Gyarah Amavas - 47 books and stories free download online pdf in Hindi

ग्यारह अमावस - 47



(47)

रंजन सिंह बहुत उलझन में था। उसने इस विषय में अपने मन को गहराई से टटोल कर देखा। उसने पाया कि जो कुछ उसके ताऊ ने उन लोगों के साथ किया था उसके लिए उसके मन में भी एक गुस्सा है। वह हर उस घटना को याद करने लगा जब उसके ताऊ और ताई ने उन्हें दुख दिया था। ताऊ तो अपने हिसाब से उन दोनों भाइयों को दबाकर रखते ही थे पर ताई भी बात बात पर झिड़कती रहती थीं। बड़ा होने के कारण महिपाल को अधिक अपमान सहना पड़ता था। कई बार रंजन ने अपने भाई को बेवजह मार खाते देखा था। उसे अपने भाई का अपमान बहुत बुरा लगता था। उसके मन में इंसाफ पाने की उम्मीद थी। इसलिए उसने पुलिस की नौकरी चुनी थी। पर कानून भी उसे इंसाफ नहीं दिला पाया।

करीब एक हफ्ते तक रंजन सिंह अनिर्णय की स्थिति में रहा था। लेकिन जितना अधिक वह बीते समय के बारे में सोचता था उतना ही उसके मन में बदले की आग भड़क उठती थी। अंत में बदला लेने की इच्छा इतनी बलवती हो गई कि उसे कोई दुविधा नहीं रह गई। उसे अपने भाई का चुना हुआ रास्ता ही सही लगने लगा। उसने महिपाल को अपने मन की बात बता दी। महिपाल ने उसे जांबूर से मिलवाने ले गया।
उन दोनों की आँखों पर पट्टी बांधकर ले जाया गया था। जब पट्टी खोली गई तो रंजन सिंह ने खुद को और अपने भाई महिपाल सिंह को एक कमरे में पाया। यह कमरा किसी तहखाने की तरह लग रहा था। कमरे में मशाल की रौशनी थी। उस रौशनी में रंजन सिंह ने देखा कि उन दोनों भाइयों से कुछ दूर सामने आसन पर एक आदमी काले लिबास में बैठा है। उसके चेहरे पर शैतान का मुखौटा है। उसका ध्यान मुखौटे के छेद से झांकती जांबूर की आँखों पर गया। उनमें गजब का खिंचाव था। वह मंत्रमुग्ध सा उन आंँखों की तरफ ही देखता रहा। जांबूर उसे ज़ेबूल और उसकी शक्तियों के बारे में बता रहा था। रंजन सिंह को उसका हर एक शब्द सच्चा मालूम पड़ रहा था। उसके बाद रंजन सिंह भी उनके ग्रुप का सदस्य बन गया। उसने फैसला किया कि वह पुलिस में रहकर ज़ेबूल की आराधना में सहायक बनेगा।
पहले अनुष्ठान की तैयारियां शुरू हो गई थीं। जगह तो दक्षिणी पहाड़ पर बना खंडहर थी जहाँ रंजन सिंह की मुलाकात जांबूर से हुई थी। बलि की खोज हो रही थी। उसी समय अचानक महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई। रंजन सिंह ने तय किया कि वह अपने भाई के लिए ज़ेबूल को प्रसन्न करके वह सब प्राप्त करेगा जो उनसे छीना गया था।
रंजन सिंह अपने खयालों में खोया था तभी काबूर ने आकर कहा,
"तुम यहाँ बैठे हो ? जाकर देखो कि उस लड़के ने खाया या नहीं।"
रंजन सिंह अपने खयालों में कान्हा के बारे में भूल ही गया था। वह फौरन उसके पास गया। वहाँ जाकर उसने देखा कि प्लेट खाली है। उसे तसल्ली हुई कि कान्हा ने खाना खा लिया। उसने उसकी तरफ देखा। कान्हा ने कहा,
"मेरे पेट में गुड़गुड़ हो रही है। मुझे बाहर जाना है।"
यह सुनकर रंजन सिंह परेशान हो गया। उसने डपटते हुए कहा,
"चुपचाप बैठे रहो..."
"नहीं बैठ सकता। मुझे तकलीफ हो रही है। नहीं ले चले तो बहुत दिक्कत होगी।"

