Prem aur Vasna - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम और वासना - भाग 1

प्रेम की सबसे बड़ी विशेषता, अगर कोई है, तो यह कि यह भावनाओं के सभी रंगों से परिपूर्ण रहकर भी सदा सफेद और स्वच्छ सत्य के अंदर ही अपना परमोत्कृष्ट ढूंढना है, पर ऐसा तत्व भक्ति स्वरुप के अलावा कहींऔर मिलना असंभव ही लगता है। प्रायः, यह ही दृष्टिगोचर होता है, कि मानव अपनी गलत आदतों की दास्तवता से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता है, पर अति लगाव या असंयत वासना के कारण ऐसा नहीं कर पाता, इसे मन की कमजोरी भी कह सकते है। प्रेम का उपयोग हम संसार में तीन स्वरुपों के अंतर्गत दर्शाते हैं।
1. शारीरक प्रेम
2. मन का प्रेम
3. आत्मा का प्रेम
शारीरिक प्रेम............
संसार में मानव शरीर को अपनी अनुपम सरंचना के कारण एक वरदान के रुप में देखा जाता है। बनानेवाले ने बड़ी कुशलता दिखाई और उसने शक्ति और कमजोरी का अनुपम मिश्रण का सन्तुलन बरकरार रखने के लिए बीमारी और मृत्यु का सहारा लिया। मानव मन में कमजोरी के रुप में कई अवगुण एक साथ निवास करते हैं। और वे काफी स्थान पर अपना वर्चस्व रखने की कोशिश करते है। जो अच्छे गुण होते है, उन्हें कम जगह प्राप्त होती है । जो,मानव सयंम और धैर्य को आत्मा में पूर्ण स्थान देते है, उनके जीवन में प्रेम की कमी शायद ही रहती है। आवेश, क्रोध, लालच, स्वार्थ प्रेम के सबसे बड़े दुश्मन है, उनसे आत्मा जितनी दूरी रखेगी, उसे प्रेम की कमी कभी नहीं महसूस होगी।

यह बात ध्यान में रखने की है, कि अति शारीरिक प्रेम को वासना के रुप में जाना जाता है, बिना प्रेम का यह मिलन शरीर की अतिरेक इच्छाओं की पूर्ति जरुर कर देता है।परन्तु, हर शुद्ध आत्मा इस शर्मिन्दिगी को सहज नहीं लेती, क्योंकि जो पवित्र विचारों के निर्मल जल से जो रोज नहाती, उसके लिए क्षणिक गन्दगी सहन करना सहज नहीं होता।आज नैतिकता के आँचल में अनैतिकता शरण लेकर् जो उत्पात कर रही है, वो प्रेम के रिश्तों को अविश्वासनिय बना कर जीवन को असहजता की आग में झोंकने की चेष्टा कर रही हैं। यह तय है, प्रेम की अनुभूति चाह से शुरु होकर मिलन की गंगा में विलीन होती है। जब दो शरीर आत्मिक एक होकर मिलते तो उनका सुमधुर मिलन प्रकृति का विकास करते है, जिसमे कोई ख़ौफ़ नहीं होता, कहना न होगा, यह मिलन दाम्पत्य जीवन में हीं हो सकता है। हालांकि आजका आधुनिक जीवन शरीर मिलन ज्यादा चाहता हैं, चाहे आंतरिक प्रेम उसमे नहीं के बराबर हो। आज का परिवार स्वतंत्रता के नाम पर कई समस्याओं से इसी लिए ज्यादा जूझ रहा है।

प्रेम के हजारों पवित्र रुप होने के बावजूद मानव वासना के चंगुल में जल्दी फंस जाता है, यह कमजोर मानसिकता का संकेत है। आइये, जानते है प्रेम और वासना अलग क्यों है। सबसे पहले वासना को परिभाषित करने की चेष्टा करते है।

