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प्रवासी पुत्र

कहानी

प्रवासी पुत्र

बलदेव राज भारतीय


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लंदन में रहते हुए शिवम का मन अब उठ चुका था। उसने घर वापसी का मन बना लिया। मगर वह शैली को कैसे मनाए? शैली के साथ शादी करने से पहले उसने शैली के माता पिता से यहीं लंदन में बसने का वादा जो किया था। इसी कारण उसने अपनी शादी के विषय में घर में माता पिता को भी कुछ नहीं बताया था। उसके पिता तो उसके विदेश में पढ़ाई करने के भी बिलकुल विरुद्ध थे। यह सब तो उसकी मां के कारण ही संभव हो पाया था। वही मां जो अब कोरोना की भेंट चढ़ गई और वह उसके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका। उसने शैली से शादी कर यहीं बसने का फैसला कर अपने मां बाप का विश्वास खो दिया था। कितना बुरा भला सुनाया था मां ने जब बेटे के जन्म के पश्चात उसने अपनी शादी और बेटे के जन्म की खबर मां को सुनाई थी। जो पिता छोटी छोटी गलती के लिए भी इतना डांट देते थे, आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने उस दिन कुछ भी नहीं कहा था सिवा इसके कि प्रवासी पुत्र! हमें अपना बुढ़ापा साफ नजर आ रहा है कि वह कैसे गुजरेगा? उनकी बातों से उनके हृदय का दर्द झलक रहा था। पिता ने उस दिन के बाद शायद ही कभी उत्साह के साथ शिवम से कभी बात की हो। उस दिन के बाद शिवम ही प्रतिदिन फोन पर बात किया करता था। मां तो फिर भी शैली और बेटे के विषय में बात कर लिया करती मगर पिता शायद अपने आप में घुटते रहते थे। जब मां को कोरोना हुआ और उसकी वजह से मां छोड़ कर चली गई तो पिता ने शिवम को फोन किया था, "बेटा! तेरी मां चली गई। कोरोना ने लील लिया उसे। लॉकडाउन की वजह से तुम तो आ नहीं सकोगे। आखिरी समय तुम्हें देखना चाहती थी, मगर मैं मजबूर था बेटे। तुम्हारी मां की मृत्यु की खबर तो मैं दे रहा हूं बेटे, मेरी खबर तुम्हें कौन देगा? इतनी बड़ी कोठी में जब मेरी लाश सड़ जायेगी और पड़ोसियों को दुर्गंध आएगी, शायद तभी कोई पड़ोसी तुम्हें फोन करके बताएगा कि मैं अब दुनिया में नहीं रहा। ठीक है बेटे तुम सुखी रहो।" कहकर पिता ने फोन काट दिया था।

पिता के शब्द रह रहकर उसके कानों में पिघले शीशे की तरह लग रहे थे। इन शब्दों ने उसे विचलित कर दिया था। ठीक ही तो कह रहे थे पिता। कुछ भी गलत नहीं कहा था उन्होंने। उस दिन के बाद शिवम प्रतिदिन सुबह शाम पिता को फोन किया करता। घर में किसी भी जरूरत को किसी न किसी बहाने पूछ कर उसका यथासंभव हल निकालने की कोशिश किया करता। परंतु उसे अब चैन नहीं था। अनलॉक होते ही उसने स्वदेश वापसी की तैयारी शुरू कर दी। परंतु लंदन छोड़कर पूरी तरह स्वदेश में बस जाना क्या आसान था? वह भी तब जब वह शैली के माता पिता से भी लंदन में बसे रहने का वादा कर चुका था।


कोरोना बहरूपिया बन रूप बदल बदल कर लोगों को अपना शिकार बना रहा था। 2021 की शुरुआत में ही वह स्वदेश लौटना चाहता था। लेकिन शैली की ऑनलाइन कक्षाएं चल रही थी। कुछ दिनों बाद उसकी परीक्षाएं थी। इसलिए कार्यक्रम नहीं बन पाया। परंतु शिवम अपने दिल को कब तक समझा पाता। अब वह लंदन में रहना ही नहीं चाहता था। उसने शैली से कहा," शैली! हम स्वदेश लौट रहे हैं हमेशा के लिए, पिता जी के पास।"

"मैं यह तो नहीं कहूंगी कि तुमने मेरे मॉम डैड से प्रोमिस किया था यहीं बसने का। मुझे तो सिर्फ सुंदरम की चिंता है। …..क्या सुंदरम के लिए अच्छा स्कूल मिल जाएगा वहां? लोग तो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए इंग्लैंड, अमेरिका इत्यादि देशों में जाते हैं और हम अपने बच्चे को भारत में शिक्षा देंगे।" शैली ने कहा।

