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त्रिजटा बोली


रावण के जाने का आभास होते ही सीता की आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। अभी तक जिस संयम और दृढ़ता से अपने मन को सम्भाल कर रखा था, एकान्त मिलते ही वह आँसुओं के रूप में बह निकला। फिर मन में सहसा खयाल आया कि एकान्त भी कहाँ है? चारों ओर रावण की प्रहरी राक्षसियों का घेरा, उनका भयानक अट्टहास और उनकी अजीब सी भाव भंगिमाएं, मन की निराशा को और भी घनघोर किए जा रहीं हैं। हृदय में यही इच्छा उत्पन हुई कि काश! यह अशोक वाटिका "अग्निकुण्ड" में परिवर्तित हो जाए और मैं इसमे जल कर भस्म हो जाऊँ। हृदय और नैनों की व्याकुलता, सामने से आती हुई त्रिजटा को देख कर और बढ़ गयी। उसके आलिंगन में समा, करुण क्रंदन के चित्कार से समग्र बह्मांड को हिला देने की प्रबल इच्छा हुई, किंतु उन्होंने अपने संयम की डोर न छोड़ी। बचपन से ही माता ने धैर्य और संयम का जो पाठ पढ़ाया था, वो किसी भी परिस्थिति में कहाँ भूलता था। मन के झंझावातों में उलझी सीता को ये पता भी न चला कि कब त्रिजटा ने बाक़ी राक्षसियों को डरा धमका कर वापस भेज दिया और कब आ कर समीप बैठ गई।
"माता शीघ्र ही कहीं से अग्नि ला कर दे दो। मैं अभी जल कर भस्म हो जाना चाहती हूँ। प्रभु से दूरी अब मुझसे नहीं सही जा रही है। न जाने कितने दिन बीत गए, उनके मुख मंडल का दर्शन किए और आगे भी कोई संभावना नहीं दिख रही है। माता क्या मेरे प्रभु श्रीराम को मेरी याद नहीं आती है या कि उन्होंने मेरे बिना जीवन जीना सीख लिया है।" एकांत मिलते ही सीता के हृदय की व्यथा शब्दों के रूप में बहने लगी। त्रिजटा ने प्यार से सीता के सर पर हाथ फेरा और दया तथा वात्सल्य से परिपूर्ण दृष्टि से उनके मुख मंडल का अवलोकन किया। सीता की स्थिति देख कर अंतर की पीड़ा, उच्छ्वास के रूप में निकली।
" पुत्री तुम सीता हो इस प्रकार विचलित नहीं हो सकती। धैर्य की प्रतिमूर्ति हो, आशा का अवलंब हो, इस प्रकार निराशा का आवरण कैसे ओढ़ सकती हो।" त्रिजटा ने सीता को धैर्य और साहस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन सीता का मन था कि कुछ भी सुनने व समझने को तैयार नहीं था। नेत्रों का अविरल प्रवाह किसी भी तरह नियंत्रण में नहीं आ रहा था और व्याकुलता इतनी कि शरीर के परखच्चे उड़ने को तैयार थे। निराशा में डूबा अधीर स्वर फूटा-"मेरी क्या गलती थी माता? मुझे किस अपराध का दंड मिल रहा है? बचपन से माता-पिता की आज्ञाकारिणी रही। बहनों और अन्य परिजनों की संवेदना का सर्वथा सम्मान किया। विवाह पश्चात ससुराल में पतिव्रता पत्नी और सुलक्षणा पुत्रवधू थी। हरेक के साथ अपने संबंध को पूरी सच्चाई और ईमानदारी से निभाया। घर से बाहर तक सबके सुखों का ख्याल रखा। हर सुख-दुख में पति की अनुगामिनी बनी। कभी किसी के हृदय की पीड़ा का कारण नहीं बनी। फिर क्यों इस दुख- दंड की भागी बनी?" सीता के दुख भरे कातर स्वर को सुन कर त्रिजटा का मन भी दुख से भर गया। इच्छा हुई कि सीता को अभी उठा कर लंका पार पहुंचा दे और सभी पीड़ाओं से उसे मुक्त कर दे, किंतु स्वयं पर नियंत्रण कर सीता से प्रश्न किया -" स्वयं के लिए तुमने क्या किया पुत्री।"सीता की प्रश्नवाचक दृष्टि अपनी ओर देख कर त्रिजटा ने प्रश्न दोहराया-" घर-परिवार, समाज, देश, दुनिया सबके लिए तुमने अपना उत्तरदायित्व निभाया पर स्वयं के लिए क्या किया?"
