You are the fire of youth, you are the keeper of the flames in Hindi Book Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | तुम यौवन की अग्निशिखा हो, तुम हो लपटों की पटरानी

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तुम यौवन की अग्निशिखा हो, तुम हो लपटों की पटरानी

डॉ. ऋषभदेव शर्मा, हैदराबाद

जीवन की तनी डोरः ये स्त्रियाँ (ले. नीलम कुलश्रेष्ठ)-- ये कृति समाज में स्त्री की दशा के संबंध में सर्वेक्षणों और स्त्री-उत्थान से जुड़ी संस्थाओं से प्रत्यक्ष संलग्नता के अनुभवों पर आधारित है ।

भगवती चरण वर्मा के लिये स्त्री ‘छवि की परिणीता’ के साथ ही ‘भयभीता’ भी है-

‘तुम मृग नयनी, तुम पिक बयनी तुम छवि की परिणीता सी ।

अपनी बेसुध मादकता में भूली सी, भयभीत सी ।’

जबकि रामेश्वर शुक्ल अंचल के लिए स्त्री ‘झंकारमयी पाषाणी’ है –

‘तुम यौवन की यज्ञ शिखा हो तुम हो लपटों की पटरानी ।

अर्पण की प्रतिमूर्ति तुम्हीं हो ओ झंकारमयी पाषाणी !’

इसका आवरण इंदौर के सुप्रसिद्ध चित्रकार श्री ईश्वरी रावल ने बहुत ख़ूबसूरती से बनाकर स्त्री सुलभ सौंदर्य को अभिव्यक्त किया है परंतु पत्रकार नीलम को ये स्त्रियाँ ‘जीवन की तनी डोर पर’ पल-पल संतुलन की साधना करती दिखाई देती हैं ।

नीलम कुलश्रेष्ठ स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखक के साथ स्त्री-सशक्तिकरण के क्षेत्र में सक्रिय रचनाकार हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जीवन की तनी डोरः ये स्त्रियाँ’ में कमरे में बंद किताबी लेखन के स्थान पर वास्तविक स्थितियों का साक्षात्कार करके स्त्री संबंधी सर्वेक्षणों तथा लक्षणों का संग्रह प्रस्तुत किया है ।

‘जीवन की तनी डोरः ये स्त्रियां ’ (सन 2002) में 24 आलेख सम्मिलित हैं जिनमें भारतीय स्त्री से जुड़े कतिपय गैर-पारंपरिक और सूक्ष्म प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए उसका मानवी आकार गढ़ने का सार्थक प्रयास किया गया है । ऐसे कुछ प्रश्नों में शामिल हैं –

1. आखिर क्यों बंगाली विधवाएं वृंदावन जैसे धार्मिक स्थलों पर अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हैं ?

2. क्यों देश में करोड़ों बस्ती की स्त्रियाँ प्राकृतिक आपदाओं की मारी हैं ?

3. क्यों सर्कस के शो में ताली बजाने वाले ढलती रात में उन लड़कियों के तंबुओं बाहर से उन्हें गंदी गंदी गालियां देतें हैं ?

4. क्यों पैंतीस वर्ष की आयु के बाद ग्लैमर क्षेत्र की लड़कियों की आँखें अधिक डबडबाने लगती हैं ?

5. क्यों सुदूर समुद्र तटों पर मछुआरिनें अपनी अलग जेटी बना रही हैं ?

6. वास्तव में क्या अर्थ है स्त्री के लिये ‘स्वाश्रय’ के ?

7. गुजरात में नारी-अदालतों की लोकप्रियता का राज क्या है ?

8. क्यों गांवों की स्त्रियाँ भी पति को ‘परमेश्वर’ कहने से गुरेज करने लगी हैं ?

9. क्यों गांवों की अल्पशिक्षित नारी पंच उन स्त्री-समस्याओं को हल करने में जुट गई हैं जिनके विषय में अब तक सोचा भी नहीं गया था ?

10. क्यों अंततः स्त्रियाँ एकजुट होने लगी हैं अश्लील फिल्मी गीतों व आत्महत्याओं को रोकने के लिये ?

11. क्या चाहिये भूतपूर्व रानियों को राजसी ठाठ-बाट, ज़री की लकदक साड़ियाँ , हीरे-जवाहरात ? या इनसे भी कीमती कोई चीज जिसे ‘स्वतंत्रता’ कहते हैं?