"देश में भी बहुत अच्छे अच्छे स्कूल हैं, शैली। सुंदरम की एजुकेशन में किसी प्रकार की कमी नहीं रहने देंगे हम।"

"यहां लंदन में रहते हुए इंडिया के बारे में बहुत बुरा भला सुना है। पता नहीं वहां एडजस्ट कर पाऊंगी या नहीं। यदि मेरा मन नहीं लगा तो मुझे लंदन वापस आने से नहीं रोकोगे तुम। यह प्रोमिस करो मुझसे। …….और इसे तोड़ोगे भी नहीं, जैसे मॉम डैड के साथ किए प्रोमिस को तोड़ रहे हो।"

"शैली, तुम एक बार चलो। तुम्हे इतना प्यार मिलेगा वहां कि तुम वापसी के बारे में सोचोगी तक नहीं।" शिवम ने शैली को विश्वास दिलाते हुए कहा।

शैली की स्वीकार्यता मिलने के बाद शिवम के पांव जैसे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसने ऑफिस में अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।

"क्या तुमने पापा को फोन कर दिया कि तुम वापस आ रहे हो?" शैली ने पूछा।

"नहीं! मैं उन्हें सरप्राइज देना चाहता हूं। इसलिए दो चार दिन से मैं पापा को फोन नहीं कर रहा हूं। पापा को कितनी खुशी मिलेगी जब अचानक उनका यह प्रवासी पुत्र उनके सामने होगा।"

" बिलकुल सही।" शैली ने भी शिवम की हां में हां मिलाई।

शिवम ने एयर टिकट बुक कराए और शैली वापसी की तैयारियों में व्यस्त हो गई।



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कोरोना का खतरा लगभग टल चुका था। आहिस्ता आहिस्ता ही सही, जिंदगी की गाड़ी अब पटरी पर फिर से वही रफ्तार पकड़ रही थी जो कोराेना के आगमन से पूर्व पकड़ी हुई थी। वैक्सीनेशन का कार्य अब भी चल रहा था। सन् 2021 का उत्तरार्द्ध चल रहा था। अपने कमरे में नितांत अकेले बैठे सत्यम बाबू अपनी आंखों पर चश्मा चढ़ाए अखबार के पन्ने पलट रहे थे। अकसर जब अखबारों की सभी सुर्खियां पढ़ लिया करते तो वे साहित्य के सागर में गोते खाया करते। कुछ नए और कुछ स्थापित रचनाकारों की रचनाएं पढ़ते हुए वे अपना दिन का समय बिताया करते। पत्नी के कोरोना की भेंट चढ़ जाने के बाद अखबार ही उनके एकाकीपन का साथी थे। दो दिन से हल्का बुखार था उन्हें। डॉक्टर उन्हें दवा दे गया था। मगर उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा था। बार बार मुंह सूख रहा था। वह रसोई में जाते। पानी गरम कर उसे थर्मस में भर लेते और जब भी उन्हें प्यास लगती, थोड़ा सा पानी पी लेते। अस्ताचल की ओर बढ़ रहे सूर्य की किरणें खिड़की से अंदर आ रही थी। संध्या वेला के इस समय सत्यम बाबू के मानसपटल पर अतीत के चलचित्र अपनी धुंधली सी छवि प्रकट कर रहे थे। रह रह कर ढलता सूरज उन्हें उनकी जीवन संध्या की अनुभूति करवा रहा था।


