golokdham books and stories free download online pdf in Hindi

गोलोकधाम

न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

श्रीमद्भगवद गीता 15.6

अथार्त - जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आता उस स्वयंप्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परमधाम है


चलिए आज हम बाँकेबिहारीजी के श्री धाम गोलोक के दर्शन करते है !!

बहुत पहले की बात है- दानव, दैत्य, आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी भार से अत्यंत पीडित हो, पृथ्वी गौ का रूप धारण करके रोती हुई अपनी व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में गयी। उनका कष्ट सुनकर ब्रह्माजी ने तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान नारायण के वैकुण्ठधाम में गये।

वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु को प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु उन देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले।

" साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी, परमेश्वर, अखण्ड स्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी लीलाएँ अनंत एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम उन्हीं के अविनाशी धाम में जाओ।"

श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का मुझे दर्शन कराइये।

भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर विराजमान गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया। सब देवता उसी मार्ग से वहाँ के लिये निकले। वहाँ ब्रह्माण्ड के ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचे की ओर उस ब्रह्माण्ड को अचंभित की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जल में इधर-उधर लहरों में लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओं को विस्मय हुआ। वे चकित हो गये। वहाँ से करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, वहीं ऊपर देवताओं ने विरजा नदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं।

आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगर में पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्यों की ज्योति का महान पुञ्ज जान पड़ता था। उसे देखकर देवताओं की आँखें चौंधिया गयी। वे उस तेज से पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खडे़ रह गये। तब भगवान विष्णु की आज्ञा के अनुसार उस तेज को प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योति के भीतर उन्होंने एक परम शांतिमय साकार धाम देखा। उसमें परम अद्भुत, कमलनाल के समान धवल वर्ण हजार मुख वाले शेषनाग का दर्शन करके सभी देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया। राजन ! उन शेषनाग की गोद में महान आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधाम का दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओं के ईश्वर तथा गणनाशीलों में प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता। वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणों के विषय में तो कहना ही क्या है ! सम्पूर्ण देवताओं ने परमसुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहाँ ‘गोवर्धन’ नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे।

भगवान श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिकाजी के साथ विराजमान हैं। ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओं को मिली।उनके ऊपर हंस के समान सफेद रंग वाले पंखे झले जा रहे हैं और हीरों से बनी मूँठ वाले चँवर डुलाये जा रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजित श्रीराधिकाजी से उनकी बायीं भुजा सुशोभित है। भगवान ने स्वेच्छा पूर्वक अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है।


वे हाथ में बाँसुरी धारण किये हुए हैं। उन्होंने मनोहर मुस्कान से भरे मुखमण्डल और भ्रकुटि-विलास से अनेक कामदेवों को मोहित कर रखा है। उन श्रीहरि की मेघ के समान श्यामल कांति है। कमल-दल की भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें हैं। घुटनों तक लंबी बड़ी भुजाओं वाले वे प्रभु अत्यंत पीले वस्त्र पहने हुए हैं। भगवान गले में सुन्दर वनमाला धारण किये हुए है, पैरों में घुँघरू और हाथों में कंकण की छटा छिटका रहे हैं। अति सुन्दर मुस्कान मन को मोहित कर रही है। भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्द के समुद्र में गोता खाने लगे। अत्यंत हर्ष के कारण उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली। तब सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर विनीत-भाव से उन परम पुरुष श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम किया।


राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा