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Mahatma Buddha

लुंबिनी में जन्म

 

गौतम सिद्धार्थ का जन्म एक राजकुमार के रूप में हुआ था। उनके पिता शाक्य वंश के थे और कपिलवस्तु राज्य के राजा थे। उनकी माता रानी माया एक कर्तव्यनिष्ठ और धर्मपरायण महिला थीं।

 

एक रात रानी ने एक विचित्र स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि छह दांतों वाला एक सफेद हाथी स्वर्ग से उतरा और उनके गर्भ में समा गया। प्रातःकाल उठकर रानी ने राजा को अपने सपने के बारे में बताया।

 

राजा ने तुरंत राजपुरोहित को बुलवाया और उससे इस सपने का अर्थ बताने को कहा। राजपुरोहित ने भविष्यवाणी की कि यह शुभ स्वप्न था।

इसका अर्थ यह हुआ कि रानी ने गर्भ धारण किया है तथा जो शिशु जन्म लेगा वह बड़ा होकर महान व्यक्ति बनेगा।

 

यह सुनकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजपुरोहित को भेंट में स्वर्ण और गायें दी।

 

समय बीतता गया और प्रसव की घड़ी नजदीक आ गई। एक दिन रानी मायावती ने बाहर उद्यान में जाने की इच्छा प्रकट की। वे अपनी सेविकाओं के साथ लुंबिनी उद्यान में गई। उद्यान में बहुत सुंदर दृश्य था। चारों ओर तरह-तरह के फूल खिले थे और वृक्षों पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। फूलों से लदे एक अशोक वृक्ष की ओर रानी माया का ध्यान गया। वे वृक्ष के पास गई और उन्होंने फूल तोड़ने के लिए। अपनी दाई बाह उठाई। उन्होंने बांह उठाई ही थी कि प्रसव हो गया, रानी को किसी प्रकार की पीड़ा या कष्ट का अनुभव नहीं हुआ। शिशु का शरीर एकदम स्वच्छ था और वह पूरी तरह चेतनावस्था में था।

 

इसी समय आकाश से पुष्पवृष्टि जैसी कई आश्चर्यजनक बातें हुई। रानी की सेविकाओं में से कुछ महल की ओर दौड़ीं और उन्होंने जाकर राजा को राजकुमार के जन्म का शुभ समाचार दिया और पुष्पवृष्टि के बारे में बताया। राजा ने महर्षि असित को बुलवा भेजा। महर्षि ने राजकुमार को देखा तो उनकी आंखों में हर्ष के आंसू भर आए। उन्होंने राजा को बताया, "यह बालक बड़ा होकर आपके वंश का नाम उज्ज्वल करेगा। यह चक्रवर्ती राजा बनेगा। यदि यह राज्य का त्याग करेगा तो एक महान संन्यासी बनेगा। "

 

राजा को महर्षि असित की भविष्यवाणी सुनकर शांति तो मिली, फिर भी उन्होंने महर्षि से पूछ ही लिया, "आपकी आंखों में आंसू क्यों भर आए हैं, बताइए?".

 

महर्षि ने उत्तर दिया, "ये आंसू हर्ष साथ ही पश्चात्ताप के भी हैं। मुझे राजकुमार को देखकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। साथ ही यह सोचकर दुख भी हुआ कि मैं इतना बूढ़ा हो गया हूँ कि राजकुमार की कीर्ति देखने के

लिए जीवित नहीं रहूंगा। बस यही सोचकर मेरा मन भर आया। "

 

इस उत्तर से राजा पूरी तरह आश्वस्त हो गए और उनकी चिंता का कोई कारण न रहा। उन्होंने महर्षि को गायें, भूमि, स्वर्ण और अनाज भेंट किया।

 

राजकुमार के जन्म की खुशी में पूरे राज्य में उत्सव गया। राजकुमार का नाम सिद्धार्थ रखा गया।

 

राजकुमार के जन्म के एक सप्ताह बाद ही रानी मायावती की मृत्यु हो गई। राजकुमार की मौसी महाप्रजापति गौतमी ने अपने पुत्र की तरह उनका लालन-पालन किया।

                  

                          राजकुमार सिद्धार्थ

 