इस तरह के तमाम सवालों से जूझती हुई लेखिका बड़ी मासूमियत से (बिना किसी तरह का आक्रोश ओढ़े) स्त्री-सशक्तिकरण और भारतीय पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था के संबंध में अपनी अनुभवजनित टिप्पणियाँ भी देती चलती है । वे परिवार में पुरुष और स्त्री की परस्पर सहभागिता और बराबर की जिम्मेदारी की पक्षधर हैं । यदि पति-पत्नी एक-दूसरे को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलवाते हैं तो यह किसी का किसी पर अहसान नहीं है । ये मानती हैं कि यदि स्त्री गैर जिम्मेदार और सामाजिक व्यवहार में बददिमाग व फूहड़ हो तो पुरुष और उसके परिवार को समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती ।

लेखिका ने समाज के उपेक्षित और अंधेरे कोनों-अंतरों में झाँककर उन औरतों की पीड़ा तथा कारण को इस पुस्तक के माध्यम से समाज के सामने रखा है जिनकी ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत न तो सामाजिक कार्यकर्ताओं को है और न ही उन स्त्री-वादियों को जिन्हें चकाचौंध में रहने की आदत है । लेकिन जादूगरी और सर्कस के करतबों से लेकर वैधव्य की गलियों में पान-बीड़ी से लेकर पुण्य तक की साधना करती हुई स्त्रियों को जब तक अंधेरे हाशियों से नहीं निकाला जाता, तब तक हर सशक्तिकरण अधूरा है । लेखिका ने फ़ुटपाथ पर काम करने वाली स्त्रियों को भी नजदीक से देखा है और पाठकों को दिखाया है उस क्रूर यथार्थ को जिससे वे संघर्ष कर रही हैं ।

अनेक स्थलों पर लेखिका ने मीडिया द्वारा उभारी जा रही स्त्री की छवि पर भी अलग-अलग कोने से प्रकाश डाला है । यह तो तय है कि जो स्त्री छवि बाजार में बिक रही है, वह पुरुष की दृष्टि को ध्यान में रखकर ही निर्मित की गई है । अनेक स्त्री-संगठनों ने समय-समय पर अश्लीलता तथा अभद्रता की बात कहकर कहा है कि अपनी इस उपभोक्ताबादी छवि के लिये स्वयं स्त्री अधिक जिम्मेदार है । जैसा विरोध होना चाहिये या इस सबका, वैसा हुआ नहीं । बल्कि हो तो यह रहा है कि यश और अर्थ की झोंक में स्त्री स्वयं को सर्वत्र पूर्ण नग्न करने पर उतारू है और पुरुषों की तरह ही इसे कला तथा सौंदर्य का नाम देकर प्रसन्न हो रही है ।

अब तक स्त्रीवादी सिमोन द बुवा या वर्जीनिया वुल्फ़ की पुस्तकों का मुंह देखतीं आ रही थीं लेकिन नीलम कुलश्रेष्ठ जैसी लेखिकाओं ने, रमणिका गुप्ता जी के अनुसार भारत की दस बारह फ़ेमिनिस्ट आइकन ,जिनमें से नीलम जी भी एक हैं ,ने स्वयं सर्वे करके ,शोध करके ऐसी पुस्तकें तैयार कीं हैं जो भारतीय स्तर पर यथार्थवादी हैं। एशिया की उन पहली पुस्तकों में से एक हैं जिनमे स्त्रियां अपनी समस्यायों को समझकर ,उनके हल ढूंढ़ सकतीं हैं।

लगता है, यह मसला स्त्री या पुरुष का नहीं, पूरे समाज का है । मीडिया का सहारा लेकर पूंजीपतियों ने पूरे समाज को बाजार बनाने का संकल्प ले लिया है और पुरुष और स्त्री भी या तो वस्तु बन गये हैं या उपभोक्ता । सौंदर्य की मूल्यवत्ता को बाजारवाद नष्ट कर रहा है तथा विकृति को सौंदर्य का नाम देकर सर्वत्र कामुकता तथा हिंसा को स्वीकृति प्रदान करने का अभियान जैसा चल रहा है ।

स्त्री को ही चेतना होगा, अन्यथा सारा सशक्तीकरण बाजार में बिक जायेगा । इस चेतना के अभियान का नेतृत्व राजनैतिक स्त्रियों की अपेक्षा जीवन की तनी डोर पर चलती आम स्त्रियों को करना पड़ सकता है ।

 

पुस्तक - जीवन की तनी डोर :ये स्त्रियां

लेखक -नीलम कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक - मेधा बुक्स,दिल्ली

पृष्ठ -160

मूल्य --150

ई -बुक -नॉटनल पब्लिकेशन