Ishq Faramosh - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

इश्क फरामोश - 4

4. नींद से जागी

सपने देखने की एक उम्र होती है. एक उम्र के बाद उन्हें साकार करने के वक़्त आता है. जब पहले के देखे सपने साकार होते हैं तब नए सपने भी आने शुरू हो जाते हैं. सपनों का सिलसिला कुछ ऐसा है कि कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता. सपने जो सोते आदमी को और गहरी नींद में गाफिल कर के मदहोश खुमारी के आलम में ले आते हैं और फिर एक ही झटके के साथ उसे नींद से जुदा कर के हकीकत की तल्ख ज़मीन पर लावारिस छोड़ उड़न-छू हो जाते हैं.

किरण की सपने देखने की उम्र अभी छूटी नहीं थी. अभी तो ज़िंदगी का एक सिरा उसने पकड़ना सीखा ही थी और अचानक से यह गहरी खाई उसकी हकीकत और सपनों के बीच आ कर ठहर गयी थी. ज़िंदगी के पहाड़ कुछ और ऊंचे दिखाए देने लग गए थे. कहाँ तो सोच रही थी कि आसिफ से बात कर के सुजाता के साथ हुयी उस ग़लतफहमी का कोई सिरा पकड़ेगी और कहाँ आसिफ ने शतरंज के सारी गोटियाँ ही बिखेर दी थीं.

अब किरण क्या करे? किसको दोष दे? किससे सवाल करे और किसका जवाब पाए?

उसके दिन और रात मानो लोहे की एक सड़क बन गए थे. जिन पर वह मज़बूत चमड़े से बने जूते पहने चल रही थी. पैरों में लगातार दर्द होता रहता था जो बढ़-चढ़ कर सीने में रखे एक मासूम से मांस के टुकड़े तक पहुँच जाता. कभी कभी इससे भी ऊपर सर में होने लगता. वह तमाम कोशिश करती कि किसी तरह कोई पुल बन जाए उस घर में मौजूद एक मर्द और औरत के बीच जो इन सारे दर्दों की दवा साबित हो सके. लेकिन कुछ न होता. मर्द अपनी मर्दानगी में जकड़ा था. औरत अपनी बेबसी में. और एक नन्ही सी मासूम जान इन सब के बीच एक खूबसूरत महकते फूल की मानिंद खिलती जा रही थी. किरण को डर लगने लगा था इस फूल के भविष्य को लेकर.

किरण औरत से सिर्फ एक माँ बन कर रह गयी थी. उसकी देह ने मर्द की मांग करना तो दूर मर्द के बढ़ते हाथ को झटका दे कर नकारना शुरू कर दिया. एक वक़्त था आसिफ के हाथ के स्पर्श से उसे सिहरन होती थी. एक वक़्त ऐसा आया कि आसिफ के ख्याल से उसे उबकाई होने लगी.

कभी सोचती कि अगर यह तय करना उसके बस में होता कि लड़का होगा या लडकी तो क्या वो चाहती कि लड़का ही हो? क्या वह बेटी की चाहत को नकार देती? यह सवाल उसे इन दिनों

रात-दिन परेशान करने लगा था और वो इसका कोई जवाब नहीं ढूढ़ पा रही थी. हर बार इस सवाल के उठने पर बेटी को गोद में उठा लेती और जी भर कर प्यार करती. उसे झुलाती. गोद में लेकर घंटों पूरे घर के चक्कर लगती टहलती रहती.

बच्ची धीमे-धीमे झूलती गोद में सो जाती तो भी किरण टहलती रहती. ऐसे में कनिका उसे जिद कर के बिठाती और बच्ची को गोद में से लेकर पालने में सुला देती. नीरू गोद की बहुत आदी हो गयी थी. वह कुनमुनाती गोद से छूटने पर.

तब कनिका किरण को समझाती, "बच्चा ज्यादा गोद में रहता है तो देह को बल नहीं मिलता. बच्चा अच्छा से बड़ा नहीं होता. उसको खुला छोड़ने का ज़रूरी है. उसको इतना दबा कर मत रखने का. प्यार करने का लेकिन दम नहीं घोटने का."

किरण को कनिका की इसी बात से कुछ राहत मिलती. प्यार करने का लेकिन दम नहीं घोटने का.

उसे लगता वह भी शायद आसिफ से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगा बैठी है. अब उसे लड़का चाहिए था तो उसकी निराशा स्वाभाविक है. किरण को उसे वक़्त तो देना ही होगा ताकि वह नीरू का बेटी होना स्वीकार कर सके और उस अपनी ज़िन्दगी में वही जगह दे सके जो उसके बच्चे को मिलनी चाहिए. किरण ने अपने दिल को समझाया कि धीरे धीरे वह आसिफ को नीरू की ज़िंदगी में पिता के तौर पर शामिल कर ही लेगी. उसे खुद पर, अपनी दक्षता पर और अपने प्यार की ताकत पर बहुत भरोसा था.

किरण की मैटरनिटी लीव ख़त्म हो गयी थी. काम पर लौटने का उसका मन था भी और नहीं भी. मन बहुत खिन्न था. अपने हालात के चलते. बच्ची से पूरे दिन के लिए दूर होने को भी मन नहीं करता था. एक बार सोचा कि एक महीने के लिए छुट्टी बढ़ा ले, लेकिन अगले ही पल ही ये ख्याल भी आ गया कि उससे कुछ नहीं होगा.

नीरू एक महीने के बाद भी नन्ही ही होगी. सिर्फ एक महीना ही और बड़ी हुयी होगी. वैसी ही खूबसूरत और प्यारी होगी. उसको छोड़ कर जाने का मन तब भी नहीं करेगा. दूसरे अब वो अपना काम भी मिस करने लगी थी. इन सबके अलावा एक और बात भी तय थी कि सिर्फ आसिफ की तनख्वाह से घर नहीं चल सकता था. जिस तरह की सहूलतों की आदत इस घर को थी उस तरह तो हरगिज़ नहीं. सो मन मार कर किरण ने पहली तारिख से दफ्तर जाने का फैसला किया और ये फैसला सब को सुना भी दिया.

आसिफ ने अनमने से हो कर सुना. बिना कोई प्रतिक्रिया दिए. कनिका ने ज़रूर उसका उत्साह बढ़ाया ये कह कर कि अब नीरू मज़े में उसके साथ पूरा दिन रहेगी. ये कि किरण को परेशान होने की कत्तई ज़रुरत नहीं है. सुबह वो अपना दूध पिला कर चली जाये, दिन में नीरू बोतल से दूध पीयेगी और मैश किया हुआ केला खायेगी. बेबी फ़ूड खायेगी. सेब खायेगी. खुश रहेगी.

दफ्तर में सब खुश ही होंगे ऐसा किरण को भरोसा था. वे किरण को मिस कर ही रहे थे. उसका काम भी सफ़र कर रहा था. ये बात कई माध्यमों से उस तक पहुँच चुकी थी.

सो कुल मिला कर किरण अपने काम की अगली पारी खेलने के लिए शनिवार से ही तैयारी में लग गयी थी सोमवार की. जो इत्तफाक से पहली तारिख को ही पड़ रहा था.

तहखानों में वे राज़ तो रहते ही हैं जिन्हें लोग छिपाना चाहते हैं इनके अलावा वे लाशें भी छिपाई जाती हैं जिनके अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकते. ऐसी ही एक लाश किरण ने अपने घर में अपने दाम्पत्य की छिपा रखी थी.

आसिफ भी बेसब्री से किरण के काम पर जाने का इंतज़ार कर रहा था. उसे कई बार किरण को बेबी के साथ मगन देख कर डर लगने लगा था कि कहीं किरण काम से लम्बी छुट्टी न ले ले. ऐसा करने पर वो छुट्टी बिना वेतन की होगी. ये बात वो भी जानता और समझता था. और यही उसके लिए सबसे बड़ी मुश्किल का बायस था.

वो खुद एक टेलीविज़न चैनल में न्यूज़ राइटर था. देखा जाए तो उसकी नौकरी भी अच्छी ही थी. अच्छी-खासी रकम उसके खाते में पहली तरीख को जमा हो जाती थी लेकिन जिस तरह की ज़िंदगी जीने की आदत उसे किरण के साथ रहते हुए हो गयी थी. वो सिर्फ उसकी अकेले की तनख्वाह पर नहीं चल सकती थी.

किरण से उसने शादी बेहद सोच-समझ कर की थी. खुद मुसलमान हो कर हिन्दू लडकी से शादी करना कई मायनों में फायदेमंद सौदा था. पहला ये कि उसे सेक्युलर होने का लेबल तुरंत-फुरंत बिना किसी ख़ास मेहनत किये सिर्फ इसी बात से मिल गया था कि उसकी पत्नी हिन्दू है.

दूसरे मुस्लिम समाज में उसका ओहदा ऊंचा हो गया था. एक तरह से ये लव जिहाद का ही थोडा परिष्कृत रूप था. बस किरण ने निकाह करने से मना कर दिया था सो न चाहते हुए भी आसिफ को सिविल मैरिज के लिए राजी होना पडा था. जिसकी वजह से वह खुद कई तरह की पाबंदियों के तहत बंध गया था.

पहला तो यही कि इस शादी पर भारतीय संविधान के विशेष प्रावधान लागू होते हैं. जिनमें स्त्री धन, दहेज़ निषेध जैसे कई कानून शामिल हैं. इसके अलावा अब वह स्पेशल मुस्लिम लॉ के तहत मिलने वाली चार शादियों की आजादी से महरूम हो गया था. इसके बावजूद वह खुश था. उसका इरादा भी एक ही शादी करने का था. किरण अच्छी, खूबसूरत, उच्च वर्गीय परिवार की, बेहद पढ़ी-लिखी, इकलौती बेटी थी.

ये सभी बातें उसे सूट करती थीं. इनके अलावा किरण खुद एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर मेनेजर पद पर थी. उसकी पढ़ाई और काम को देखते हुए उसके बहुत ऊंचे पद तक पहुँचने की पूरी पूरी संभावना थीं.

शुरू में शादी से पहले और शादी के बाद भी आसिफ इस बात का बेहद खयाल रखता था कि उसकी किसी बात से किरण को दुःख न हो. और वह परेशान न हो. उसे ये भी न लगे कि कहीं उसने आसिफ से विजातीय विवाह कर के कोई गलती की है.

लेकिन वक़्त के साथ वह लापरवाह होता चला गया. वह जिस तरह के माहौल से था, वहां औरत से आज़ाद ख्याली रखना और आत्म-विशवास से अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने की उम्मीद नहीं की जाती. ये माना जाता है कि जो भी फैसला करना होगा मर्द ही करेगा और औरत चुपचाप उसमें अपनी हामी शामिल करेगी.

जबकि किरण एक प्रबुद्ध परिवार से होने के साथ-साथ एक ऐसी माँ की बेटी भी थी जिसने छोटी उम्र से ही अपनी ज़िंदगी की बाग़-डोर अपने हाथ में ले ली थी और एक बहद सफल, उद्देश्य पूर्ण ज़िंदगी जी रही थी. एक सफल उच्च प्रशासनिक पद से रिटायर हो कर वे इंग्लैंड के जाने-माने विश्विद्यालय में प्रोफेसर के पद पर थीं और अर्थ शास्त्र की दुनिया में एक जाना-माना नाम थीं.

अब शादी के कई साल हो जाने पर आसिफ इन सभी बातों से ताल- मेल बिठाने में बहुत मुश्किल का सामना कर रहा था. लेकिन दिल से चाहता था कि उसकी शादी बची रहे और समाज में जो उसका रुतबा बना हुआ है किरण के पति होने से, वह भी कायम रहे.

इसलिए अक्सर कई बातों को जो उसे अन्दर से नागवार गुज़रती थीं, नज़र अंदाज़ कर देता था. इन्हीं बातों के चलते वह अपने परिवार को जो कि इटावा जैसे छोटे से कसबे में था, जिसमें उसके तीन भाई, चार बहनें, उनके अपने लम्बे-चौड़े परिवार शामिल थे कभी अपने घर नहीं बुलाता था. जब मिलना होता तो अक्सर वही खुद अकेला जा कर उन सबसे और अपनी माँ से मिल आता था. पिता उसके अब नहीं थे.

कई बार जब वह इटावा में होता तो अपने चिर-परिचित माहौल और अपने घर में किरण के साथ के बेहद आधुनिक और महानगरीय माहौल में ज़मीन-आसमान का फर्क बेहद मुखर हो कर उसके सामने आता. ऐसे में कई बार उसका दिल चाहता कि उसका एक घर यहाँ भी होता जहाँ वो जब मन चाहे अपने दिलो-दिमाग के आराम के लिए सुकून के कुछ पल बिताने आ सकता.

ये सब उसके लिए कम्फर्ट फ़ूड की तरह था. जो उसकी माँ पकाती थीं. अरहर की दाल-चावल या शलजम गोश्त, आलू गोश्त या फिर कोरमा. ये सुकून उसे अपने बेहद आरामदायक घर में नहीं मिलता था जो किरण की सुरुचि के चलते हलके मध्यम रंगों से सजा था.

जहाँ दीवारों पर खूबसूरत पेंटिंग्स थीं. जहाँ बिस्तर पर हलके रंगों की चादरें बिछी होती थीं और घर खुशबु में महकता था. उसे इटावा का अस्तव्यस्त घर, धूल धक्कड़ भरी कुर्सियों और मैलखोरी भड़कीले रंगों वाली चादरों से ढके बिस्तरों में एक अलग ही तरह का चार्म दिखाई देता था. यहाँ आकर वह एक ख़ास तरह का आराम पाता था. जिसे वह शब्दों में बयान नहीं कर सकता था.

हालाँकि इन सब कमियों और अव्यवस्था के चलते ही वह यहाँ से भागा भी था. और महानगर में जा कर एक सफल ज़िन्दगी बिता भी रहा था. इसके बावजूद उसकी ज़िन्दगी में जो ये पैराडॉक्स था ये उसे समझ में तो नहीं आता था लेकिन इसे वो शिद्दत से महसूस करता था.

