Paajeb - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

पाज़ेब - भाग(२)

हमीदा खिड़की पर खड़े होकर यूँ ही सोच रही थीं तभी शह़नाज़ उसके पास आकर बोली....
क्या हुआ अम्मीजान?आप क्या सोच रहीं हैं? सब खैरियत तो हैं।।
हाँ!सब खैरियत हैं,यूँ ही भाईजान की तबियत का ख्याल आ गया,कितने सालों से बीमार हैं ,मर्ज़ भी पकड़ में नहीं आता,हमीदा बोली।।
आप इतना क्यों घबरातीं हैं? खुदा के फ़जल से मामूजान बिल्कुल अच्छे हो जाऐगें,शह़नाज़ बोली।।
उम्मीद तो यही है,फिर जो अल्लाह की मर्ज़ी,हमीदा बोली।।
अल्लाह की भी यही मर्ज़ी हैं कि मामूजान जल्दी से अच्छे हो जाएं,शह़नाज़ बोली।।
आमीन..! आपकी दुआ कूबूल हो,हमीदा बोली।।
अच्छा! ये बताइएं कि खाने में क्या बना रहीं हैं? हमें तो भूख लग रही है,शहनाज़ बोली।।
भाईजान का तो परहेजी खाना चल रहा है,उनके वास्ते तो वही बनाना पड़ेगा,लेकिन आपके लिए हम कुछ अच्छा सा बना देते हैं,हमीदा बोली।।
शुक्रिया अम्मीजान! हम जब तक कुछ पढ़ लेते हैं और इतना कहकर शहनाज़ दूसरे कमरें में चली गई,लेकिन हमीदा अब भी बैचेन थी,कोई तो बात थी तो उसे परेशान कर रही थी,लेकिन फिर मन मारकर वो खाना बनाने मे तल्लीन हो गई।।
ऐसे ही एक दो दिन बीते अब हमीदा के आ जाने से मुर्तजा साहब की तबियत कुछ सम्भली थी,शहनाज़ दिनभर घर में बैठे बैठे उकता गई थी,इसलिए उसने हमीदा से बाहर जाने के लिए पूछा....
अम्मीजान! हम बाहर चले जाएं।।
नहीं! आप हर्गिज़ बाहर का रूख़ नहीं करेंगीं,हमीदा बोली।।
मगर क्यों? अम्मीजान!शहनाज़ ने पूछा।।
आप उल्टी सीधी जगह चलीं जातीं हैं,उस दिन हम कितना घबरा गए थे,हमीदा बोली।।
अब ऐसा नहीं होगा अम्मीजान!शहनाज़ बोली।।
हमें आप पर यकीन नहीं,हमीदा बोली।।
इतनी बेरूखी़ अच्छी नहीं अम्मीजान!शहनाज़ बोली।।
आपका दिमाग़ खराब हो गया है,ये कैसी बदजुबानी कर रहीं हैं आप? हमीदा बोली।।
दोनों की बातें मुर्तजा साहब दूसरे कमरें से सुन रहे थे तो वें बोले...
क्या हुआ हमीदा? आप खामख्वाह इतना क्यों बिगड़ रहीं हैं बच्ची पर?
ऐसा कुछ नहीं है भाईजान! ये फालतू की जिद़ लेकर बैठ गईं हैं,हमीदा बोली।।
ऐसी भी क्या जिद़ है?जो आप पूरी नहीं कर रहीं हैं,मुर्तजा साहब ने पूछा....