यह सुनकर रंजन सिंह सोच में पड़ गया। उसने काबूर को जाकर बताया। काबूर ने कहा कि उसे मकान के बाहर कुछ दूरी पर जो झाड़ियां है वहाँ ले जाए। लेकिन सावधानी बरते। वापस लौटकर रंजन सिंह ने कान्हा से कहा,
"ले चलता हूँ। लेकिन कोई चालाकी मत करना। यहाँ से भाग पाना नामुमकिन है।"
कान्हा ने कोई जवाब नहीं दिया। रंजन सिंह ने उसके पैर खोले। उसका हाथ पकड़कर घसीटते हुए बाहर ले गया। झाड़ियों के पीछे इशारा करके बोला,
"वहाँ जाकर बैठ जाओ। जल्दी करना।"
कान्हा झाड़ियों के पीछे चला गया। रंजन सिंह दूसरी तरफ मुंह करके खड़ा हो गया।

पहला दल अनुष्ठान वाली जगह पर पहुँच गया था। काबूर ने उन्हें कान्हा वाले कमरे के बगल में बने कमरे में बैठा दिया था। वह रंजन सिंह के लौटने की राह देख रहा था। लेकिन जितना समय लगना चाहिए था उससे अधिक समय हो गया था। अभी तक रंजन सिंह लौटकर नहीं आया था। काबूर को कुछ गड़बड़ महसूस हुई। उसने खुद देखने जाने का फैसला किया। वह सीढ़ियां उतरकर आहते में आया था तभी उसे रंजन सिंह आता हुआ दिखा। उसने कान्हा को किसी बोरी की तरह अपने कंधे पर लाद रखा था। आहते में आने पर उसने कान्हा को ज़मीन पर पटक दिया। कान्हा के चेहरे पर मारे जाने के निशान थे। रंजन सिंह ने गुस्से में कहा,
"अच्छी तरह पीटा है इसे। समझाया था कि संभव नहीं है। फिर भी भागने की कोशिश कर रहा था। बेवजह दौड़ाया मुझे। इससे पहले भी इतने लड़कों से वास्ता पड़ा। लेकिन कोई भी इसके जैसा ढीठ नहीं था।"
काबूर ने कहा,
"सच कह रहे हो। देखो तो मार खाने के बाद भी कैसे घूर रहा है।"
रंजन सिंह ने देखा कि कान्हा उसे नफरत भरी निगाहों से देख रहा था। उसने गुस्से में एक लात मारी। कान्हा बिलबिला गया। फिर खुद को संभाल कर बोला,
"मुझे क्यों लाए हो यहाँ ?"
काबूर ने देखा कि दल के जो सदस्य आ चुके थे वो ऊपर से झांक रहे हैं। उसने कान्हा से कहा,
"कुछ घंटे और। उसके बाद तुम्हारा फड़फड़ाना हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।"
उसने रंजन सिंह को आदेश दिया,
"इसे ले जाओ। अच्छी तरह इसके हाथ पैर बांधकर मुंह में कपड़ा ठूंस दो।"
रंजन सिंह ने एक बार फिर कन्हा को अपने कंधे पर लादा और ऊपर ले गया। उसने कान्हा के हाथ पैर बांधे। उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर बांध दिया। वह उसे छोड़कर अपने साथियों के पास चला गया। कान्हा रोने लगा। उसे अब कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड़ रही थी। काबूर ने जो कहा था उसके अनुसार उसकी ज़िंदगी अब बस कुछ ही घंटों की बची है। उसे एहसास हो गया था कि उसकी जान खतरे में है। वह मरना नहीं चाहता था। जब रंजन सिंह उसे खाना खाने को कहकर चला गया तो कुछ देर वह उसी तरह बैठा रहा। फिर उसके मन में आया कि क्यों ना अपनी ज़िंदगी के लिए एक कोशिश करे। खाना खाकर वह रंजन के आने की राह देखने लगा।
वह जानता था कि यदि उसे कोशिश करनी है तो बाहर जाना पड़ेगा। जब रंजन सिंह लौटकर आया तो उसने पेट में गुड़गुड़ होने का बहाना बनाया। रंजन सिंह उसे झाड़ियों तक ले गया। जब वह दूसरी तरफ मुंह करके खड़ा हो गया तो कान्हा सही मौका देखकर भाग लिया। उसे उस जंगल का कोई अंदाज़ा नहीं था। वह बस भाग रहा था। अंधेरे में उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह बस भाग रहा था। भागते हुए अचानक वह ठोकर खाकर गिरा। उसके सामने रंजन सिंह खड़ा था। उसने बाल पकड़कर उसे उठाया और कई सारे तमाचे मारे। उसके बाद उसे अपने कंधे पर लादकर यहाँ ले आया।

