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लकीर का फ़क़ीर

दफ्तर से निकल कर दीपक बस स्टॉप की तरफ धीरे धीरे बढ़ रहा था कि उसके फोन की घंटी बज उठी। जेब से इयरफोन निकालकर उसने कान से लगाया और बातें करता हुआ बस स्टॉप की तरफ बढ़ता रहा। फोन उसकी माँ का था।
बरसात का मौसम था और आसमान में काले काले बादल घिर आए थे। दीपक अभी तक घर नहीं पहुँचा था। अमूमन वह रोज अब तक घर पहुँच जाता था लेकिन दफ्तर में काम की अधिकता की वजह से आज उसे देर हो गई थी। इसी वजह से घबराकर उसकी माँ ने फोन किया था।
उनकी घबराहट को महसूस कर दीपक हँस कर उन्हें आश्वस्त करना चाहता था और इसीलिए उनकी चिंता भरी बातों का मजाकिया अंदाज में हँसकर जवाब दे रहा था। अब वह बस स्टॉप पर पहुँच गया था कि उसकी माँ ने कहा ,"बेटा ! काले काले बादल घिर आए हैं। मौसम बेहद खराब होने की चेतावनी दी गई है.....!" अभी वह और कुछ कह रही थीं कि उनकी पूरी बात सुने बिना ही दीपक चहक पड़ा ," सच कह रही हो माँ ! मौसम वाकई सुहाना हो गया है।"
उसकी माँ ने कहा, "बेटा मौसम खतरनाक है।"
उसने थोड़ी तेज आवाज में जवाब दिया, " नहीं माँ ! मौसम तो बेहद सुहाना है सुहाना ...!"
कहने के साथ ही उसने फोन काट दिया। वहीं खड़ी एक लड़की उसकी बात सुनकर उसे घूर कर देखने लगी।
दीपक का ध्यान उसकी तरफ गया। लगभग बाइस वर्षीया वह लड़की सस्ते से सूट में भी गजब की खूबसूरत लग रही थी। करीने से बंधे जुड़े के साथ सलीके से ओढ़ा हुआ सूट के रंग से मेल खाता दुपट्टा उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाने के साथ ही उसके अच्छे संस्कारों की गवाही भी दे रहा था। उसे देखने के साथ ही दीपक के दिल के तार बज उठे थे लेकिन वह उसे घूर कर क्यों देख रही है, यही सोचकर वह परेशान हुआ जा रहा था। इसी परेशानी के आलम में उसने एक बार पूरा गोल घूमकर खुद को पूरा चेक करना चाहा कि उसके शरीर से कहीं कुछ चिपका हुआ तो नहीं ?
उसकी परेशानी को भाँपकर वह लड़की मुस्कुरा उठी। निर्छल, प्यारी सी खिलखिलाहट से उसका खूबसूरत मुखड़ा और खिल उठा।
तभी आसमान में बिजली की तेज गड़गड़ाहट के साथ ही बरसात की बड़ी बड़ी बूँदों ने धरती पर आक्रमण शुरू कर दिया। बिना छत के बस स्टॉप पर खड़ी लड़की के चेहरे पर खिली मुस्कान पल भर में चिंता में बदल गई जबकि दीपक ने अपनी छत्री खोलकर उसकी तरफ बढ़ा दिया और खुद वर्षा की बूँदों का वार झेलता रहा।
" शुक्रिया !" कहते हुए उस लडक़ी ने दीपक के हाथों से छत्री लपक लिया और दो कदम दीपक की तरफ बढ़कर उसे भी छत्री के दायरे में ले लिया। उसकी नाजुक सी महीन आवाज उसके कानों के रास्ते सीधे उसके दिल में उतरती चली गई।
तभी बस आ गई और वह दोनों किसी तरह उस भीड़ भरी बस में सवार हुए। भीड़भाड़ की अभ्यस्त वह लड़की बस में तेजी से आगे बढ़ी और महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर पहले से बैठे युवक को उठाकर बैठ गई।
लगभग आधे घंटे बाद उस लड़की का गंतव्य आ गया और वह बस से उतरकर सीधे अपने रास्ते आगे बढ़ गई। दीपक का दिल बुझ सा गया। उसे उम्मीद थी 'वह लड़की एक बार उसकी तरफ देखकर उसे धन्यवाद तो अवश्य कहेगी' लेकिन हाय री उसकी किस्मत ! धन्यवाद कहना तो दूर, उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा भी नहीं।
