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यस मैडम

"सास की भृकुटी है भाभीजी........
....जो तनी नहीं तो उसका होना अकारथ हो जाता है .... आप काहे माथा खराब करे हैं अपना.... थोड़ा कभी नीचे, थोड़ा कभी उपर... शान पिरोई रहती है इसमें सासों की.... " सुनीता नें पूरे चेहरे और हाथों के साथ अदाकारी करते हुए जैसे तजुर्बा बयान किया तो लगभग अवसाद की सी स्थिति में भी आर्या के होंठों पर मुस्कान तैर गई और सुनीता का तो पूरा मनोबल बढ़ गया उसको खुश देख कर।
" मैं देखती नहीं क्या भाभीजी! आप दिन रात एक किये रहती हैं, नौकरी में भी लगी हैं... इधर घर में भी खाली ड्रामा लगा रहता है.... लेकिन बता रही हूँ आपको कि अम्मा जी को न आप खाली सास न समझना... बल्कि मैं तो कहूँ कि कोई भी सास न माँ होवे है न सास, खाली मास्टरनी होवे है..... बिना डिग्री की.... और इनका इलाज भी बस ऐसे ही करो.... न ज्यादा चोंचलेबाजी, न झगड़ा-लड़ाई..... बस यस मैडम.... जी मैडम जी..... और अपने कामवाले काम पर जियादा धियान दो...... "
कितनी बड़ी बड़ी बात बेखयाली में ही बोल गई है यह गँवार... आर्या तो बस उसका मुँह देखती रह गई...... लेकिन तत्काल सर को झटका और अपना रौब बरकरार रखते हुए उसे प्यार से झिड़का," अच्छा! तू भी अब सिर्फ अपने कामवाले काम पर ध्यान दे और ज्यादा पंचायत मत खोल। सुनीता को जरुरी निर्देश दे कर वह किचन से बाहर आ गई। आज छुट्टी का दिन था, सोचा थोड़ा पौधों को पानी दे दिया जाए तो ये भी तरोताजा हो जाएँ। मन में सुनीता की बातें लगातार चल रही थी। क्या सचमुच उसे चुपचाप सबकी हर जाहिलाना बात मान लेनी चाहिए। फिर फायदा क्या हुआ इतना पढऩे लिखने का... ।
अब वहाँ क्या निहार रही हो खड़े खड़े...... आज छुट्टी के दिन भी दो निवाला ढंग का मिलेगा कि नहीं.... मम्मी जी की आवाज से तंद्रा भंग हो गई और मुँह से "यस मैडम" निकलने ही वाला था कि खुद को सँभाल कर कहा, "अभी लाती हूँ मम्मी जी "...... और किचन की तरफ बढ़ गई। दिल में आया कि खूब खरी-खरी सुना दे इनको। मेरी भी तो हफ्ते में यही एक छुट्टी होती है तो क्या मेरा अपना कोई मन नहीं है। रोज-रोज नौकरी की किचकिच और एक दिन छुट्टी के.... मगर नसीब में चैन नहीं है.... लेकिन सारी बात अंदर ही रह गई। बुरा हो इस शिक्षा दीक्षा का.... जो मुंँह पर ताला लगा देती है, संस्कारों के किवाड़ खोल देती है वरना अभी के अभी मैं भी खाली हो जाती....।
और रमा देवी की तो चिंता ही अलग थी, "हैंऽ ये क्या हुआ इसे.... कहाँ तो सफाई में ज्ञान पर ज्ञान बघारती है और आज.... अभी लाई....ठीक है कि मुंह लगे जवाब नहीं देती है लेकिन पुलिंदे खोलती है तो लगता है कि हम ही फालतू बैठें हैं बस इनकी सुनने को .......चलो ठीक है.... कुछ अकल तो आई इन्हें ".... उन्होंने हालांकि बुदबुदाते हुए ही कहा था लेकिन बात सीढ़ियों पर खड़ी बेटी के कानों में जा पहुँची।