कुछ नहीं भाईजान! बस बाहर घूमने जाना चाहतीं हैं,हमीदा बोली।।
तो जाने दीजिए ना! मुर्तजा साहब बोले।।
ये ना जाने कहाँ कहाँ घूमने चलीं जातीं हैं? हमीदा बोली।।
अब ना जाएंगी,हम बोल देते हैं,मुर्तजा साहब बोले।।
जैसी आपकी मर्जी,हमें क्या? हमीदा बोली।।
और फिर शहनाज़ को बाहर जाने की इजाजत मिल गई,लेकिन काफ़ी हिदायतों के साथ कि वो फिर से उस हवेली की तरफ़ नहीं जाएगीं,शहनाज़ ने हाँ भी कह दी,शहनाज़ घूमने के लिए बाहर निकल पड़ी लेकिन कुछ देर घूमने के बाद वो खुदबखुद उस हवेली के करीब आ पहुँची,उसे कुछ भी पता नहीं चला,ना चाहते हुए भी वो हवेली के सामने थी,
तभी उसे पाज़ेब की घूँघरुओं की आवाज़ सुनाई दी,वो उस तरफ़ पहुँची लेकिन वहाँ कोई भी ना था,फिर वो आवाज़ दूसरी ओर से आई ,शहनाज़ उस ओर चली गई लेकिन वहाँ भी उसे कोई ना दिखा,वो हवेली से बाहर आने को हुई तो उसे हवेली के भीतर ही बने एक खण्डहरनुमा पुराने कुएँ से आवाज़ आती हुई सुनाई दी....
आप यहाँ फिर से आ गईं।।
आप कौन हैं और हमसे क्या चाहतीं हैं?शहनाज़ ने पूछा।।
कुछ नहीं बस आप यहाँ से चली जाइए,उस आवाज ने कहा।।
लेकिन हम उस कुएँ में झाँककर देखना चाहते हैं,शहनाज़ बोली।।
क्या करेगीं आप वहाँ झाँककर? उस कुएँ में बहुत ही झाड़-झान्खाण उग आएं,आप देख नहीं रही ये बरगद का पेड़ जो कि कुएंँ के भीतर से निकला है,उस आवाज़ ने कहा।।
और फिर शह़नाज़ वहाँ से आने लगी तो उसे जम़ीन पर पड़ी घुँघरूओं वाली एक पाज़ेब मिली,उसने वो पाज़ेब उठा ली और घर चली आई,घर आकर उसने वो पाज़ेब अपनी अम्मी को दिखाई,वो पाज़ेब देखते ही एक बार फिर से हमीदा बेहोश हो गई,उस समय मुर्तजा साहब घर पर नहीं थे,शहनाज़ ने फिर से उसके चेहरे पर पानी छिड़का,हमीदा होश में आई तो उसने यही कहा....
आज आप फिर से उस हवेली में गईं थीं।।
लेकिन अम्मीजान! हमें नहीं पता कि हम खुदबखुद वहाँ कैसे पहुँच गए?शहनाज़ बोली।।
झूठ बोलतीं हैं आप!हमीदा बोली।।
अल्लाह कसम अम्मी! हम सच कह रहें हैं,शह़नाज़ बोली।।
क्या सच कह रहीं हैं ?आप शहनाज़ बेटी! मुर्तजा साहब घर के भीतर दाखिल होते हुए बोले।।
कुछ नहीं भाईजान! ऐसे ही,हमीदा ने बात बदली।।
देखिए ना हमीदा! मिर्जा साहब आएँ,इनकी खातिरदारी का इन्तज़ाम कीजिए,मुर्तजा साहब बोले।।
जी! अभी करते हैं,इतना कहकर हमीदा बावर्चीखाने में चली गई,साथ में शह़नाज़ को भी ले गई और उनके हाथों से पाज़ेब छीनते हुए बोली....
ये पाज़ेब हमें दीजिए,ये आपको हवेली से मिली है ना!,हमीदा गुस्से से बोली।।
लेकिन अम्मीजान! आप इस पाज़ेब को कैसें पहचानतीं हैं? और आपको ये कैसे पता चला कि ये हमें हवेली से मिली है,शहनाज़ ने पूछा।।
शहनाज़ के सवाल पूछते ही हमीदा घबरा गई और बोली.....
