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लागी छूटे ना

शिव ....रमा जब भी यह नाम सुनती है, मन में किसी मंदिर की घण्टी बजने लगती है। कितना गहरा है इस शब्द से लगाव, यह उसकी बरबस छलक आई आँखें बता सकती हैं। एक ऐसा प्रेम जो अधूरा था, एक तरफा था, पर कितना सुंदर था ! यह उसके जीवन का पहला नहीं अंतिम प्यार साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद कोई पुरूष उसे अच्छा ही नहीं लगा। बचपन में उसकी पढ़ाई का विराध करते समय उसके पिता अक्सर ताना देते थे ’कलेक्टर बनेगी क्या’। शायद तभी से उसके मन-मस्तिष्क में कलेक्टर शब्द बस गया हो। शायद इसीलिए कलेक्टर शिव को पहली दृष्टि में ही वह प्रेम करने लगी थी। शिव की नजरें भी उसकी तरफ उठी थीं ,फिर उठती ही रही थीं।उन नजरों में जाने क्या-क्या होता था कि उसकी अपनी नजरें झुक जाती थीं । उन नजरों की छुअन से वह लाजवंती की तरह सकुचा जाती। कितनी कल्पनाएँ.....कितने सपने....कितने अरमान पलने लगे थे उसके पतझर से जीवन में। खुशी से वह खिली रहती....दमकती रहती। भूल गयी थी कि दोनों के जीवन का यथार्थ दो ध्रुवों की दूरियाँ जितना है कि वे कभी एक नहीं हो सकते ,पर सपने में वह अक्सर उससे मिलती। कल्पनाओं की रंग वर्षा में उसके संग भीगती........गाती, नृत्य करती। हमेशा उसका मन शिवमय हुआ रहता, फिर भी मन नहीं भरता था। शिव भी गाहे-बेगाहे कुछ ऐसी बातें कह जाता कि वह इस भ्रम में पड़ जाती कि वह भी उसके प्रति प्रेम रखता है, पर उसने कभी इस बात का इजहार नहीं किया। शिकायत करने पर कहता-हर बात को बताने की जरूरत नहीं होती.....। जब वह इजहार करती तो भी कहता -सब जानता-समझता हूँ। बार-बार बताने की जरूरत ही नहीं। उसकी प्रेम भरी भावुक सी आवाज उसके मन को कहीं गहरे छू लेती थी। वे करीब से कभी नहीं मिले। ना एकांत ही उन्हें नसीब हुआ। हमेशा भीड़ में ही मुलाकात हुई पर वहाँ भी वह बिहारी की नायिका सी 'भरे भौन में करत हैं नैनन ही सो बात'बनी रही |शिव की आँखें ,पूरी देह भाषा वही बोलती थीं ,जो उसकी आकांक्षा थी। हो सकता है वह भ्रम हो, मृगतृष्णा हो पर कई वर्षों तक यही सच बन गया था। शिव के दूसरे शहर ,फिर विदेश चले जाने के बाद भी उसका लगाव कम नहीं हुआ। हाँ, वियोग में उसका मन कसकता था, उसकी आँखें बरसने लगती थीं। आज भी जिस दिन वह उसे शिद्दत से याद करती है, सो नहीं पाती। रोती रह जाती है। वह अपनी दुनिया में खुश है संतुष्ट है, इसलिए वह उसे फोन नहीं करती। नहीं चाहती कि उसके कारण वह परेशान हो। जानती है कि उसने उस तरह उसे कभी नहीं चाहा, जिस तरह वह चाहती रही। दोनों के प्रेम में अंतर है पर ऐसा भी तो नहीं हो सकता कि उधर कुछ भी ना हो। ना होता तो उसे आभास कैसे होता! उनका प्रेम दुनियावी कभी नही रहा। कुछ पाने की आकांक्षा से रहित शुद्ध-सात्विक प्रेम! फिर यह कसक क्यों! शायद इसलिए कि ना चाहते हुए भी प्रेम में चाह आ ही जाती है। मानसिक प्रेम भी दैहिक रूप की कुछ न कुछ इच्छा रखता ही है ,क्योंकि मन देह से बाहर की चीज नहीं। तो क्या वह शिव को दैहिक रूप से पाना चाहती थी? वह खुद को टटोलती है तो एक आवेग से भर जाती है। यह आवेग कुछ और ही बयान करता है ,जिसे वह झुठलाती रही है। शायद शिव के साथ एकांत में वह संयम खो देती। उसी में लीन हो जाती। गनीमत है कि समय ने कभी इसकी इजाजत नहीं दी। दोनों ने इसका अवसर आने ही नहीं दिया। वह कभी नहीं चाहती थी कि शिव अपने जीवनसाथी से बेवफाई करे। किसी को चाहना अलग बात है, पर पाने की इच्छा करना अलग बात! पर पाने...खोने से प्रेम पर कोई असर नहीं पड़ता। प्रेम तो रहता है किसी न किसी रूप में। वह कभी खत्म नहीं होता। आग में तपाए जाने पर निखरता ही है, जलकर भस्म नहीं हो जाता। शिव को वह कभी नहीं भूल सकती। स्पर्श-रहित इस प्रेम ने उसकी देह के अंग-प्रत्यंग ही नहीं ,मन-आत्मा को भी छुआ है। प्रेम का आस्वाद भले ही गूँगे को गुड़ की तरह अव्यक्त हो पर उसे व्यक्त करने की कोशिश से साहित्य समृद्ध हो रहा है सदियों से, वह भी वही कर रही है क्योंकि शिव ने यही तो कहा था कि अपने प्रेम का प्रवाह रचना की तरफ मोड़ दें। अपनी हर किताब की पहली प्रति वह आज भी शिव को भेजती है और वह उसे बधाई जरूर देता है। तो क्या वह उसके प्रेम का नहीं साहित्य का सम्मान करता रहा है? जिसे वह प्रेम समझ बैठी थी। वह भ्रम भी कितना लुभावना था, वह भ्रम जिस दिन टूटा था, वह बुझ गयी थी। फिर वह कभी नहीं खिली। जीवन जीती तो रही पर उसका रोमांच गायब हो गया। जिन्दगी में प्रेम का होना ही इंसान को सही मायने में जिन्दा रखता है। अब जिन्दगी बढ़ तो रही है पर उसी मोड़ पर ठहरी भी हुई है, जहाँ से शिव के प्रेम का भ्रम टूटा था। वह वहीं खुद को बिखरा हुआ पाती है, काश , शिव इस सत्य को समझ सकता। हॉलाकि शिव ने ना तो इकरार किया था, ना इन्कार। ना प्रोत्साहन ना हतोत्साहित ही । एक वही थी जो अपनी तरफ से सब कुछ गढ़ती........गिराती रही। पता नहीं उसकी आत्मा की यह कैसी अबूझ प्यास है, जो पूरी उम्र बीत जाने और कई जलाशयों के समीप रहने पर भी ना बुझी। कारण भी साफ था वह जिन जलाशयों के पास थी। जिसके जल को देखती रही थी,वे सही मायने में जलाशय थे ही नहीं।कहीं जल पीने लायक नहीं था, कहीं उस जल पर पाबन्दियाँ थीं, कहीं वह जल किसी खास के लिए आरक्षित था।

शिव के बाद उसने अपने जीवन को लेखन की तरफ मोड़ दिया। सोच लिया कि प्रेम-प्यार का रास्ता उसके लिए नहीं । बस बहुत हुआ। हृदय का कितना तो रक्त पिला चुकी उसे। कितना कुछ खो दिया उसके लिए पर मिला क्या! सिर्फ अतृप्ति.....भटकन। अब और नहीं। शिव अन्तिम प्यार रहेगा उसका। कसक है तो रहे। अकेली है तो रहे........जब यौवन विदा ले लेगा, फिर कौन प्रेम की बात करेगा? इस दुनिया में प्रेम के लिए उम्र की भी शर्त होती है भले ही लोग कहते रहें कि प्रेम उम्र नहीं देखता। शिव ने भी एक बार उससे कहा था कि प्रेम से उम्र का क्या लेना-देना? ऐसा उसने तब कहा था, जब उसने कहा था कि वह उम्र में उससे बड़ी है। पर शिव के मन में उम्र का फासला एक दूसरा भाव पैदा करता ही रहा। भले उसने यह दर्शाना नहीं चाहा। पुरूष के लिए स्त्री की उम्र मायने रखती ही है। उसने कई संयमी, आदर्शवादी पुरूषों की आँखों में भी कमउम्र नवयौवनाओं के प्रति ललक देखी है। बाकियों की बात तो छोड़ ही दें |वे तो हर लड़की के लिए लार टपकाते दिख जाते हैं। लड़की शब्द में ही इतना आकर्षण है कि देव-दानव, ऋषि-मुनि सबकी नीयत डिग जाए। पुरूष के लिए अपनी उम्र मायने नहीं रखती है। वह साठे पर भी पाठा बना फिरता है। पुरूष प्रधान समाज ने इतनी अहमन्यता, इतना श्रेष्ठभाव उसमें प्रविष्ट करा दिया है कि वह दिव्य हो उठा है और अपने सिंहासन से उतरना नहीं चाहता। उसका वश चले तो दुनिया की हर सुंदर लड़की उसके रनिवास में हो। जब भी वह ’पावर’ में आता है अधिक से अधिक लड़कियों का शिकार करता है। यही उसे पौरूष लगता है ,पर शिव में उसे पुरूष की यह कमजोरी नहीं दिखी थी। वह अपने पद, कद, सौन्दर्य, संगीत, साहित्य और खेल जैसे अनेकानेक गुणों से किसी भी लड़की को प्रभावित कर सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। वह सभा-सम्मेलनों में अक्सर पत्नी के साथ जाता ओर उसी के करीब रहने की कोशिश करता। उसने उसमें कभी छिछोरापन नहीं देखा इसी कारण वह उसे और अच्छा लगता। शिव ने प्रेम-विवाह किया था। दोनों की जोड़ी सुग्गा-सुग्गी सी थी, फिर भी उसके प्रेम पर इसका असर नहीं पड़ा।

रमा ने कभी शिव से किसी भी तरह का लाभ लेने की कोशिश नहीं की। उसके एक मित्र ने कहा भी कि वह इतने महत्वपूर्ण पद पर है तुम आसानी से उससे कोई प्लाट अपनी संस्था के लिए अलाट करवा सकती है। कम से कम कोई सरकारी नौकरी तो पा ही सकती हो। उससे कहो तो..... पर उसने जवाब दिया कि वह ऐसा कभी नहीं कर सकती। जिस दिन वह उससे कोई मांग रखेगी, उसी दिन अपनी नज़र से गिर जाएगी। उसकी नजरों से तो गिरेगी ही। अपना संघर्ष वह खुद करेगी। अगर वह उससे प्रेम नहीं कर रही होती तो शायद अपने करियर के लिए उससे मदद माँगती भी..... पर प्रेम करते हुए नहीं। यह तो स्वार्थ होगा।’ मित्र ने उसकी नासमझी पर सिर पीट लिया। मित्र प्रेम के स्वाभिमान से परिचित नहीं था या फिर इसी प्रकार के प्रेम को समझदारी मानता था। अक्सर वह देखती है लोग अच्छी तरह देख-भाल, सोच-समझकर प्रेम करते हैं। लड़कियाँ भी जाति-धर्म, पैसे, परिवार को रूप रंग से ज्यादा महत्व देती हैं । वे वहाँ प्रेम करती हैं, जहाँ ऐसा संभव नहीं, वहाँ सिर्फ टाइमपास और मौज-मजा के लिए ही प्रेम है। ’प्रेम हो जाता है’ का तर्क अब मूर्ख देते हैं। ऐसे में शिव के प्रति उसके प्रेम को लोग क्या समझेंगे ? उसने शिव को इसलिए तो नहीं चाहा था कि वह अधिकारी है, पर एक मित्र ने एक दिन ताना मार ही दिया कि ’शिव कलेक्टर है, इसलिए.......।’ शिव के कलेक्टर होने ना होने से रमा को क्या फर्क पड़ रहा था ? वह शिव को उसके गुणों के नाते चाहती थी, वह कलेक्टर ना भी होता, तब भी उसके मन में वही स्थान पाता। देश में कलेक्टरों की कमी तो नहीं, पर क्या सभी प्रेम के लायक होते है ? पर दुनिया के लोग व्यावहारिक हैं। लाभ की भाषा समझते हैं, तभी तो सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाते हैं। वह आज भी वहीं की वहीं हैं। एक अध्यापिका......एक साधारण सी लेखिका। अन्य लेखिकाओं सी सफल कहाँ है वह ! कारण भी है सबके साथ किसी न किसी रूप में सफल पुरूष हैं। उनका हर कदम पर साथ देने वाले, प्रोत्साहित करने वाले। पुरस्कार-सम्मान का लाभ दिलवाने में भूमिका निभाने वाले और उसके साथ कोई नहीं। हाँ, पैर खींचने वाले कई सारे हैं । ये वे ही लोग हैं, जिनके ईशारों पर चलने से उसने इन्कार कर दिया। उनके साँचों में फिट ना हो सकी। अपनी अस्मिता, अपने स्वाभिमान की उसे बड़ी कीमत देनी पड़ी है, पर वह इस बात से संतुष्ट है कि उसने समझौतों की राह पर चल कर कुछ हासिल नहीं किया ।उसके पास जो कुछ है अपने श्रम से अर्जित किया हुआ है । उसके अंदर जो आग लोगों को दिखती है वह इसी स्वावलम्बन की आग है। कितनी स्त्रियों को मिलता है आजादी का ऐसा सुख ! सुरक्षा, संरक्षण के नाम पर अपने स्त्रीत्व को कुर्बान कर देने वाली स्त्रियाँ उसके सुख को नहीं समझ सकतीं। समझ तो पुरूष भी नहीं सकते, जिनके अनुसार बिना पुरूष के कोई स्त्री जी ही नहीं सकती। पुरूष का साथ उसके जीवन की अनिवार्य शर्त है। इसी कारण उसके जीवन में प्रवेश के इच्छुक पुरूषों ने पहला प्रश्न यही किया कि अकेले कैसे रहती हैं? इस ’अकेले’ शब्द के अनेक निहितार्थ थे। पर सबसे बड़ा अर्थ है ’देह’। यानी पुरूष देह स्त्री के लिए जरूरी है और प्रत्यक्ष में कोई पुरूष नज़र नहीं आ रहा तो जरूर छिपाया जा रहा है |यानी झूठ बोला जा रहा है। मनोविज्ञान के एक प्रोफेसर ने तो एक दिन यहाँ तक कह डाला कि पुरूष का साथ न करने वाली स्त्री जल्द ही बूढ़ी, बेरौनक, रसहीन, शुष्क होकर स्त्री का सारा सौन्दर्य खो बैठती है। उसने उनसे पूछा कि फिर वह क्या करे ? उसके पास तो कोई पुरूष नहीं तो उन्होंने कहा-आपको जो अच्छा लगे, बुलाइए |बिना मन से बँधे सम्बंध बनाइए और थोड़ी देर बाद बिना अपराध बोध के विदा कर दीजिए। जुड़ना नहीं है ना ज्यादा देर अपने घर रोकना है, वरना बदनामी होगी।’ उनके इस सुझाव पर वह चौक पड़ी। एक बुर्जुग प्रोफेसर जिनकी उसकी उम्र की बेटियाँ है ,उसे कैसी सलाह दे रहा है? उन्होंंने उसके आगे कहा कि किसी एक का चयन करने से वह आप पर हॉवी हो सकता है ,इसलिए पुरूष बदलते रहिए। उसने जब यह कहा कि- यह तो वेश्यावृति -सा है |तो उन्होंने कहा-कदापि नहीं, वेश्यावृति वहाँ होती है ,जहाँ पैसा लेकर संबंध बनाया जाता है| यहाँ तो सिर्फ देह-सुख के लिए रिश्ता बनेगा।’ वह समझ गई कि इनका उद्देश्य बिना कोई जिम्मेदारी लिए मुफ्त में स्त्री सुख भोगना है और इसीलिए उसका ब्रेनवाश करने आए हैं। उसने सोचा-अगर देह सुख चाहिए होगा तो अपने मनपंसद आकर्षक पुरूष को चुना जाएगा। प्रोफेसर से बूढ़े, बदसूरत, भयावह चेहरे वाले शख्स को नहीं। उसने बड़ी ही उपेक्षा से प्रोफेसर की बात टाल दी और कहा-कुछ अच्छी बात करिए। मैं आपका सम्मान करती हूँ मेरे पिता तुल्य है। इस तरह की बातें मत करिए।’ प्रोफेसर साहब का चेहरा उतर गया। फिर कभी वे उसके घर नहीं आए।

शिव कहाँ समझ पाता है कि एक स्त्री के लिए यह समाज कैसा निर्मम है ?वह तो शायद उसके प्रेम को भी नहीं समझ पाता है|तो भी क्या ?वह उसे पत्र लिखेगी ।एक आखिरी पत्र बिना उसके उत्तर की उम्मीद के और फिर अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाएगी |

मेरे स्नेह प्राण

जब से तुम जीवन में हो किसी पीयूष श्रोत की तरह मेरे जीवन को अमरता प्रदान कर रहे हो |

एक लंबे अरसे के बाद तुम्हें यह पत्र लिख रही हूँ |जरूरत तो नहीं थी फिर भी |अपनी भावनाओं को शब्दों में बांधना आसान तो नहीं है फिर भी |एक कोशिश ..|तुम कहोगे पत्र लिखने की जरूरत क्यों नहीं थी ?पूछोगे ?मुझे तो लगता है जानते होगे यह बात |पत्र उसे लिखा जाता है ,जो दूर हो तुम तो हर पल मेरे पास हो ..मेरी धड़कनों में शामिल |हर बात तुम जानते होगे |मेरा सारा संघर्ष ...सारे दुख...चाहतें...शिकवा-शिकायतें भी ...देह से दूर रहने की आहें भी |सर्द रातों में ऊष्मा की खोज में भटकते मन की झल्लाहट भी|स्मृतियों में बहे आँसू भी |क्या नहीं |जानती हूँ कहोगे –बिलकुल नहीं |पर तुम्हारे इस 'ना' के पीछे की 'हाँ' को मैं जानती हूँ |याद है शुरूवाती दिनों में जब मैं तुम्हें अपने दिल की बात बताती थी तुम कहते थे –मैं सब जानता हूँ सब ...बार-बार बताने की जरूरत नहीं |फिर मैंने बताना छोड़ दिया था और कभी नहीं लगा था कि मेरे मन की आवाज तुम तक नहीं पहुँच रही है |

ये तुमसे कैसा संबंध है शिव ..कभी नहीं समझ पाई मैं कि कैसे और क्यों बंध गयी तुमसे ?मैं तो आजादी की पक्षधर हूँ |क्या है तुममें ऐसा ,जो मुझे तुम्हारी तरफ खींचता है |देह का आकर्षण तो यह नहीं हो सकता |ये ठीक है कि तुम युवा हो सुदर्शन हो ,पर तुमसे भी ज्यादा सुदर्शन युवा चारों तरफ हैं ,पर उनकी तरफ तो मन नहीं जाता |शायद इसलिए भी कि वे केवल देह रूप हैं ,तुम्हारी तरह मन रूप नहीं |ये मन भी कितना अजीब है न।ऐसी जगह जाकर अटक जाता है ,जहां से निकलने की कोई राह नहीं होती |शिव ,तुमने तो मुझे सिर्फ नजरों से छुआ है पर इस छुअन ने मेरे पूरे अस्तित्व को इस तरह अपने आगोश में ले लिया है कि उससे अलग होना 'न अस्ति' होना है |देह से तुम कभी मेरे पास नहीं आए ,न मैं ही कभी तुम्हारे करीब गयी फिर हम कैसे अभिन्न हो गए ?एकमेव हो गए ?अर्धनारीश्वर की कल्पना को जीया है मैंने शिव |मेरे सपनों के घर में तुम मेरे साथ रहते हो सिर्फ मेरे बनकर |और यह कम नहीं है |वहाँ किसी और का तुम्हारे ऊपर कोई अधिकार नहीं |जबकि हकीकत में तो तुम पर औरों का ज्यादा हक है |पुत्र,पति,पिता ,अधिकारी,कवि,कलाकार तुम्हारे कई रूप हैं और हर रूप में तुम दूसरों के हो मैंने भी तुम्हारे उन हिस्सों में कभी घुसने की कोशिश नहीं की |ना कभी सोचा कि सब कुछ छोड़कर तुम मेरे पास आ जाओ |मैंने तो बस तुम्हारे भीतर के उस खामोश शिव को चुराया है,जो मेरे पास आकर मुखर हो जाता है |शायद तुम भी उसको नहीं जानते |मैं उसे जानती हूँ समझती हूँ |वह तुम्हारे पास छटपटा रहा था ,इसलिए मैंने उसे चुरा लिया |दरअसल वह मेरी रूह का ही आधा हिस्सा है जो विधाता ने भूल से तुम्हारे भीतर रख दिया था |मैं अधूरी थी उसके बिना ,वह भी अधूरा था |दोनों मिले तो शांति मिली |वह मेरा अपना है |उसी से मैंने खुद को पाया है |उसी ने मुझे अभिव्यक्त किया है दुनिया में अपनी पहचान दिलाई है |लोग सोचते हैं मैं कैसे अकेले जी लेती हूँ ..इतना कुछ कर लेती हूँ |उन्हें नहीं पता कि तुम एक पल के लिए भी मुझे अकेला नहीं छोड़ते |तुम्हारी ही ऊर्जा ,शक्ति,सौंदर्य से मैं सम्पूर्ण हो रही हूँ ,वरना मैं भी एक स्त्री मात्र बनकर रह जाती |कुआं खोदकर पानी पीने वाली श्रमिक स्त्री या |मर्दों के समाज में अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए संघर्ष करने वाली विमर्शकार |निरंतर के संघर्षों ने अगर मुझे रूक्ष,कठोर व निर्मम नहीं बनाया तो उसका कारण सिर्फ तुम हो शिव !तुम्हारे ही कारण मेरे सपने बदरंग नहीं हुए |भावनाएँ बेरंग नहीं हुईं |प्रेम की कोमल कामनाएँ मुझमें अंगड़ाइयाँ लेती हैं |उम्र के इस दौर में भी प्रेम कविताएं लिख सकती हूँ |कितना अजीब हैं न हजारों के बीच अपने आप को तलाशना और पा लेने पर सोचना जिसकी तलाश थी ,वह तुम हो |जब तक तुम यहाँ थे तुम्हें देखने का अवसर मिल जाता था |फिर तुम चले गए तुम्हें देखना दुर्लभ हो गया |पर दूरी ने तुम्हें और भी करीब कर दिया |अब तो मैं पूरी तरह शिवमय हो गयी हूँ |अब तो ये हाल है कि तुमसे मिलने से दर लगता है |कहीं तुम कुछ ऐसा न कर दो कि मेरा मन टूट जाए |तुमने कभी प्रेम का इजहार नहीं किया |कभी भावनाओं की नाँव पर नहीं बैठे |पता नहीं प्रेम के तराजू के तुम्हारे पलड़े पर कुछ है या नहीं |मेरा पलड़ा हमेशा इतना भारी रहा है कि मैं ही तुम्हारे पलड़े पर कुछ न कुछ रखती रही |शायद मेरा प्रेम एक तरफा हो |पर उससे मुझे क्या फर्क पड़ता है ?मैं तो तुम्हें प्रेम करती हूँ और इस प्रेम के बदले मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए |मैं तुम्हें किसी उलझन में नहीं डालना चाहती |तुम अपना जीवन अपने अपनों के साथ खुशी से जीओ|मेरे पास जो शिव है ,वह मेरे लिए बहुत है |वह शिव खंडित नहीं पूर्ण है क्योंकि मुझे पूर्ण करता है|उसके होते मुझे कुछ नहीं चाहिए ,तुम्हारा खंडित व विभक्त प्रेम भी नहीं |

तुम मेरे शहर आए ,मैं मिलने गयी पर तुम भीड़ से घिरे थे पहले की ही तरह |मैं तुमसे भीड़ में कैसे मिलती ?तुम्हारे शहर भी मेरा आना-जाना लगा रहता है ,पर कैसे कहूँ तुमसे मिलना चाहती हूँ |एक अनजाना डर मुझे सताता है-कहीं तुम मेरे शिव नहीं निकले तो ...मैं इस आघात को कैसे सह पाऊँगी ?मैं उस खुशी को ...उस सुख को नहीं खोना चाहती ,जो मेरे शिव से मुझे मिलती है |कहीं मिलते ही तुम मेरे शिव को वापस न ले लो |फिर मैं कैसे जी पाऊँगी ?अकेलापन मुझे निगल जाएगा |मैं संसार की कटुताओं का सामना नहीं कर पाऊँगी |शिव ,तुम निरंतर ऊंचाई की तरफ बढ़ रहे हो |मुझे अच्छा लगता है तुम्हें सफल और लोकप्रिय देखकर |मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ शिव |

शिव एक अजीब बात हमारे रिश्ते में यह भी है कि जब मैं अपनी आँखों के सामने मंच पर देखती हूँ ,तो तुम उतने अपने नहीं लगते |तुम्हारे चेहरे पर अधिकारी होने का रोब होता है| तुम भीड़ में मुझपर उतनी ही दृष्टि डालते हो जितना अन्य लोगों पर |कभी-कभी तो लगता है तुम दूसरों को ज्यादा तबज्जो देते हो |चापलूसों की एक भीड़ तुम्हें हर जगह घेर लेती है और तुम्हारे साथ फोटो के लिए मानो मरी जाती है |मैं जानती हूँ यह भीड़ सिर्फ इसलिए है कि तुम एक उच्चाधिकारी हो| तुम्हारे गुणों से लोभित लोगों की यह भीड़ नहीं है |ये तितलियाँ हैं जो फूलों का रस लेकर उड़ जाती हैं |ये वे मधुमक्खियाँ नहीं ,जो उस रस को शहद बनाती हैं |उसे इतना मोहक रूप-रंग ,स्वाद और मिठास देती हैं कि फूल समझ नहीं पाता कि यह उसका ही रस है |मधु मक्खियों की लगन ,उनका परिश्रम और प्रेम नश्वर फूल को अमर कर देता है |

पर जब तुम सामने नहीं होते ...बेहद अपने लगते हो |इतने पास कि तुम्हारी साँसों की आवाज सुन सकती हूँ |तुम्हारी देह की ऊष्मा महसूस कर सकती हूँ |..तुम्हारे होंठों की मिठास चख सकती हूँ |है न अजीब !जाने क्या हो गया है मुझे ...!सुना था जब कृष्ण राधा को याद करते थे खुद राधा हो जाते थे और कृष्ण-कृष्ण रटने लगते थे |यही हाल राधा का था ,वह भी राधा राधा रटने लगती थी | मैं जब भी तुम्हें याद करती हूँ तड़पने लगती हूँ |क्या यह तुम्हारी तड़प है ?मुझे लगता है मैं मैं नहीं तुम हो और मैं जो चाह रही हूँ ,वह दरअसल तुम्हारी चाहत है ,मेरी नहीं |पता नहीं तुम कभी तड़पते हो या नहीं |पता नहीं मेरी बात समझते हो या नहीं या फिर कितना समझते हो ?या फिर समझकर भी न समझने का अभिनय करते हो |

कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम वो हो ही नहीं ,जो मेरे रोम-रोम में समाया है |बचपन में मैं कृष्ण की भक्त थी |मीरा की तरह कृष्णमय रहती थी |कहीं कृष्ण ने ही तो तुम्हारा रूप नहीं धार लिया है |यह सोचकर कि मैं 'निरालंब कित' दौडूंगी|या फिर तुममें ही उसने अपना रूप दिखाया है ...|कहीं ऐसा तो नहीं तुम मेरे कृष्ण हो ही नहीं बस उसका अभिनय करने वाले नट हो और अपना किरदार निभाकर वापस अपनी दुनिया में चले जाते हो |पर मैं कहाँ जाऊँ? मेरी तो कोई और दुनिया है ही नहीं |

तुमसे पहले भी कृष्ण का किरदार किसी ने निभाया था और मैं भ्रम में पड़ी थी फिर वह भरम टूट गया |मैं कृष्ण को ही भूल बैठी |फिर तुम आए |मेरा कृष्ण जिंदा हो गया |वर्ष पर वर्ष बीतते जा रहे हैं ,पर यह भ्रम नहीं टूट रहा |शायद तब टूटे ,जब वह कृष्ण सच ही मुझे लेने आए ,जिसके तुम प्रतिरूप हो |शायद शिव शायद |देखो न तुम्हारा नाम भी तो उसी का नाम है |रूप-रंग सम्मोहन सब उसी सा |उसी की तरह संगीतमय हो और हाँ ,स्वभाव भी उसी -सा| तभी तो गाय,गंगा,गौरी एक साथ|

तो भी क्या ?मैं बस तुम्हारे हृदय की संगिनी हूँ |आधी राधा ..काधा से पूरी होने वाली |मेरे इस उद्गार को पढ़कर तुम बावली कहो या और कुछ और |मैं तुमसे कुछ नहीं छुपा सकती शिव ..|