किरण की पोशाक भी उसे कई बार असहज कर देती थी. हालाँकि शादी से पहले किरण के इन्हीं आधुनिक परिधानों ने उसे आकर्षित किया था. लेकिन उसका दिल चाहता था कि अब चूँकि किरण उसकी पत्नी है तो उसकी पोशाक कुछ ऐसी होनी चाहिये कि उसके जिस्म के उभारों और टांगों को न दिखाए.

कई बार उसका मन चाहता कि किरण उसकी भाभियों, बहनों और माँ की तरह शलवार कुर्ता पहने और दुपट्टे से अपना सर भी ढके. लेकिन ऐसा करने के लिए कहने की हिम्मत वह कभी जुटा नहीं पाया. मन मार कर अपनी बात मन में ही रख कर बैठ जाता. मगर ये सब बातें अन्दर ही अन्दर उसे खाए जा रही थीं.

इधर नीरू के जन्म के बाद से हालात और भी मुश्किल हो गए थे. आसिफ को पूरी उम्मीद थी कि बेटा ही होगा. उसने कैसे कैसे तो सपने सजा रखे थे बेटे को लेकर. बेटी ने आ कर उसकी सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. कुछ कह नहीं सकता था. लेकिन बात-बेबात गाहे-बगाहे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर ही देता था.

यहाँ तक कि उसने इटावा में बड़े भाई के इस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया कि वे बेटी के जनम की खुशी में घर पर अकीका करना चाहते हैं. वो किरण को लेकर वहां एक ही बार गया था और बेहद शर्मिंदा हुया था. किरण की असहजता को देख कर. उसके बाद न किरण ने आग्रह किया न उसने कभी कहा.

बेटी के होने की खुशी में एक पार्टी किरण की कंपनी के क्लब में की गयी थी. इसी में आसिफ के दोस्त भी शामिल हो गए थे और एक किरण की मम्मी के आने पर होनी तय थी.

एक दो बार ये ख्याल भी आसिफ के मन में आया कि इसमें भला किरण की क्या गलती है लेकिन फिर ये ख्याल भी आया कि किरण क्यों इतना लाड़ करती है बेटी को. क्यों नहीं बेटी को आया के सुपुर्द कर के आसिफ के साथ ज्यादा वक़्त बिताती जैसा कि पहले करती थी जब बच्ची पैदा नहीं हुयी थी.

वो इस बात को समझ ही नहीं पाया कि माँ के लिए पहला बच्चा या फिर हर बच्चा कितना महत्वपूर्ण होता है. ख़ास तौर पर उस माँ के लिए जो कुछ ही दिनों बाद अपने काम पर वापिस जाने वाली हो. जिसे पता हो कि अब वह नन्हे से बच्चे को पूरा दिन नहीं देख पायेगी.

मुख़्तसर सी बात ये थी कि आसिफ औरत हो कर नहीं सोच सकता था. वैसे ही जैसे कि वो सेक्युलर होने का दावा तो कर सकता था. लेकिन सही मायनों में सेक्युलर होना आसिफ के खून में ही नहीं था, न उसके बस में.

घर में उसे अब घुटन होने लगी थी. उसे किरण हर तरफ घर में फैली हुयी नज़र आती. हर जगह किरण की छाप थी. हर कोना किरण का था. हर चीज़ किरण की थी. आसिफ बहुत थोडा रह गया था इस घर में. और अब तो किरण ने उसकी तरफ देखना भी बंद कर दिया था. उसके हाथ बढ़ाने पर इग्नोर करके बेटी के कमरे में चली जाती थी.

दोनों के बीच अंतरंगता पूरी तरह ख़त्म हो चुकी थी. बेटी के बेटे के होने का मेसेज दे दिया था उस पर भी किरण ने जो बवाल किया था उस पर आसिफ खासा नाराज़ था. लेकिन वह चुप रह गया था. उस बात को लेकर उसे बेहद गुस्सा था.

अब उससे गलती हो गयी थी तो हो गयी थी. आखिर वो मर्द है. हो जाती हैं गलतियां. इस पर उससे सवाल-जवाब करने की क्या ज़रुरत थी? बीवी है तो शौहर की गलती को खुद ही दबा देती. छिपा देती. चुपचाप पी जाती.

लेकिन नहीं. पढ़ी-लिखी है न. अमीर भी है. तो अंगूठे के नीचे दबा कर तो रखेगी ही न. मगर ये तो नहीं होने देगा आसिफ. आखिर तो मर्द है. ये बात रह-रह कर उसके ज़ेहन में आती और दब जाती. लेकिन इस दौरान उसका चक्कर इटावा लगता और ये भावना फिर उभर आती.