गौतम का जीवन ऐश्वर्य और वैभव में बीता। उनके लिए ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु के लिए अलग-अलग राजप्रासाद बनवाए गए थे, जहां राजकुमार आमोद-प्रमोद में अपना समय व्यतीत करते समय के साथ-साथ राजकुमार बड़े होकर एक सुंदर युवक बन गए और अपने आस-पास की प्रत्येक वस्तु का आनंद उठाने लगे। कभी-कभी ऐसा लगता था कि वे चाहते थे कि उन्हें चिंतन-मनन के लिए अकेला छोड़ दिया जाए।

 

ऐसे ही एक समय राजप्रासाद में खलबली मच गई। राजधानी में वार्षिक कृषि महोत्सव 'हलकर्षण' का आयोजन होने वाला था। जिसमें राजा स्वयं एक विशेष हल से खेत जोतकर मौसम का पहला बीज बोने वाले थे। भरपूर फसल के लिए प्रार्थना करने के बाद भोज का आयोजन था।

 

किसानों के लिए यह एक विशेष अवसर था। वे नए-नए वस्त्र पहनकर आए थे और बड़े गर्व के साथ अपने चमचमाते हल उठाए खड़े थे। स्त्रियां भी रंगबिरंगे वस्त्रों और गहनों से सजी-संवरी थीं। चारों ओर सुंदरतापूर्वक सजाया गया था। बच्चे अत्यंत उत्साहित और खेलकूद में मग्न थे और उत्सव का आनंद उठा रहे थे। राजधानी से कुछ दूर खेतों में हल सजाकर रखे हुए थे। इनके बीच राजा का सोने का हल रखा था। हल में जोते जाने वाले बैलों को भी सुंदरतापूर्वक सजाया गया था।

 

राजा अपने परिवार के लोगों के साथ समारोह स्थल पर आए। वे पहले पास ही स्थित अपने शिविर में गए। वहां सबके तैयार होकर समारोह-स्थल पर जाने की व्यवस्था थी। तेरह वर्षीय राजकुमार ने सेवकों के साथ शिविर में ही रहना पसंद किया, अतः राजा अपने परिजनों और मंत्रियों के साथ समारोह-स्थल की ओर रवाना हो गए। राजा ने बीच में

रखा अपना स्वर्ण का तथा अन्य गणमान्य लोगों ने अपना-अपना नांदी का हल संभाल लिया। आस-पास जमा भीड़ ने हर्षध्वनि की। जब सभी हल पकड़कर भूमि जोतने आगे बढ़े तो हर्षध्वनि के साथ ढोल-ताशे बजने लगे। हर्षध्वनि और शोरगुल से आकर्षित होकर बाहर निकल आए सेवक ऊंचे पत्थरों और पेड़ों पर चढ़कर समारोह देखने लगे। समारोह देखने में सभी इतने मग्न हो गए कि वे राजकुमार को भूल ही

 

गए। अचानक उनमें से एक ने पूछा, "राजकुमार सिद्धार्थ कहां हैं?" "यही शिविर के अंदर ही होने चाहिए," एक ने उत्तर दिया।

 

"लेकिन मुझे तो कहीं दिखाई नहीं दे रहे। अच्छा, एक बार फिर अंदर देख लेता हूँ।"

 

अब तक सभी राजकुमार के लिए चिंतित हो गए थे। अधिकारी डर रहे थे कि महाराज को क्या उत्तर देंगे। उनमें से एक राजकुमार को ढूंढ़ने शिविर के पीछे के उपवन में गया। राजकुमार वहां आंखें मूंदे ध्यानमग्न में मुद्रा में दिखाई दिए।

 

सेवक प्रसन्नता से चिल्ला उठा, "राजकुमार यहां हैं! मैंने उन्हें ढूंढ़ लिया!" यह सुनकर सभी ने निश्चिंतता की सांस ली।

 

हुआ यह कि जब सब समारोह देखने में मग्न थे, उस समय राजकुमार भीशिविर से बाहर आ गए। वहां होने वाले समारोह उन्हें बिलकुल भी आकर्षित न कर सके और वे शिविर के पीछे की ओर चले गए। वहां एक शांत स्थान पर हरी-भरी घास देखकर वे बैठ गए।