उसकी इस बेरुखी के बावजूद वह लड़की उसके दिलोदिमाग पर छा गई थी। दूसरे दिन वह रोज के समय पर दफ्तर से बाहर निकला और बस स्टॉप पर पहुँचा। बस स्टॉप पर कुछ व्यक्ति बस के इंतजार में खड़े थे लेकिन उसकी निगाहें तो उस लड़की का इंतजार कर रही थीं जिसे देखकर उसके कानों में घंटियां सी बज उठी थीं। दफ्तर में भी दिन भर उस लड़की की छवि ही उसकी निगाहों के सामने घूमती रही थी।
जिसके इंतजार में वह दो बस छोड़ चुका था, वह लड़की उसे दूर दूर तक कहीं नजर नहीं आ रही थी।
कल वाले समय से भी उसे आधा घंटा देर हो गई थी और इस बीच दो बार उसकी माँ का फोन आ गया था। दफ्तर में काम अधिक होने का बहाना बनाकर उसने माँ को आश्वस्त कर दिया था। पहली बार माँ से झूठ बोलते हुए वह खुद पर गुस्सा भी हो रहा था। ' कितनी आसानी से उसने अपनी माँ से झूठ बोल दिया था, वह भी उस लड़की की मात्र एक झलक के लिए जिसे पहचानना तो दूर वह उसका नाम भी नहीं जानता था।' तभी उसके अंतर्मन ने सरगोशी की 'तुमने कुछ गलत नहीं किया। प्यार और युद्ध में सब जायज होता है।'
' प्यार ?...' एक साथ उसके दिमाग में मानो धमाका सा हुआ। ' तो क्या उसे प्यार हो गया है ?' और फिर अपने सिर को झटकते हुए मन में उठ रहे विचारों पर काबू पाने का उसने भरसक प्रयास किया और निराश होकर बस का इंतजार करने लगा। तभी उसे दूर बस आती हुई नजर आई और साथ ही नजर आई एक लड़की जो दूसरी तरफ से बस स्टॉप की तरफ बेतहाशा दौड़ रही थी। नजदीक आती उस लड़की को देखकर उसका मन मयूर नाच उठा। बस पहले आ चुकी थी लेकिन दीपक ने कंडक्टर से कहकर कुछ पल के लिए बस रुकवा दिया था और वह लड़की तेजी से बस में समा गई और आगे बढ़ गई।
अब दीपक दफ्तर से निकलकर अक्सर देर तक बस स्टॉप पर उस लड़की का इंतजार करता और उसके आते ही आनेवाली बस में सवार होकर दोनों अपने अपने घर आ जाते। दोनों कुछ समय के लिए अवश्य साथ होते लेकिन नदी के दो किनारों की तरह एक दूसरे से बिल्कुल अंजान। दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी अब तक। दीपक चाहता था कि उससे बात करे, लेकिन कहीं वह बुरा मान गई तो ?..तो वह तो उसकी एक झलक के लिए भी तरस जाएगा।'
लेकिन कहते हैं न 'जहाँ चाह वहाँ राह'। दो प्यार करनेवालों को कुदरत भी मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ती और एक दिन उसकी जिंदगी का सबसे यादगार लम्हा आ ही गया।
बस में बैठी उस लड़की के साथवाली सीट खाली हुई और उसने वहीं नजदीक खड़े दीपक को इशारे से बुलाकर उस सीट पर बैठा लिया था। दीपक से आगे खड़ा व्यक्ति मन मसोसकर उस सीट पर दीपक को बैठते देखता रहा।
बैठते ही दीपक ने हौले से मुस्कुराकर उसे 'थैंक यू ' कहा और अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, " माइसेल्फ दीपक ।"
मुस्कुराकर उसका जवाब देते हुए वह लड़की बोली, " मेरा नाम सुहाना है।"
" ओह ,अच्छा ..अच्छा ..! अब समझ में आया आप उस दिन मुझे घूर घूर कर क्यों देख रही थीं !" कहने के साथ ही वह हँस पड़ा, " वैसे बड़ा प्यारा नाम है आपका..सुहाना ! वाह ! बहुत खूब !"