ये तो तय है, वासना प्रेम का ही एक रुप है, परन्तु प्रेम में यह रुप कई सीढ़ियों चढ़ने के बाद आता है। वासना शरीर और मन की जुड़ी मिलिभगति से कभी भी किसी रुप में तन में आ सकती है, इसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं होता।

जबकि प्रेम भावनात्मक सम्बंधों के साथ शुरु होता है, काम और वासना शारीरिक स्पर्श से। कवि दिनकरजी ने "उर्वशी" में लिखा है," कामजन्य प्रेरणाओं की व्यापित्यां सभ्यता और संस्कृति के भीतर बहुत दूर तक पहुंची है। यदि कोई युवक किसी युवती को प्रशंसा की आँखों से देख ले, तो दूसरे ही दिन से उस युवती का हाव-भाव बदलने लगते है"। दिनकर जी के कथन की सच्चाई पर कोई सवाल नहीं किया जाना चाहिए। अततः यह तो सच ही है कि स्त्री और पुरुष का प्रथम आकर्षण ही प्रेम का प्रारभ्भ हैं। यह अलग बात है, भारतीय दर्शन में प्रेम को शारीरक और मानसिक दो अलग तत्वों में बाँट दिया। अवांछित शारीरिक सम्बंधों को वासना की परिधि में रखा गया और आपसी रिश्तों में पत्नी के अलावा सभी रिश्तों में शारीरिक प्रेम को निषेध किया गया। कई मायनों में यह व्यस्था स्वस्थ और सही लगती है। हम शायद यह तो स्वीकार करेंगे की अंतरंग प्रेम लेने में नहीं देने में विश्वास करता है, जब की वासना सब कुछ लेना चाहती है। प्रेम की उम्र लम्बी होती है, वासना की कोई उम्र नहीं होती।

आचार्य रजनीश ने संसार को ही वासना माना है। वो कहते है "संसार का अर्थ है, भीतर फैली वासनाओं का जाल। संसार का अर्थ है, मैं जैसा हूं, वैसे से ही तृप्ति नहीं, कुछ और होऊं, तब तृप्ति होगी। जितना धन है,उससे ज्यादा हो। कितना सौंदर्य है, उससे ज्यादा हो, जितनी प्रतिष्ठा है, उससे ज्यादा हो। जो भी मेरे पास है,वो कम है। ऐसा कांटा गड़ रहा है, वही संसार है। और ज्यादा हो जाए, तो मैं सुखी हो सकूँगा। जो मैं हूँ, उससे अन्यथा होने की आकांक्षा संसार है"। यानी अति ही वासना है।

यह गौर करने की बात है, कि जीवन में नवरंग ,नवरस, या नव भाव प्रमुख है, उनसे उपेक्षित सन्यासी का जीवन भी नहीं रहता, परन्तु आत्मिक सयंम से हर भाव पर उनका शरीर से, मन से और आत्मा पर सयंमित शासन रहता है। जानने के लिए जरुरी है, नव रस के यह नौ प्रकार भरत मुनि के अनुसार क्या है? उनके अनुसार...
"रतिहासश्च शोकश्चक्रोधत्साहौ भय तथा ।
जुगुप्सा विस्मयश्चैति स्थायिभावा: पर्कीर्तिता:" ।
(अर्थात रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा,विस्मय तथा निर्वेद, ये नौ स्थायी भाव माने गये है।)
बेहतर जीवन शैली प्रेम को ही आधार मानती है, यह भी मानती कि वासना से जीवन कभी अपनी श्रेष्ठता नहीं पा सकता। आज के आधुनिक युग में मन की कमजोरियों के कारण बिना उचित कारण, अनुचित शारीरिक सम्बन्ध कई तरह की बीमारियां और समस्याओं का निर्माण करता रहता हैं। वासना का निदान धर्म शास्त्रों में सयंम और आत्मिक चिंतन ही बताया गया है। जीवन में अगर कभी ऐसी परिस्थिति का निर्माण हो, तो उससे बचना ही उचित होगा।✍️कमल भंसाली