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पंखा

दीपक शर्मा

’’कहो भई आलोक ?... कहो भई प्रकाश ? कहाँ हो ?’’ फूफाजी ने सीढ़ियों से हमें पुकारा है ।

बिजली की तार के थोकदार व्यापारी, हमारे बाबूजी की दुकान के ऐन ऊपर हमारा यह नया आवास है ।

माँ की मृत्यू के बाद बाबूजी हम दोनों जुड़वा भाइयों को हमारे पुराने मुहल्ले से निकाल लाए हैं । इन्हीं फूफाजी ने उन्हें रोकने की चेष्टा भी की ’दो मील दूर उधर इन लड़कों को ले जाने से पहले यह तो सोचो, भाई, देर-सवेर मौके बेमौके इन्हें कोई ज़रूरत आन पड़ी तो उधर बेगानों में से मदद को कौन आगे आएगा ?’

उधर उस मुहल्ले में फूफाजी का मकान भी है और किराना भी ।

’मेरे बेटों की, फ़िक्र आप मुझ पर छोड़ दीजिए, बाबूजी के नाक पर गुस्सा रहा ही करता है, ’इन्हें मैं ने पढ़ाई में लगाना है । आपके खटराग को तोलने और बेचने में नहीं । इधर नीचे अपनी दुकान से इनकी देखभाल और खान-पान का, बेहतर इन्तज़ाम कर पाऊँगा.’’

दस साल पहले हमारे जन्म पर भी शायद फूफाजी को बाबूजी ने यही उत्तर दिया होगा, जब उन्हांेने हम में से एक को गोद लेने का प्रस्ताव बाबूजी के सामने संतानविहीन हैं ।

’’नीचे जुगल, तुम्हारा नौकर, तुम्हारी दुकान पर अकला बैन है । न तो वहाँ भाई है और न ही भाई की फटफटिया...’’

’’आइए, बैठिए, फूफाजी, स्वभाव और व्यवहार में आलोक माँ पर गया है, ’’मैं आपके लिए नींबू का शरबत बना कर लाता हूँ...’’

’’बाबूजी रेलवे स्टेशन गए हैं, ’’मैं नहीं चाहता फूफाजी हमारे पास बैठें, ’’अपने नए माल की बिल्टी छुड़ाने । वे दो बजे से पहले न लौट पाएँगे....’’

इस समय दिन के ग्यारह बजे हैं ।

’’यह पंखा अभी लिया क्या ?’’ फूफाजी उस पंखे के पास जा खड़े हुए हैं जिसे बाबूजी ने हाल ही में हासिल किया है ।

हमारे इस बरामदे में छत पंखे की व्यवस्था नहीं है । इसकी भीतरी छत सीमेंट की न हो कर लकड़ी की कड़ियों की बनी है ।

’’अच्छा लगा आपको ?’’ उत्सुक हो कर आलोक फूफाजी के पास जा खड़ा वह पंखा वाकई शानदार है ।

’’देख रहा हूँ, ’’फूफाजी ने आलोक की पीठ घेर ली है, ’’पंखा तो इतनी तेज़ चल रहा है मगर इसका स्टैन्ड अपने आधार पर ज्यों का त्यों, बेडोल, डटा खड़ा है...

’’इसे और तेज़ करता हूँ, ’’

आलोक पंखे की गति बढ़ाते हुए फूफाजी की ओर विजय-भाव से देख रहा है ।

’’सैकेन्ड हैन्ड है ? ’’ फूफाजी हँसते हैं, ’’ भाई की फटफटिया की तरह ? इसे भी इधर ला कर रवाँ किया है ? रोगन किया है ? ’’

’’क्यों ?’’ मैं झल्लाता हूँ, ’’दुकान से ही यह सही हालत में नहीं लाया जा सकता क्या? ’’

’’तुम से ज्यादा मैं भाई का तजुरबा रखता हूँ ’’ फूफाजी दुगुने ज़ोर से हँस लिए हैं, ’’हम दोनों बचपन के बेली हैं...’’