"जी शुक्रिया आपका ! नाम तो अम्मी अब्बू की पसंद होती है। उसमें हमारा क्या अख्तियार है ?" उसकी सुरीली सी आवाज बस के शोरगुल में भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। तभी उसका स्टॉप आ गया और वह तेजी से उठकर उसे बाय कहते हुए बस से उतरकर चली गई।
वह तो चली गई थी लेकिन उसके कहे शब्द अभी तक उसके कानों में गूँज रहे थे ' ...नाम तो अम्मी अब्बू की पसंद होती है....' इसका सीधा सा मतलब है कि वह मुस्लिम है। हे भगवान ! यह मेरी कैसी परीक्षा ले रहा है तू ? कोई लड़की पसंद भी आई तो वह मुस्लिम निकली। नहीं..नहीं ...अभी बात अधिक आगे नहीं बढ़ी है। खुद को संभालना ही होगा।' सोचते हुए उसने संकल्प लिया अब कभी उस लड़की से न मिलने का...!
लेकिन कहते हैं न दिल पर किसी का जोर नहीं चलता। दूसरे दिन वह दफ्तर से निकल कर बस पकड़कर सीधे घर आ तो गया था लेकिन घर पर आकर वह बुरी तरह बेचैन हो गया। सुहाना की तस्वीर उसकी आँखों के सामने से पल भर को भी ओझल हो ही नहीं रही थी और वह उसकी याद में जल बिन मछली के समान तड़पने लगा था। उस रात वह भोजन भी नहीं कर सका था और तबियत खराब होने का बहाना बनाकर सीधे अपने कमरे में सोने चला गया। करवटें बदलते हुए वह जितना प्रयास करता उसकी यादों को झटकने का वह और तेजी से उसके दिलोदिमाग में गहरे पैवस्त होती चली जाती।
सुबह उसकी नींद देर से खुली थी लेकिन माँ के मना करने के बावजूद दफ्तर में जरूरी काम का बहाना बनाकर वह अपने दफ्तर आ गया। दिन भर अजीब सी बेचैनी छाई रही उसके दिलोदिमाग में। उसकी व्याकुल निगाहें बार बार दफ्तर में लगी घड़ी की तरफ उठ जातीं। उसे लगता मानो आज ये घड़ी की सुइयाँ भी उसके सब्र का इम्तिहान ले रही हैं। कितना धीमे चल रही हैं। वक्त थम सा गया है, गुजर ही नहीं रहा।
आखिर वह लम्हा भी आ ही गया जब दफ्तर की छुट्टी हुई और वह खुशी से कुलाँचे भरता बस स्टॉप की तरफ बढ़ गया। बस पकड़ने की उसे कोई जल्दी नहीं थी। उसका दिमाग कह रहा था कि 'अब भी वक्त है, भूल जा उस लड़की को जो तेरी जाति का तो छोड़ो तेरे धर्म की भी नहीं।' लेकिन उसका दिल कह रहा था ' जाति धर्म की बातें सोचकर लकीर का फ़क़ीर मत बनो। वह करो जो उसे और तुम्हें दोनों को पसंद हो।'
तभी उसकी अंतरात्मा ने सरगोशी की ' जिसको लेकर इतने जद्दोजहद से गुजर रहा है क्या कभी उसके मन की भी थाह लिया कि वह क्या चाहती है ?' और वह बरबस ही हँस पड़ा ' सही तो है...उसने तो सुहाना के मन में क्या है यह कभी जाना ही नहीं। वह तो बेचारी मेरा नाम भी नहीं जानती। नहीं..अब और देर नहीं ...आज उससे बात करके देखता हूँ ....भगवान करें मुझे निराशा न झेलना पड़े।'
बस स्टॉप पर खड़ा उसके दिल व दिमाग अंतर्द्वंद से गुजर रहे थे लेकिन उसकी निगाहें तो बेसब्री से सुहाना का इंतजार कर रही थीं। कुछ देर बाद सुहाना उसे आती हुई दिखी।
वह सीधे उसके समीप पहुँच गई और उलाहना भरे स्वर में पूछा, " कल काम पर नहीं आए थे क्या ?"
