निकाल सकते थे? एक ही कपड़ा बार-बार पहनते हैं. “

“अच्छा. अगली बार पहन लेंगे.” मैं बात टालने के लिए कहता हूँ.

“नहीं, इसे उतार दीजिए. अच्छा नहीं लगता है.” वे हथियार नहीं डालने के लिए अड़ जाती हैं.

यदि दूसरा वाला ही पहले पहन लेते हैं तो कहेंगी कि क्यों पहन लिया? सब कपडे को बाहर निकालकर खराब कर देंगे. बहुत सज-धज रहे हैं. किसी के बरात में जाना है क्या? अब कपडे का बरात से क्या संबंध?

अब मेरी समझ में नहीं आता है कि जो वस्त्र कल तक अच्छा लग रहा था वह अब खराब कैसे दिखने लगा. आजतक यह बात समझ में नहीं आयी. किसी चैनल या अखबार वाले ने भी इस विषय पर कोई शोधकार्य नहीं किया है. मैं गूगल पर खोजते रहता हूँ कि जो पोशाक पिछले दिनों तक ठीक था, आज अचानक खराब कैसे दिखने लगा?

बाहर निकलते – निकलते उनकी हिदायतों / निर्देशों की टोकरी खाली नहीं होती है. चलते रहती है. इसे खोलिए, इसे पहनिए. इसे उतारिए.... इत्यादि.

तब मुझे देवों के देव भगवान शंकर की याद आती है. माता पार्वती को उनके वस्त्र धोने में परेशानी होती होगी. माता पार्वती भी कच-कच करती होंगी. इससे बचने के लिए उन्होंने मृगचर्म को धारण कर लिया. श्रृंगार प्रसाधन के सामान को मंगाने में अधिक खर्च से बचने के लिए वे भस्म लगाने लगे होंगे. यह मेरा अनुमान गलत भी हो सकता है. नहीं तो उन्हें भी तो ‘समन्वय-चेतना का ध्यान रहा होगा? निश्चित रूप से माता पार्वती उन्हें भगवान विष्णु के सुसज्ज्ति आवास की तरफ ध्यान आकृष्ट कराती होंगी? इन सब चक्करों से बचने के लिए महादेव ‘अनिकेत’ होकर रहते हैं.

श्रीमतीजी का समय ज्ञान तो कमाल का है. भगवान भाष्कर भी उनके सामने असफल हो जायेंगे. बिना समयसूचक यंत्र देखे वे सही समय बता देती हैं. यदि कहीं समय के पहले जाना है तो श्रीमती जी तत्क्षण पूछती हैं. इतना पहले जाकर क्या करेंगे? कोई थोड़े आपसे पहले आता होगा? आप ही जाकर दो घंटा पहले बैठ जाते हैं. क्या पहले जाकर प्राणायाम करना है या किसी से कुश्ती लड़नी है.

अब मैं उन्हें समझाता रहता हूँ कि दो घंटा नहीं केवल दस मिनट पहले ही जा रहा हूँ. मगर उनकी नजर में दो घंटा ही हो जाता है. यदि ट्रेन वगैरह पकडनी है तो भी सही समय पर जाने के लिए कहती हैं. उनके हिसाब से इन्तजार करना अच्छा नहीं लगता है.

यदि घर के कामों में हाथ बंटा दूँ तो भी भगवान मालिक! आपको किसने कहा था, यह सब काम करने के लिए? चुपचाप जाकर बैठिए.

वास्तव में विवाह के बाद ही जाना कि अधिकारों में कटौती हो जाती है. अपने हिसाब से रह भी नहीं सकते. अपना भी मन स्वच्छंद होकर रहने का करता है. बगीचे में उछलने का करता है. पुआल पर बैठने का करता है. मगर नहीं रह सकते. मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ की याद आ जाती है. जिम्मेदारियों को समेटे आगे बढ़ना-बढ़ाना पड़ता है.