आधी रात के समय उस वीरान जगह की खामोशी भयानक आवाज़ों से टूट गई। वो आवाज़ें कान्हा के कानों में पड़ रही थीं। उसे पता चल गया था कि उसके साथ कुछ बहुत बुरा होने वाला है। भय के कारण वह जड़ हो गया था। तभी रंजन सिंह कमरे में आया। उसके हाथ पैर खोले। उसे एकबार फिर अपने कंधे पर लादकर उस कमरे में ले गया जहाँ अनुष्ठान हो रहा था। उसने कान्हा को ज़ेबूल की मूर्ति के पास ले जाकर पटक दिया।
कान्हा ने देखा कि वहाँ का माहौल बहुत भयानक है। कमरे में निर्वस्त्र पुरुष उत्तेजित होकर नाच रहे थे। एक आदमी ने काला चोंगा पहन रखा था। उसने बहुत भयानक शैतान की आकृति वाला मुखौटा लगाया हुआ था। हाथ में धारदार हथियार लिए वह उसके सामने खड़ा था। उसने हथियार को ऊपर उठाया। अपना अंत सामने देखकर कान्हा ने अपनी आँखें बंद कर लीं।
जांबूर ने एक झटके से कान्हा का सर उसके धड़ से अलग कर दिया।

सब इंस्पेक्टर आकाश दुबे को एक अंजान व्यक्ति ने फोन करके बताया कि उसने रानीगंज से कोई तीस किलोमीटर दूर जंगल में एक खंडहर देखा है। उस खंडहर में किसी कुकृत्य के किए जाने की आशंका है। यह सूचना देते ही उस व्यक्ति ने फोन काट दिया। दोबारा उस नंबर पर कॉल करने पर फोन स्विचऑफ बताने लगा। सब इंस्पेक्टर आकाश दुबे ने बिना कोई देरी किए अपनी टीम के साथ उस जगह के लिए प्रस्थान किया।

दीपांकर दास को होश आया तो वह फर्श पर लेटा था। कमरे में कहीं से सूरज की रौशनी आ रही थी ट। उसे गीला गीला सा महसूस हुआ। उसने अपनी आँखें खोलीं तो फर्श पर खून था। वह उसके ऊपर लेटा था। उसे अपने सामने एक सरकटी लाश दिखाई पड़ी। वह घबरा कर उठ बैठा। उसने काला चोंगा पहन रखा था। चेहरे पर हाथ गया तो पाया कि उसने मुखौटा पहन रखा है। उसने मुखौटा उतार दिया। वो वही शैतानी मुखौटा था जो उसने पहले भी कई बार खुद को पहने हुए पाया था। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह अचानक यहाँ कैसे आ गया।
दीपांकर दास ने उठने की कोशिश की तो खून के तालाब में पैर फिसल गया। उसने दोबारा उठने की कोशिश की। वह दोबारा फिसल कर गिर गया। वह ज़ोर से कांप रहा था। जल्दी से जल्दी उस जगह से बाहर निकलना चाहता था।
उसने एक और कोशिश की। इस बार वह खड़ा हो गया। वह उस कमरे से बाहर निकल रहा था तभी कोई उसके सामने आकर खड़ा हो गया।