जब तक पत्नी रही तो सत्यम बाबू को कोई समस्या नहीं थी। छोटी से छोटी जरूरत कैसे पूरी हो जाती थी, उन्हें पता ही नहीं चलता था। इकलौता बेटा शिवम इंजीनियरिंग करके लंदन चला गया। वही से उसने मास्टर डिग्री हासिल की और एक इंग्लिश कंपनी में उसे वहीं काम मिल गया। लंदन में रहते हुए वह एक भारतीय परिवार के संपर्क में आया और उसने उसी परिवार की एक लड़की से शादी कर वहीं अपना घर बसा लिया। सत्यम बाबू बिलकुल नहीं चाहते थे कि उनका बेटा विदेश में नौकरी करे या विदेश में बसे। उनका कहना था कि बुढ़ापे में अकसर मां बाप को अपनी संतान की आवश्यकता पड़ती है। फिर उनके पास पर्याप्त संपत्ति है अपने इकलौते बेटे के लिए। चार एकड़ जमीन, एक कोठी और स्वयं उनकी पेंशन और जमापूंजी। लेकिन आजकल के बच्चों को कौन समझाए, वे अकसर कहते कि उनके अपने सपने हैं, उन्हें भी तो कुछ न कुछ करके दिखाना है। सत्यम बाबू को आज तक समझ नहीं आया कि वह आखिर कुछ न कुछ करके किसको दिखाना चाहता था? उन लोगों को जिनसे वो अब कभी मिल भी नहीं पाता या उन लोगों को जो उसे जानते भी नहीं थे। सत्यम बाबू और उनकी पत्नी को तो बेटे की शादी की खबर भी तब लगी जब वह एक बच्चे का बाप बन गया। पहले पहल जब बेटे ने सत्यम बाबू के पास पैसे भेजे तो सत्यम बाबू ने कह दिया था बेटे पैसे यहां बहुत हैं, मुझे पैसे की नहीं, तेरी जरूरत है। तू अपने देश लौट आ। बेटा तो लंदन में बसने का मन बना चुका था। इसलिए अपनी शादी की बात छुपा गया। सत्यम बाबू और उनकी पत्नी उस उम्र में भी धक्के खाते रहे, जिसमें उन्हें बैठ कर खाना था। जिसमें उन्हें वास्तव में ही जरूरत थी कि बेटा उनके पास रहकर उनकी सेवा करे। उन्हें खाना बनाकर देने वाली कोई बहू हो। उनके परिवार में भी नन्हें मुन्नों की किलकारियां गूंजें। आज उन्हें परिवार नियोजन का नारा खोखला नजर आ रहा था। वे उस घड़ी को कोस रहे थे जब उन्होंने एक ही बच्चे पर सब्र कर लिया था। वे एक ही बच्चे को पढ़ा लिखाकर कामयाब करना चाहते थे। वे अपने उद्देश्य में सफल भी हुए। उनका बेटा शिवम हर कक्षा में प्रथम आता रहा। इंजीनियरिंग करना चाहता था तो उसमें भी आसानी से परीक्षा पास कर आईआईटी में प्रवेश पा लिया था। एम टेक करने के लिए लंदन का रुख किया और फिर……..? सत्यम बाबू सोच रहे थे कि आखिर उनसे कहां भूल हो गई?


पत्नी कोराेना से संक्रमित हुई तो भी सत्यम बाबू को हिम्मत बंधा रही थी। परंतु जब अंत समय आया तो उसकी आंखों में बेटे के दर्शनों की प्यास स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। बेटा तो तब भी नहीं आया था जब परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल नहीं थी। अब तो सारे रास्ते ही बंद थे, अब तो कोई कुछ कर भी नहीं सकता था। आकर करता भी क्या? पत्नी का अंतिम संस्कार 10-12 व्यक्तियों की उपस्थिति में अस्पताल के कुछ डॉक्टरों ने कुछ नजदीकी रिश्तेदारों के साथ मिलकर किया। कुछ दिन तो शोक संवेदना प्रकट करने वाले दो चार लोग आते जाते रहते थे जिसके कारण सत्यम बाबू को एकाकीपन का आभास न हुआ। परंतु प्रतिदिन किस के पास समय होता है, फिर कोरोना के कारण लोग डर के मारे शोक मनाने से भी परहेज कर रहे थे। कईं बार तो दिन में एक भी व्यक्ति घर का द्वार न झांकता था। सत्यम बाबू के लिए सबसे बड़ी परेशानी खाना बनाने की थी। वह खिचड़ी बनाते, मन मारकर तीनों समय उसे ही खा लेते। जीने के लिए पेट तो भरना ही था। उन्होंने आसपास से पता किया कि कोई टिफिन वाला मिल जाए ताकि खाने की समस्या तो दूर हो जाए। खैर, एक टिफिन वाले का उसे नंबर मिल ही गया और उसकी समस्या कुछ हद तक दूर हो गई। जीवन की गाड़ी अब एक पहिए पर ही घिसटती जा रही थी। घर खाने को आता था। कईं बार उसका मन चाहता था कि भाग जाए यहां से कहीं दूर, मगर इस उम्र में भागना तो दूर वो ठीक से चार कदम चलने लायक नहीं था। फिर कोई जाता भी तो जाता कहां? लॉकडाउन के कारण सब कुछ तो बंद पड़ा था। इसलिए सत्यम बाबू को घर पर रहकर ही मृत्यु की प्रतीक्षा करना उचित जान पड़ा।