’’मैं नहाने जा रहा हूँ, ’’ आखों में चुभ रहे अपने आँसू मैं उनके सामने नहीं गिराना चाहता ।

फूफाजी का अनुमान शत-प्रतिशत सही है ।

बगल वाली दुकान में पुराने पंखों की बिक्री भी होती है और मरम्मत भी ।

यह पंखा बाबूजी ने उसी दुकान पर जब देखा तो उन्हें पहली नज़र में भा गया ।

इस पर दुकानदार के हाथ का कमाल होना अभी बाकी था लेकिन बाबूजी इसे उसी पल इधर ऊपर उठा लाए थे ।

बिजली के काम पर उनका हाथ तो बैठा ही है और हमारे देखते-देखते इस पंखे के फ़ैन गार्ड ने, इसकी तारों के केंज ने, इसके तीनों ब्लेडज़ ने और इसके स्टैन्ड के तले और बल्ले ने अपनी वर्तमान दशा ग्रहण कर ली ।

लीक से हट  कर किए जा रहे बाबूजी के सभी कामों में मेरी दिलचस्पी शुरू ही से रही है । आलोक की नहीं ।

बल्कि जब कभी अपनी मदद के लिए बाबूजी उसे पुकारते भी हैं तो वह आगे-पीछे होने लगता है जब कि मैं उनके बिना पुकारे ही उनके आसपास बराबर बना रहता हूँ ।

उनकी गुनगुनाहट के बीच । जब कभी भी बाबूजी किसी जोखिमी, गैर-मामूली उधम में हाथ डालते हैं, गुनगुनाते ज़रूर हैं ।

’’हमारा पंखा कहाँ है ?’’ नहाने के बाद जैसे ही मैं बरामदे में लौटता हूँ, मुझे एक खस्ताहाल पंखा खर्र-खर्र घूमता हुआ मिलता है ।

’’फूफाजी ले गए हैं, ’’ आलोक कहता है, ’’और यह पंखा नीचे बगल वाली दुकान से खरीद कर छोड़ गए हैं । इसका स्टैन्ड भी आदमकद है और इसकी कम्पनी भी अच्छी मशहूर है...’’

’’और यह खर्र-खर्र ?’’

’’ग्रीज़िंग से यह आवाज़ चली जाएगी । बाबूजी को सब तरीके मालुम है...’’

’’और उनका पसीना ? उनकी मेहनत ?’’ आपे से बाहर हो लिया हूँ मैं - और आलोक पर झपटा हूँ ’’बेगार है क्या ? फ़ालतू है क्या ?’’

बचाव में उस ने मेरे जबडे़ पर ऐसा घूंसा जमाया है कि दहाड़ मार कर रोने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई चारा नहीं रहा है ।

बिल्टी का माल दुकान पर जमा कर बाबूजी सीधे ऊपर चले आए हैं ।

’’यह चार नींबू हैं, ’’पसीने से लथ-पथ अपनी कमीज़ उतारते हुए बाबूजी अपने हाथ का लिफ़ाफ़ा मेरी ओर बढ़ाते हैं, ’’इनका शरबत बना लाओ । हम तीनों पिएंगे । आज धूप बहुत तेज है...’’

’’आलोक अपने दोस्त के घर गया है, ’’मैं बाबूजी से कहता हूँ । हमारी हाथापाई के एकदम बाद आलोक घर से निकल लिया था ।

’’यह क्या है ?’’ बाबूजी की नज़र अजनबी पंखे पर अब पड़ी है, ’’यह कबाड़ कौन लाया ? हमारा अपना पंखा कहाँ गया ?’’

’’आज फूफाजी आए थे । आलोक को बतोला दे कर यह पंखा छोड़ गए हैं -’’

’’उस बड़मकुए की यह मजाल ?’’ बाबूजी ने पसीने वाली अपनी गीली कमीज़ इसी पल पहन ली है, ’’मैं इस कबाड़ को उसके हवाले करने अभी जाऊँगा । वह पंखा मैं ने क्या उस नून-तेल वाले के लिए सजाया-संवारा था ? या तुम दोनों की पढ़ाई के लिए ?’’