" आया तो था लेकिन ...!" कहते हुए उसकी जुबान मानो तालु से चिपक गई हो। आगे उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था।
" लेकिन क्या ? बोलो ..!" वह अधीरता से पूछ बैठी थी।
" लेकिन ....लेकिन कल जल्दी घर चला गया था।" उसने किसी तरह बात पूरी की।
" क्यों ..?" कहने के साथ ही उसने अपनी निगाहें दीपक के चेहरे पर गड़ा दीं मानो उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही हो। पल भर के लिए नजरें मिलीं और दोनों के दिल बेतहाशा धड़क उठे। दीपक कुछ कहना ही चाहता था कि इतने में बस आ गई।
संयोगवश आज बस में भीड़ कम थी और कुछ देर के बाद दीपक को भी सुहाना के साथ वाली सीट पर बैठने का मौका मिल गया।
साथ बैठते ही वह मुस्कुरा कर बोला, " कल जल्दी क्यों चला गया यह तो नहीं बताऊँगा लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि जल्दी जाकर बहुत पछताया था।... लेकिन तुम ये बताओ। किसी अजनबी की तुम्हें इतनी फिक्र क्यों होने लगी ? नाम भी तो नहीं जानतीं तुम मेरा ?"
"नाम में क्या रखा है ? इतने दिन से तुम्हें देख रही हूँ और इतना तो जान ही गई हूँ कि तुम एक अच्छे दिल वाले बहुत ही नेक और सहृदय इंसान हो। तुम्हारी फिक्र करने के लिए क्या इतनी वजह काफी नहीं ?" कहते हुए उसके होठों पर एक शरारत भरी मुस्कान थी, " वैसे अगर अपना नाम बता दोगे तो कुछ गलत नहीं हो जाएगा।"
"दीपक ! ...दीपक है मेरा नाम !" धड़कते दिल से उसने बताया था लेकिन उसकी निगाहें सुहाना के चेहरे पर ही गड़ी हुई थीं और उसके चेहरे पर खुशी की लकीरें देखकर दीपक का मन आश्वस्त हुआ।
उस दिन के बाद दफ्तर से छूटने के बाद जितना भी समय दोनों को मिलता बस स्टॉप पर एक दूसरे से बातें करने में ही बीत जाता। धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के और करीब आते गए लेकिन अभी तक किसी ने अपने दिल का हाल दूसरे से न बताया था।
एक साल गुजर गए। बरसात का मौसम फिर लौट आया था। सावन का महीना था। धरती हरियाली की चादर ओढ़े किसी नववधू के समान सजी संवरी लग रही थी। बस में सुहाना के साथ बैठा दीपक उसकी तरफ देखते हुए हुए बोला, " अगर तुम चाहो तो मेरा जीवन भी सुहाना बन जाए !"
उसके मनोभावों को बखूबी समझते हुए सुहाना के गालों की लालिमा बढ़ गई और वह चहक उठी। यही सुनने का इंतजार तो वह कई महीनों से कर रही थी। मुस्कुरा कर बोली, "अगर तुम मेरे अँधियारे जीवन में प्यार का दीपक जलाकर उसे खुशियों के उजाले से भर देने का वादा करो तो मैं भी तुमसे वादा करती हूँ कि तुम्हारी राह में आनेवाली हर मुश्किल को मैं झेलकर तुम्हारे जीवन का सफर खुशगवार व सुहाना बना दूँगी।"
सुनते ही दीपक ने लपक कर उसकी दोनों हथेलियों को बड़े प्यार से थाम कर झुककर उन्हें चूम लिया था। सुहाना लाज से खुद में ही सिमट गई थी।
वक्त अपनी चाल चलता रहा। दिन, सप्ताह और महीने बीतते रहे और इसी के साथ दोनों का प्यार और गहरा होता गया। दोनों अब शीघ्र ही शादी के बंधन में बंधकर प्यार की मंजिल पा लेना चाहते थे लेकिन दोनों के प्यार के मध्य उनका मजहब एक मजबूत दीवार बनकर खड़ा था जिसे लाँघने की कोशिश में न जाने कितने युवाओं ने अपने प्यार की या फिर अपने जान की कुर्बानी दे दी लेकिन वह मजहब की दीवार आज भी उसी तरह मजबूती से खड़ी है।
एक दिन सुहाना ने दीपक से कहा," यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ भागकर यहाँ से कहीं दूर किसी नई जगह पर जहाँ हमें पहचानने वाला कोई न हो, गृहस्थी बसाने को तैयार हूँ।"
