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होली के रंग हजार

होली के रंग हजार
 यशवन्त कोठारी

होली पर होली के रंगों की चर्चा करना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। अक्सर लोग-बाग सोचते हैं कि होली का एक ही रंग है क्योंकि जिये सो खेले फाग। मगर जनाब होली के रंग हजार हो सकते हैं, बस देखने वाले की नजर होनी चाहिए या फिर नजर के चश्मे सही होने चाहिए।
गांव की होली अलग, तो शहरों की होली अलग तो महानगरों की होली अलग। एक होली गीली तो एक होली सूखी। एक होली लठ्ठमार तो एक होली कोड़ामार। बरसाने की होली का अलग संसार तो कृष्ण की होली और राधा का अलग मजा। अफसरों की होली अलग तो चपरासियों की होली अलग। कोई चुटकी भर गुलाल को आदर और अदब के साथ लगाकर होली मना लेता हैं तो कोई रंग में सराबोर हो कर होली मनाता है। कोई जीजा साली संग होली खेल रहा है। तो भाभी देवर के गुलाल लगा रही है, ‘‘लला फिर आईयो खेलन होली।’’ युवाओं की होली अलग, बुजुर्गों की अलग। बच्चों की होली अलग तो प्रौढ़ की होली का एक अजब ढंग है। युवतियों की होली अलग, कवियों की होली कवि सम्मेलन में और संयोजकों की होली कवियो के संग।
इधर मौसम बासन्ती हुआ नहीं कि गांवों में होली का झन्डा-डंडा रोप दिया जाता है। लोक संस्कृति की होली शुरू हो जाती है।
शहरों में होली का माहौल नहीं बनता है, होली वाले दिन ही गली मुहल्ले में कुछ लोग चन्दा करके होली का काम कर देते हैं। दूसरे दिन गुलाल, पानी, कीचड़, ग्रीस, रंग, अबीर से खेली। दोपहर को नहाये-धोये और हो गई होली। शाम को मिलने-मिलाने का कार्यक्रम रख लिया। जो पीने के शौकीन है वे पीने पिलाने में लग गये। जो ताश के शौकीन है वे ताश में लग गये।
मगर मैं आपको होली के कुछ रंग और बताना चाहता हूं।
युवाon की होली देखने पर आपको लगेगा कि वे एक दूसरे की रैगिंग ले रहे हैं सचमुच वे एक दूसरे की ऐसी खिंचाई, छिलाई, रंग-लेपन करते हैं कि होली का रंग महीनो दिल, दिमाग और चेहरे पर छाया रहता है।
एक समूह दूसरे समूह को देखते ही उसे दबोच लेता है हमला बोल दिया जाता है और मंहगाई की ऐसी तेसी करते हुए कपडो का सत्यानाश कर दिया जाता है, इसी प्रकार मौका मुनासिब देखकर पुराना बैर भाव निकाल दिया जाता है।
बच्चे बडो से अलग अपने में मगन खुशी की किलकारियां भरते हुए होली के रंग में शामिल होते हैं। बच्चों और युवाओ के पास आर्थिक तंगी होती है, मगर प्रोढ़ों के पास पैसा और समय दोनो होते हैं और लाज, शर्म, संकोच आदि का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं इस होली का रंग कैसा होता होगा।
बात होली के रंग की चली है तो राजनीति की होली और इस रंग की छटा भी देख ले । दिल्ली और प्रदेशों की राजधानी में आपको इस होली के रंग और कीचड़ दोनों एक साथ ही देखने को मिल जायंगे।
पत्रकारों की होली सम्पादक की टेबल तक जाती है और सम्पादकों की होली के क्या कहने। लेखक से लगाकर राजनेता तक झुककर फर्शी सलाम बजा लाते हैं।
अफवाहों की होली का अपना मजा होता है। फिल्म की होली में सब कुछ खुला-खुला होता हैं। बंधनों का यहां क्या काम है। हां बंधन वाली होली गांव में . मारवाली होली बरसाने में । पत्थर वाली होली बाड़मेर में ।
कीचड़, ग्रीस, ऑइल पेन्ट वाली होली शहरों के युवा वर्ग में लोकप्रिय है। होली के रंगों में रंग लाल। मगर आजकल लाल के अलावा हरा, आसमानी, पीला और सोपस्टोन के रंग खूब मिलते हैं। एक रसायन शास्त्री मित्र सिल्वर नाइट्रेट से तिलक करते हैं तो एक सज्जन नील और टिनोपाल से होली मनाते हैं।
होली के रंगों की चर्चा में गुझिया व नमकीन का रंग अलग हैं।
तो आप समझ गये न होली में कृष्ण ही कृष्ण, राधा ही राधा। हर राधा बौराई सी और हर कृष्ण सुपर कृष्ण।
दूरदर्शन भी होली पर रंग दिखाता है। मगर यह रंग हास्यास्पद रस का होता है। हास्य और व्यंग्य का रस पत्र-पत्रिकाओं में मिलता है।
होली का एक रंग गधो और मूर्खों को मिलाकर बनता है यही व्यंग्यकार का होता है सो जानना प्रिय पाठक।

जरा सोचो सखी होली हाट बिकाय तो बाकि क्या बचा हमारी संस्कृति में तो होली की ठिठोली होती है ,मीठी मीठी बातें होती है और घुंघट नहीं खोलू देवरा तोरे आगे की टेर लगाई जाती है और एक तुम हो की होली को हाट पर बेचना चाहते हो ली को बेचो मत ठाट बाट से मनाओ.
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यशवन्त कोठारी
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