’’आप पहले अपना नींबू का शरबत तो पी लीजिए, ’’ मैं रूआंसा हो चला हूँ ।

’’नहीं’,’’ फूफाजी वाले पंखे का प्लग उसके साकेट से बाबूजी खींच बाहर निकालते हैं और पंखे के साथ सीढियाँ उतर लेते हैं ।

’’आप इसे अपने मोपेड पर कैसे लादेंगे ?’’ बाबूजी की मोपेड पुराने माडल की है तथा उसके हैडिल और सवारी की गद्दी के बीच की जगह बहुत तंग है ।

’’मैं उस पर लादूंगा ही नहीं ...’’

असंभावित इस नयी चुनौती के जोखिम ने उनका मुस्सा दूर भगा दिया है और वह गुनगुनाने लगे हैं, ’’इसे मैं जुगल के साइकल पर ले कर जाऊँगा ।

’’उसमें खतरा रहेगा, ’’ मैं रो पड़ता हूँ, ’’बहुत बड़ा खतरा...’’

’’चुप हो जाओ, ’’ पंखे को वहीं सीढ़ियों के बीच टिका कर बाबूजी मुझे गोदी में उठा लेते हैं, ’’पंखे को हम दोनों साथ-साथ ले कर जाएँगे । तुम साइकल के हत्थे पर सवार हो जाना...’’

बाबूजी की गुनगुनाहट रास्ते भर जारी रहती है ।

पंखे को हाथ में लिए-लिए ।

साइकल के हत्थे पर बैठा मैं भी जब-तब पंखे को अपने हाथों का सहारा दे देता हूँ ।

कुछेक लोग हमारी तरफ़ कौतुक-मुद्रा से देखते भी हैं तो बाबूजी के चेहरे के सहज, मौजी भाव उनकी सनसनी वापसी में भी ।

अपनी दोस्त के घर से आलोक दोपहर ढले लौटता है ।

बाबूजी इस समय बरामदे सवाल समझा रहे हैं । बिना हमारी ओर देखे बरामदा पार कर रहे आलोक को बाबूजी रोकना चाहते हैं, ’’इधर देखो, आलोक...’’

उन का स्वर उनके मन ही की तरह खिला है प्रसन्न है ।

’’क्या देखूं ?’’ आलोक अपने हाथ हवा में लहराते हुए चीख उठा है ।

’’अपना पंखा देखो । इधर हमारा पंखा देखो । यह वापिस कौन लाया भला ?’’

’’मुझे मालूम है, ’’

आलोक का स्वर तनिक धीमा नहीं पड़ा है, ’’आपका जुलूस पूरे कस्बापुर ने देखा है । धब्बल उन पंखों को बुकटा बनाने की बजाए आप उन्हें रिक्शे से भी ले जा ला सकते थे । फूफाजी सच कहते हैं, आप कंजूस हैं । मक्खीचूस हैं...’’

’’फूफाजी बकते हैं, ’’पीले पड़ रहे बाबूजी के चेहरे को मैं अपने दोनों हाथों की टेक दे रहा हूँ, ’’आप कंजूस नहीं है । आप दिलेर हैं । माँ कहती थीं । आप शेर हैं । बहुत बड़े दिलेर -शेर ...’’

हमारी माँ ने कैन्सर-गुस्त होने के कारण अपने जीवन के अन्तिम पांच वर्ष लगभग रोग-शैय्या  ही पर बिताए थे । कभी अस्पताल की, तो कभी घर की । ऐसे में बाबूजी ही ने हमें सम्भाले रखा था, धरदारी सम्भाली रखी थी ।

’’सच ?’’ बाबूजी रो पडे़ हैं ।

’’हाँ सच । गाड प्रौमिस सच ।’’

मेरे हाथों को अपने हाथों में थाम कर बाबूजी और अधिक ज़ोर से फफक लिए हैं ।

बेतहाशा ।

माँ की मृत्यु के समय भी वह इतने ज़ोर से नहीं फफके थे ।

दीपक शर्मा

बी-35, सेक्टर-सी

अजीगंज

लखनऊ-24