बस,ऐसे ही,आप आजकल कुछ ज्यादा ही दिमाग़ चलाने लगी है,आपसे इल्तिजा है कि आज के बाद आप फिर कभी वहाँ ना जाएंगीं,हमीदा बोली।।
इल्तिजा कहकर हमें शर्मिन्दा मत कीजिए,आप नहीं चाहतीं तो हम कभी भी वहाँ नहीं जाएंगे और आज भी हम वहाँ नहीं गए थे,ना जाने हम कैसे वहाँ पहुँच गए?शहनाज़ बोली।।
हमें माँफ कर दीजिए बेटी! आपके भले के लिए ही कह रहे हैं,हमीदा बोली।।
कोई बात नहीं अम्मी ! हमें आपसे कोई भी शिकायत नहीं,शहनाज़ बोली।।
अच्छा! आप अपने कमरें में जाइए,हम मिर्जा साहब के लिए नाश्ते का इन्तजाम करते हैं,इतना कहकर हमीदा नाश्ता तैयार करने लगी,लेकिन उसके जेह़न में तो वो पाज़ेब घूम रही थी,वो सोच रही थी,इतने सालों बाद ये पाज़ेब किसी ने भी नहीं उठाई और किसी को भी नहीं मिली,ये केवल शह़नाज़ को ही क्यों मिली? इसके पीछे क्या वज़ह हो सकती है?
और उसने यही सोचते सोचते नाश्ता तैयार किया फिर बाहर बैठक में देकर आ गई, उसने शहनाज़ को भी नाश्ता दिया और फिर बिस्तर में लेटकर कुछ सोचने लगी.....
फिर उठी तो रात का खाना जैसे तैसे उसने तैयार किया,शहनाज़ और मुर्तजा साहब को खिलाकर ,खुद बिना खाएं बिस्तर पर आकर लेट गई ,उसका मन बहुत ही खराब था ,उसके दिमाग़ में उलझने थीं और वो अपनी उलझनें सुलझाने के लिए घर की एक पुरानी कोठरी में चली गई,जहाँ बहुत सा कबाड़ रखा था,वहाँ पुराने कई संदूक रखें थें,हमीदा ने उस में से एक सन्दूक को गौर से देखा और उसकी धूल झाड़कर उसे साफ करके खोला,सन्दूक में वो ना जाने क्या ढूढ़ रहीं थीं?बहुत ढूढ़ने के बाद उसे एक लाल पोटली मिली,जिसमें कुछ हरी काँच की चूड़ियाँ,दो सोने की अँगूठियाँ,कानों की एक जोड़ी बालियाँ और एक पाज़ेब मिली,ये पाज़ेब उसी पाज़ेब की जोड़ी थी जो शहनाज़ को हवेली में मिली थी।।
उसने सारा सामान तो वैसे का वैसा रख दिया लेकिन वो पाज़ेब उठा लाई ,संदूक बंद किया,कोठरी का ताला लगाकर वो अपने कमरें में आई और उस पाज़ेब को तकिए के नीचे से निकाला जो शहनाज़ को हवेली में मिली थी,दोनों पाज़ेब एक सी थीं,हुबहू एकदूसरे की जोड़ीदार,ये देखकर हमीदा का कलेज़ा धक्क से रह गया और वो मन में बोली....
नहीं...! ऐसा नहीं हो सकता,हमारे गुनाहों की सज़ा हमारी बच्ची को मत देना मौला!
वो दुखी होकर बिस्तर पर लेटकर कुछ सोचने लगी और सोचते सोचते उसे कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला,लेकिन आधी रात के वक्त उसे किसी ने पुकारा....
हमीदा....आपा!....हमीदा...आपा! हम वापस आ गए हैं,चलिए ना हरी काँच की चूड़ियाँ पहनने मनिहारी गली चलते हैं.....
इतने में हमीदा जाग उठी,उसने देखा कि वहाँ कोई नहीं था,शायद उसका ख्वाब था,ख्वाब ही होगा,वो भला कैसे लौट सकतीं हैं?
हमीदा की हालत नासाज़ थीं,उसके माथे पर पसीनें की बूँदें उभर आई थीं....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....