 

जब यह समाचार राजा के पास पहुंचा तो वे दौड़े आए और उन्होंने राजकुमार को अपनी बाहों में भर लिया। जिस अधिकारी ने राजकुमार को ढूंढ़ा था उसे उन्होंने समुचित पुरस्कार दिया। राजा सोच में डूब गए कि समारोह की चहल-पहल छोड़कर राजकुमार एकांत में अकेला क्यों बैठा था? उन्हें महर्षि असित के शब्द बाद आए, "वह एक सम्राट बनेगा, लेकिन उसने यदि सांसारिक जीवन नहीं अपनाया तो वह एक महान संत बनेगा।" राजा चाहते थे कि सिद्धार्थ एक महान सम्राट बने। उन्होंने राजप्रासाद में आमोद-प्रमोद के साधन और भी अधिक बढ़ा दिए ताकि राजकुमार उनमें इतने खो जाएं कि गृहत्याग का विचार भी कभी उनके मन में न आए। राजा शुद्धोदन ने राजकुमार को राजकाज में शामिल करने के लिए हरसंभव उपाय किए।

श्वेत कबूतर

 

राजकुमार सिद्धार्थ बहुत सौम्य स्वभाव के और दूसरों का ध्यान रखने वाले थे, जबकि उनका चचेरा भाई देवदत्त दुष्ट था और उसे दूसरों को सताने में आनंद आता था। देवदत्त को शिकार करने का बहुत शौक था और जो भी पशु-पक्षी दिखता उसे वह निर्दयतापूर्वक मार डालता था।

 

एक दिन देवदत्त अपने भवन की छत पर खड़ा था। उसे श्वेत कबूतरों का एक जोड़ा आकाश में उड़ता दिखाई दिया। उसने तुरंत अपने धनुष पर बाण चढ़ाया और एक कबूतर पर निशाना साधकर छोड़ दिया। चूंकि वह निपुण धनुर्धारी था इसलिए बाण निशाने पर लगा और कबूतर नीचे गिर पड़ा। लेकिन कबूतर उसके आंगन में न गिरकर पास में सिद्धार्थ के न बगीचे में गिरा। राजकुमार सिद्धार्थ उस समय बगीचे में ही थे। उन्होंने बाण से घायल कबूतर को देखा। वे तुरंत उस ओर दौड़े और हलके हाथों से कबूतर को उठा लिया। कबूतर के शरीर में घुसा बाण उन्होंने सावधानीपूर्वक निकाल लिया। फिर उन्होंने कबूतर का उपचारकर उसे आराम पहुंचाने के लिए कुछ खाने को दिया।

 

जब सिद्धार्थ कबूतर की सेवा शुश्रूषा कर रहे थे तभी देवदत्त अपने शिकार को खोजता वहां आ पहुंचा। उसने कहा कि कबूतर उसे दे दिया जाए। राजकुमार सिद्धार्थ जानते थे कि अगर कबूतर देवदत्त को दे दिया जाएगा तो उसकी क्या गति होने वाली है, अतः उन्होंने देने से मना कर दिया। इस बात से देवदत्त अप्रसन्न हो गया। उसने उग्र होकर जोर दिया कि यह मेरा शिकार है इसलिए इस पर मेरा अधिकार है।

 

राजकुमार सिद्धार्थ का हृदय घायल कबूतर का कष्ट देखकर द्रवित हो रहा था। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा कि चूंकि कबूतर मेरे बगीचे मेंआकर गिरा है इसलिए जब तक यह ठीक नहीं हो जाता, तब तक इस कष्ट में पड़े पक्षी की रक्षा करना मेरा नैतिक कर्तव्य है। देवदत्त यह बात मानने को तैयार नहीं था और वे कबूतर को लेकर झगड़ते रहे।

 

अंत में इस समस्या के समाधान के लिए वे राजा के पास गए। राजा ने दोनों की बातें धैर्यपूर्वक सुनीं और अपना निर्णय सुनाया। उन्होंने कहा, “देवदत्त द्वारा घायल किया गया पक्षी राजकुमार सिद्धार्थ की सीमा में जाकर गिरा है। यह कहावत जगप्रसिद्ध है कि मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है। इसलिए देवदत्त के बजाय, जिसने कबूतर को मारना चाहा, उसे बचाने वाले राजकुमार सिद्धार्थ को ही कबूतर रखने का अधिकार है। तर्क काफी संगत था। देवदत्त चुप रह गया।