"मैं कुछ समझी नहीं माता?" सीता अभी भी त्रिजटा के भावों से सर्वथा अनभिज्ञ थी।
" अपने आस-पास के सभी प्रिय- अप्रिय जनों के लिए तुमने हर कर्तव्य निभाया, किंतु अपने लिए अपना कर्तव्य निभाने से कैसे चूक गई?" त्रिजटा ने पूछा। सीता कुछ भी समझ नहीं पा रही थी और निरुत्तर खड़ी थी। त्रिजटा ने आगे कहा - "जीवन के सुख और सुरक्षा में कभी ये न सोचा कि स्थितियां विपरीत हुई तो कैसे निपटोगी?"
" क्या कह रहीं हैं आप माता, आपकी बातों से असमंजस की स्थिति में आ गई हूँ मैं।" सीता ने कहा।
"हाँ पुत्री!मैं भी बिल्कुल यही कह रही हूँ कि जीवन में यह असमंजस क्यों है?" त्रिजटा की बातें सुन सीता तो सशरीर प्रश्न बन गई और उसका मौन त्रिजटा को उद्वेलित किए जा रहा था।
" माता-पिता तो पुत्रियों को बहुत सहेज कर पालते हैं। जीवन की हर कठोरता से बचा कर रखते हैं। हर वक्त उनकी सुरक्षा को अपना दायित्व समझते हैं। कभी भी उन्हें दुनिया के झंझावातों से लड़ने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है । सदैव सहनशीलता का पाठ पढ़ाया जाता है। और फिर उन्हें धकेल दिया जाता है, एक रंगीन स्वप्न दिखा कर, जीवन के संघर्षों में, उससे जुझने के लिए, अकेले, निरंतर। हमारे समाज में पुत्रियों के लिए सर्व प्रथम सीमा-रेखा माता-पिता ही तय करते हैं, फिर उनके सिर पर अपनी और अपने कुल-खानदान की मर्यादा-रक्षा का बोझ डाल, स्वयं को दायित्व से मुक्त समझ लेते हैं।माता-पिता पुत्रियों के लिए जीवन की एक परिपाटी तय कर देते हैं और फिर उन्हें छोड़ देते हैं जीवन से जुझने के लिए। कभी भी, किसी भी परिस्थिति में उन्हें ये सीमा-रेखा लांघने की अनुमति नहीं होती है, और सीता तुम..... तुम तो वो सीमा-रेखा भी लांघ गई जिससे बाहर आने के बाद की स्थिति से लड़ना तुमने कभी सीखा ही नहीं था।"त्रिजटा अवसाद भरे स्वर में बोले जा रही थी।
" किंतु माता मेरे वो कदम तो धर्म रक्षार्थ बाहर आए थे।"सीता ने अपना पक्ष रखते हुए कहा।
" धर्म रक्षा के नाम पर कितने अधर्म किए जाते हैं, यह व्यवहारिक ज्ञान भी कभी सीख लिया होता सीता, तो आज इस कठिनाई में नहीं फंसती। संभाव्य से इतर, कभी असंभाव्य की आशंका और उससे जुझने का साहस भी यदि तुममें भरा गया होता तो आज इस विकट परिस्थिति में न होती तुम। सही और गलत के स्थान पर उचित और अनुचित का पाठ तुम्हें पढ़ाया गया होता तो आज यहाँ बैठ कर स्वयं के भाग्य पर प्रलाप नहीं कर रही होती, बल्कि सही समय पर सही और उचित निर्णय लेने के गर्व से भरी, अपना जीवन सुख और संतोष पूर्वक जी रही होती। अनुचित को आँख दिखाने की तृप्ति से परिपूर्ण होती। अपने निर्णय और अपनी रक्षा का भार स्वयं संभाला होता तो आज आँखों में अश्रु के स्थान पर गर्व बहता और हृदय में व्याकुलता की जगह व्यापकता का राज होता। क्षमा करना पुत्री, यदि मेरी बातों के कारण तुम्हारे मन को अथवा तुम्हारी आस्था को जरा भी ठेस पहुंची हो। लेकिन तुमने मुझे माता का संबोधन दिया है तो इस पद के दायित्व- निर्वहन हेतु तुम्हें व्यवहारिकता के कुछ पाठ पढ़ाना भी मेरा दायित्व बनता है और अपने उत्तरदायित्व से तथा तुम्हें सच का शीशा दिखाने से मैं कभी पीछे नहीं हटूंगी, इस बात का आश्वासन तो तुम्हें दे ही सकती हूँ................ ।"
आँखों से ओझल होती हुई त्रिजटा के पृष्ठ को निहारती सीता के नेत्रों मे, अब अश्रु की जगह प्रश्न बह रहे थे और अपने हृदय से वो पूछे जा रही थी कि "उत्तर कहाँ हैं।"
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अंजु 'अना'
जमशेदपुर, झारखंड।
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