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गुलाब का खून

गुलाब का खून- प्रबोध कुमार गोविल
ज़्यादा हरियाली तो अब नहीं बची थी पर जो कुछ भी था, उसे तो बचाना ही था। इसीलिए वो पानी का पाइप हाथ में लेकर लॉन के कौने वाले उस पौधे पर धार छोड़ने में लगे थे जिसमें बगीचे का एकमात्र गुलाब मुश्किल से आज झलका था।
सिर की गोल टोपी उतार कर कुर्सी पर रख देने से उनकी गोरी- चिकनी चांद सी खोपड़ी हल्की धूप में चमक रही थी। सलवार के पांयचे उन्होंने कुछ ऊपर चढ़ा लिए थे। टखने से नीचे उनके सफेद - झक्क पैरों में सफ़ेद सैंडिल कहीं - कहीं से भीग कर धुल गए थे और उनकी शफ़्फ़ाक दाढ़ी से होड़ कर रहे थे।
इतनी बड़ी हवेली में इस समय परिंदा भी पर नहीं मारता दिखाई देता था। वैसे भी सारी हवेली तो किराए पर ही चढ़ी हुई थी, जिसका रास्ता उन्होंने पिछवाड़े के गेट से कर छोड़ा था। उनके पास तो फ़क़त आगे का बैठक कक्ष, उससे लगा बरामदा, एक गुसलघर और बावर्चीखाना ही रह गया था. और ज़्यादा जगह का करते भी क्या?
नवाबी तो अब रही नहीं थी।
उन दिनों को याद करना तो अब अपने दिल को जलाना ही ठहरा। जब दोनों बेगमें और तमाम बाल- बच्चे ही उन्हें छोड़ कर परदेस चले गए तो अब हवेली में उनके साथ रहता भी कौन? एक पुराना खानसामा और एक बूढ़े माली का बेटा ही सुबह- शाम आकर उनके ज़रूरी कामकाज निपटा जाते।
अब अल्लाह लंबी उम्र दे दे तो कोई क्या करे? सो दिन कट रहे थे बस।
लेकिन मन की कौन कहे, जब- तब उन्हें बीते दौर की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती।
पूरी हवेली की तो बात ही क्या, नवाबी के दिनों में तो यहां इस लंबे - चौड़े बगीचे को सींचने तक के लिए कई आदमियों की फ़ौज तैनात थी। एक से एक उम्दा विलायती बिरवों पर पानी की पिचकारी भरी फुहार मारते रहते।
दसियों छोटे- बड़े नौकर चाकर उनकी तीमारदारी को तैनात रहते।
नवाब जब अकेले हुए तो शुरू- शुरू में दिन बड़ी मुश्किल से कटते थे। सवेरे के नाश्ते के बाद जब थोड़ा सैर को निकलते तो इस फ़िराक़ में रहते कि कोई मिल जाए तो दिन कटे। पर अब फुर्सत किसके पास थी। राजधानी जो ठहरी।
ऐसा ही एक दिन था। उनका पुराना बग्घीवाला किसी काम से अपने गांव से लखनऊ शहर आया था तो नवाब से मिलने भी चला आया। उसके पास घंटे- दो घंटे का फ़ालतू वक्त था सो गुज़रे समय को याद करते हुए नवाब को कंपनी बाग की सैर पर ले निकला।
नवाब साहब बग्घी से उतर कर अपने पुराने शाही अंदाज में बग़ीचे के भीतर टहल रहे थे कि तभी उन्हें वो मिला।
घोर मुसीबत में पड़ा हुआ वो जवान लड़का भी अपनी बेचारगी को झटक एक लैंप - पोस्ट के सहारे पीठ टिकाए एक पैर को मोड़े खड़ा अख़बार पढ़ रहा था। दूर - दूर तक कोई न था। नवाब साहब ने करीब जाकर उससे परिचय करते हुए बात छेड़ी।
पता चला कि लड़का निहायत ही संजीदा और पढ़ा- लिखा है। लखनऊ अपने किसी काम से आया था कि यहां एक कॉलेज के अहाते के बाहर घूमते हुए उसका बटुआ कहीं गिर गया और जनाब बिल्कुल ख़ाली जेब हो गए। अब सुबह से फाकाकशी के रास्ते पर थे और साथ ही इस जुगाड़ में भी, कि किसी तरह कुछ पैसे का कहीं से बंदोबस्त हो तो पेटपूजा करके स्टेशन पहुंचें तथा इस शहर को अलविदा कहें।
और ऐसे में उससे आ टकराए ख़ुदा के भेजे नवाब साहब।
नवाब ने उसे ऐसे गले लगाया मानो उनका कोई खोया यार बरसों बाद मिल गया हो।
बग्घीवाला दोनों को घर पहुंचा गया।
नवाब साहब ने घर पहुंच कर उसे अच्छी- खासी दावत दी और उसे कुछ रकम के साथ- साथ ये सलाह भी दी कि आज वो उनके पास ही ठहर कर उनका मेहमान बने तथा अगली सुबह अपने ठिकाने लौट जाए।
लड़के ने हां कर दी।
दिन बेहद उत्साह- उमंग भरा बीता।
रात के खाने के बाद दोनों के बीच शतरंज की बाज़ी जमी।
बाज़ी बिछते ही नवाब को पता चल गया कि लड़का कम उम्र सही, पर बेहतरीन खिलाड़ी है. बहुत सालों से ऐसी बाज़ी जमी न थी। मज़ा आ गया।
नवाब साहब की पुरानी रौनक लौट आई।
लड़के ने तकिए को मोड़ कर घुटनों के बीच लेते हुए अपना प्यादा झटके से एकसाथ दो घर आगे बढ़ाया तो नवाब छिटक कर चहके - अरे मियां धीरे... आप तो घोड़े की मानिंद बढ़े चले आते हैं। जान ही लीजिएगा क्या?