उसकी बात सुनकर हौले से मुस्कुराते हुए दीपक बोला, "घर से भागकर हम सबकी तरह लकीर के फ़क़ीर नहीं बनेंगे। हम वह गलती नहीं करेंगे जैसा अक्सर अब तक प्यार करनेवाले करते आए हैं। हम शादी भी करेंगे और यहीं सबके साथ भी रहेंगे। तुम मेरे साथ हो तो मैं तुम्हारे लिए पूरी दुनिया को मना लूँगा।"
अगले ही दिन दीपक ने अपनी माँ से सुहाना के बारे में बात किया। सुहाना के मुस्लिम होने की बात पता चलते ही उन्होंने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया और दीपक को समझाने का प्रयास करने लगीं। लेकिन दीपक ने हार नहीं मानी। वह लगातार प्रयास करता रहा अपनी माँ का मन बदलने का और एक माँ आखिर कब तक अपनी संतान को अनसुना करती ? सुहाना से मिलकर उन्हें बहुत खुशी हुई और उन्होंने दोनों को अपनी स्वीकृति दे दी।
इधर सुहाना ने भी दीपक के बारे में अपने घर में बात कर ली थी। दीपक सुहाना के अम्मी और अब्बू से मिल भी आया था। दीपक की बातों से प्रभावित सुहाना के सभी परिजनों ने सुहाना की शादी के लिए अपनी रजामंदी दे दी लेकिन साथ ही एक शर्त रख दी जिसे दीपक ने तुरंत स्वीकार कर लिया। उनकी शर्त थी ' सुहाना शादी के बाद अपना धर्म नहीं बदलेगी और उसे पहले सुहाना से निकाह करना होगा बाद में वह चाहे तो अपने रीति रिवाजों के मुताबिक शादी कर सकता है।'
दीपक ने तुरंत जवाब दिया था, " मैंने प्यार सुहाना से किया है, किसी रश्मि या गरिमा से नहीं ..फिर हमारे बीच ये धर्म कहाँ से आ गया। सुहाना जिस भी धर्म के साथ जीना चाहे उसका स्वागत है।"
दोनों पक्षों की रजामंदी से दोनों के विवाह की तैयारियाँ जोरों से शुरू हो गई। दो अलग अलग धर्मों के लड़के और लड़की की शादी पूरे इलाके में चर्चा का विषय बन गई। कई धार्मिक संगठनों ने इस शादी का पूरजोर विरोध भी किया लेकिन दोनों के परिजन इससे जरा भी विचलित नहीं हुए।
दोनों के परिजनों ने संयुक्त रूप से अपना एक बयान जारी किया 'अब हम शिक्षित है, सभ्य हैं, और समझदार है। हम जानते हैं कि धर्म इंसानों ने ही बनाया है। धर्म इंसानों के लिए है, इंसान धर्म के लिए नहीं बना है। हम अपने पुरखों की तरह लकीर के फ़क़ीर बनकर अपने बच्चों की खुशियों में रोड़ा नहीं बन सकते। हमारे बच्चे हमारे लिए समाज से अधिक अहमियत रखते हैं और अधिक प्रिय हैं। अगर समाज हमारा बहिष्कार करता है तो हम स्वयं ही ऐसे समाज का बहिष्कार करते हैं जो हमारी खुशियों में साथ न देकर अपना निर्णय हमपर थोपने का प्रयास करता हो।'
उनके इस स्पष्ट बयान के बाद भी समाज में खुसरफुसर जारी रहा और यह शादी चर्चा का विषय बनी रही।
आखिर वह दिन भी आ ही गया जिसका सुहाना और दीपक को बेसब्री से इंतजार था।
हालाँकि दोनों परिवारों को आशंका थी कि निमंत्रित सभी मेहमान शायद न भी आएं लेकिन उनकी आशंका को निर्मूल साबित करते हुए दोनों तरफ के रिश्तेदारों ने बड़े उत्साह से इस अनोखी शादी में भाग लिया और मुख्यधारा के विपरीत चलकर एक उदाहरण पेश किया।
रिश्तेदारों की भारी मौजूदगी में सुबह दोनों का विधिवत निकाह हुआ और शाम को वैदिक व पारंपरिक रीति रिवाज से अग्नि के सात फेरे लेकर दोनों का शुभ विवाह सम्पन्न हुआ।
सुहाना और दीपक ने समझदारी और विश्वास के साथ अपने परिजनों व समाज का विश्वास हासिल किया और गलत रूढ़ियों व परंपराओं का अंधानुकरण न कर लकीर का फ़क़ीर न बनने का एक आदर्श उदाहरण समाज के समक्ष पेश किया।

एक सत्य घटना पर आधारित