" मम्मी!! लगता है आज भाभी नें सुबह चाय में चीनी ज्यादा पी ली... इसी से आज सड़ा हुआ चेहरा देखने को नहीं मिला"... सुमन नें नमक पर मिर्चे डालते हुए कहा लेकिन रमा देवी बिना किसी प्रतिक्रिया के अंदर चली गईं।
सौरभ नहीं उठा अभी आर्या...? " ससुर जी नें नास्ते पर पूछा।
नहीं पापाजी! वो तो आज सुबह किसी दोस्त से मिलने निकल गये... आते ही होंगे..... " आर्या ने उन्हें बताया तो सभी नाश्ते में व्यस्त हो गए लेकिन उसके मन की उलझन बरकरार थी। ज्ञान और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य, काम को सुचारू रूप देना है... बिन मांगे ज्ञान बाँटते रहना भी हमेशा ठीक नहीं। फिर सबकी मानसिकता भी तो एक जैसी नहीं होती और गलत-सही की इस गुत्थी में सबसे ज्यादा उलझ जाते हैं बेचारे सौरभ। सुनीता अपना काम निपटा कर जा चुकी थी। वह फिर से अपने-आप में गुम हो गई.... तो शिक्षा का क्या है... सिर्फ किताबों से ही मिले... जरूरी तो नहीं.... आज सुबह-सुबह सुनीता नें भी उसे एक तरह का ज्ञान ही तो दिया..... और अगर कोई बड़ा नुकसान न हो रहा हो तो कभी-कभी सही गलत को किनारे रख सकते हैं। ज्ञान की जगह कभी-कभी *मान* का फाॅर्मूला यूज करने में क्या बुराई है। सौरभ भी कितनी बार अपने तरीके से ये बात समझा चुके हैं लेकिन वो ज्यादा नहीं बोलते हैं क्योंकि उन्हें अच्छे से पता है कि नाजायज बात मुझसे बर्दाश्त नहीं होती और सच कहें तो मेरी इसी खरे बिहेव पर रीझ गये थे वो, इसलिए मुझे दबाना उन्हें उचित नहीं लगता है। तब शायद उनको भी जिंदगी के इस दूसरे पक्ष का ज्ञान नहीं था कि रिश्ते और परिवार हमेशा स्पष्टवादिता से नहीं चलते। ये यूनिवर्सिटी के डिबेट प्रोग्राम नहीं होते । इनका एक बड़ा व्यवहारिक पक्ष ये होता है कि जिम्मेदारी के साथ रिश्तों को निभाने के लिए नैतिकता और कुटनीति का एक सही रेशियो होना भी बहुत जरूरी होता है।
नाश्ते के बाद आर्या बरतन समेट ही रही थी कि सौरभ अंदर से हाथ में केटली लिए आ गये, "चल उठ सुमन... जा के मग ले आ.... आज तुझे अपने हाथों की बनाई काफी पिलाता हूँ.... और सुन ले... शाम को तेरी बारी होगी......तुम भी आ जाओ अरूऽ......" सौरभ नें पुकारा तो वाशिंग मशीन से कपड़े निकालती आर्या के हाथ थम गए। नजर घुमा कर देखा तो उनके होंठों की मुस्कान और आँखों के इशारे से बहुत तसल्ली मिली। बिना कुछ कहे उसके दिल की बातें समझते हैं सौरभ... सच!
आज अरसे के बाद पूरा परिवार साथ में था। बहुत ज्यादा मेल-मिलाप तो नहीं था सबमें लेकिन साथ में बैठे थे आज सब। ठीक ही कहती है सुनीता, अगर जरा सा *मैडमगिरी* से कुछ बातें ठीक हो सकती है तो उसे क्या जरूरत है हमेशा सही-गलत के पचड़े में पड़ने की.... सही कहती है माँ.... बहुत बुद्धिमान होने के बावजूद भी कभी-कभी परिवार के लिए बुद्धू बन जानें में कोई बुराई नहीं है......मन में जगी आशा को एक गहरी सांँस के साथ अंदर उतार लिया और होंठों पर मुस्कान सजाये, पति की दावत में शामिल होने चल दी।