लड़के का हुनर देख कर नवाब साहब को भी अपने बचाव में मुस्तैद होना पड़ा- ये लीजिए.. क्या करेंगे।
- इससे क्या होगा। मेरा ऊंट खड़ा है... लड़के ने कहा।
- अमां, आपके ऊंट की गर्दन तो हम ऐसे पकड़ेंगे कि बिलबिलाता रहेगा। तब तक न छोड़ेंगे जब तक ये आंसुओं से रो न दे।
- आप ऊंट में ही उलझे रहिएगा हम आपका राजा घेर लेंगे। लड़के ने सचमुच राजा पर दो - तरफा अटैक कर दिया।
- इस मुगालते में न रहिएगा बरखुरदार, राजा का तो आप बाल भी बांका नहीं कर सकते, बचाइए अपना हाथी। नवाब ने राजा को इस तरह पीछे खींचा कि लड़के का हाथी निशाने पर आ गया।
- मेरे हाथी का कुछ नहीं बिगड़ेगा, ये लीजिए, क्या कीजिएगा? लड़के ने हाथी पीछे खींचा।
उधर नवाब साहब का घोड़ा फ़िर से लड़के के हाथी पर आ जमा, बोले- कहां बचेंगे? आपके हाथी की सूंड पकड़ कर इसे तो हम अपने तहखाने में डाल लेंगे।
लड़के ने मुस्तैदी से वजीर पर घोड़ा बैठा दिया।
नवाब बिलबिला गए- आपकी ये मजाल, आपने तो हमारे वजीर को नंगा कर दिया ? फ़िक्र नहीं, ये लीजिए, बचाइए अपना राजा। कहां बचेंगे लीजिए, क्या करेंगे?
- हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं मियां, कच्चा चबा जाएंगे। नवाब ने फिर शह दी।
लेकिन लड़का आसानी से बचा ले गया।
बाज़ी लंबी चली पर अंततः जीत लड़के की ही हुई। नवाब साहब को उसने ऐसी मात दी कि पस्त कर छोड़ा।
- उम्दा खेलते हो मियां। नवाब खिसिया कर बोले।
- अपने कॉलेज का चैंपियन हूं पर आपने भी तो पसीने ला दिए मेरे। लड़का बोला।
- सच! तब तो शाबाशी के हकदार हैं हम भी... पीठ ठोको। नवाब मुस्कुराए।
अगली सुबह नाश्ते के बाद लड़का चला गया।
उसके साथ अच्छा वक्त गुज़रा।
मुश्किल से दो सप्ताह गुज़रे होंगे, एक दिन नवाब साहब ने सुबह- सुबह अख़बार में पढ़ा कि शहर में किसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही है। फ़िल्म का नाम था- "शतरंज के खिलाड़ी"!
ये पढ़ते ही नवाब साहब को झुरझुरी सी छूटी।
बुदबुदाए- ओह! तो क्या लड़का कोई अफ़साना निगार था? क्या उसी की लिखी कहानी पर सिनेमा की शूटिंग हो रही है? क्या नवाब साहब की करारी हार सिनेमा में आ जाने वाली है? क्या तमाम शहर जान जाएगा कि उस रात क्या हुआ?
नवाब साहब को मीठी- मीठी सी खलिश होने लगी। वो मन ही मन झेंप कर शरमा गए। तो क्या उन्होंने सचमुच किसी बड़े लेखक की मेहमान नवाज़ी की थी उस रात?
और वे उसे पहचान तक न सके? अब उन पर लगा हार का ठप्पा जग- जाहिर हो जाएगा? ख़ूब किरकिरी होगी।
लाज से दोहरे होते हुए नवाब साहब शर्म के मारे दो दिन तक घर से बाहर भी न निकले, घर के भीतर ही छिपे रहे।
तीसरे दिन जाकर कहीं से खुलासा हुआ कि उस लड़के का फ़िल्म से कोई लेना- देना नहीं है। फ़िल्म तो किसी और नामचीन कलमकार की कहानी पर बन रही है। मुंबई से बड़े- बड़े एक्टर आए हैं। ये सुना तब जाकर नवाब साहब की जान में जान आई और वो शहर की सड़कों पर फ़िर से नमूदार हुए।
उस रात का वो वाकया याद करके इतने बरसों बाद आज भी नवाब साहब का चेहरा सुर्ख हो गया। सोचते- सोचते उन्हें ये भी खयाल न रहा कि न जाने कितनी देर से वो उस बेचारे नाज़ुक से फूल पर पानी की बौछार मारे जा रहे हैं. फूल भी थरथरा कर झरने को था, मानो लहूलुहान हो गया हो उस नशीली फुहार से!