संन्यास

 

राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह दंडपाणि की सुंदर और बुद्धिमती कन्या यशोधरा से हुआ था।

 

एक दिन राजकुमार ने नगर के बाहर वाले उद्यान में जाने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने भ्रमण पर जाने के लिए राजा की अनुमति मांगी। राजा ने सहर्ष अनुमति दे दी और आज्ञा दी कि जिस समय राजकुमार अपने सेवकों के साथ रथ में निकलें तो उस समय नगर स्वच्छ और सजाधजा होना चाहिए। लोग सुंदर सुंदर पोशाकें पहन अपने घरों से निकल राजकुमार का स्वागत करने लगे। सिद्धार्थ इसका भरपूर आनंद उठा रहे थे, तभी एक बूढ़ा उनके रथ के पास आया। उसके सारे बाल सफेद हो गए थे और चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था। उसकी कमर झुक गई थी और वह लाठी के सहारे खड़ा था। राजकुमार ने आज तक किसी को ऐसी अवस्था में नहीं देखा था। उन्होंने तुरंत रथ रुकवा दिया और सेवक से पूछा, "यह आदमी कौन है? यह सबसे अलग क्यों दिखाई देता है?"

 

“राजकुमार, यह दूसरों से अलग नहीं है। यह बूढ़ा हो गया है बस इतनी-सी ही बात है। सभी बूढ़े होते हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ हमारी शारीरिक व मानसिक शक्तियां क्षीण हो जाती हैं, बाल सफेद हो जाते हैं और शरीर दुर्बल हो जाता है," सेवक ने समझाया।

 

राजकुमार केवल सुंदर और युवा लोगों के ही बीच पले-बढ़े थे। उस आदमी की यह अवस्था देखकर वे अत्यंत विचलित हो गए। उन्होंने रथ मोड़ने को कहा और राजप्रासाद को लौट गए। कुछ समय बाद राजकुमार ने फिर से प्रासाद के बाहर जाने की इच्छा

 

प्रकट की। इस बार उन्हें मार्ग में एक रोगी दिखाई दिया।

ऐसे ही एक बार और भ्रमण करते समय उन्हें मार्ग में एक शवयात्रा दिखाई दी।

 

मानव जीवन की इन स्थितियों के बारे में जानकर राजकुमार के मन में उथल-पुथल मच गई। वे इन प्रश्नों के बारे में विचार करने लगे कि मनुष्य बूढ़ा क्यों होता है, रोगग्रस्त क्यों होता है और मरता क्यों है? वे जीवन

 

की इन समस्याओं का समाधान खोजना चाहते थे। सिद्धार्थ को अब राजप्रासाद की किसी भी बात में रुचि नहीं रही।

 

वे सबकुछ छोड़कर वन में चले जाना चाहते थे ताकि इन समस्याओं का उत्तर खोजने के लिए शांतिपूर्वक चिंतन कर सकें। पुत्र राहुल का जन्म भी राजकुमार को रोक न सका। परंतु जब-जब वे आज्ञा लेने राजा के पास गए, राजा बिना कुछ बोले उनका हाथ पकड़कर रोने लगे।

 

एक रात राजकुमार ने बिना किसी को बताए गृहत्याग करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने सारथि चन्न को जगाया और वन में ले चलने को कहा। चन्न दुविधा में पड़ गया, क्योंकि वह बिना महाराज की आज्ञा के ऐसा नहीं कर सकता था। तभी उसने देखा कि महल के फाटक अपने आप खुल गए हैं और राजकुमार का घोड़ा जाग गया है। इन संकेतों को समझकर सारथि राजकुमार को वन में ले गया।

 

वन में प्रवेशकर राजकुमार घोड़े से उतर गए और चन्न को घोड़ा लेकर राजप्रासाद लौट जाने को कहा। चन्न ने ऐसा करने से मना कर दिया, लेकिन उसकी विनतियों का राजकुमार पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। सिद्धार्थ वन में