ऐसा नहीं था कि बेटे को पिता की कभी याद नहीं आती थी। वह ऑनलाइन स्टोर से कुछ न कुछ पिता के लिए भेज देता था। शायद यह सोचकर कि पिता उन सारी वस्तुओं को फिजूल समझ कर न खरीदें। जब एक बार घर में कोई वस्तु आ जाती है तो वस्तु खुद इस्तेमाल होने के लिए लालायित हो जाती है। अपना उपयोग करना स्वयं सिखा देती है। एक बार जब फोन पर जब सत्यम बाबू शिवम से बात कर रहे थे तो बेटे को पता चला कि कोरोना की वजह से नौकर काम छोड़कर चला गया और घर की सारी जिम्मेदारी सत्यम बाबू पर आन पड़ी, यहां तक कि घर की साफ सफाई करना बहुत मुश्किल लग रहा था। औरत औरत होती है, घर के सभी कामों को किस तरह संभाल लेती है कि किसी को कुछ भी खबर नहीं लगती। मगर पुरुष को घर की साफ सफाई का मामूली सा काम भी बहुत भारी लगता है। बेटे ने एक अत्याधुनिक इलेक्ट्रिक पोंछा अमेजॉन से ऑर्डर कर दिया। सत्यम बाबू को चौथे दिन ही पोंछा मिल गया। पोंछा आने से सत्यम बाबू का बहुत सा काम हल्का हो गया था। सुबह शाम प्रतिदिन बेटा फोन पर बात कर लेता था। वक्त धीरे धीरे बीत रहा था। जीवन के कठिन पल धीरे धीरे ही तो बीतते हैं। धीरे धीरे बीतते इन पलों के साथ लॉकडाउन अब अनलॉक की ओर बढ़ने लगा था।

मानसपटल पर चल रहे चित्र डोरबेल बजने के साथ ही भंग हो गए। टिफिन वाला था। रात का भोजन दे गया था। बुखार के कारण इच्छा तो नहीं थी परंतु शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता तो होती ही है। इसलिए भोजन कर लेना उचित जाना। अभी दो निवाले ही मुंह में डाले थे कि कै होने का मन हो गया। वह वाश बेसिन की ओर दौड़े। कै करने के पश्चात सिर में भयंकर दर्द होने लगा। उन्होंने टिफिन से भोजन गली में कुत्ते के पास डाल दिया। उन्हें रह रहकर दो बार कै हुई। उन्होंने डॉक्टर से संपर्क किया। डॉक्टर आया और उन्हें दवा देकर चला गया। डॉक्टर को विदा कर उन्होंने गेट लगाया और बिस्तर पर आकर लेट गए। मुंह बार बार सूख रहा था। थर्मस में रखा पानी भी खत्म होने वाला था। वह आँखें बंद कर सोने का प्रयत्न करने लगे।

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एयरपोर्ट से घर के लिए टैक्सी पकड़ शिवम घर के लिए निकल पड़ा। शैली पहली बार भारत में अपनी ससुराल आ रही थी। सुंदरम भी पहली बार अपने दादा जी से मिलेगा। पहली बार मिलने की उत्सुकता भी बहुत आनंददायी होती है। शिवम को बार बार ख्याल आ रहा था कि जिस घर में उसने मां का प्यार पाया आज वह घर मां के बिना कैसा लगेगा? उसकी आँखों के कोर बार बार भीग रहे थे। वह शैली और सुंदरम से छुपाते हुए उन्हें धीरे से पोंछ लेता था। थोड़ी ही देर में वे घर पहुंच गए। शिवम ने डोरबेल बजाई। परंतु अंदर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने दुबारा डोरबेल बजाई, फिर भी कोई उत्तर न मिला। गेट पर बाहर की ओर से भी कोई ताला नहीं था। जिसका अर्थ था कि पापा कहीं बाहर भी नहीं गए थे। मस्तिष्क में बुरे बुरे ख्याल आना प्रारंभ हो गए। "कहीं पापा……..? नहीं, नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए।" शिवम अपने ख्यालों को खुद ही जवाब दे रहा था।


शिवम ने पड़ोस वाले शर्मा अंकल की डोरबेल बजाई। शर्मा जी स्वयं गेट खोलने आए। "अरे बेटा शिवम! कब आए?" शर्मा जी ने पूछा।

"अंकल, अभी अभी पहुंचा हूं। घर की डोरबेल बजा रहा हूं। मगर अंदर से कोई रिस्पॉन्स नही मिल रहा। कहां गए होंगे पापा, आपको कुछ पता है?"

"बेटा! उन्हें परसों से बुखार हो रहा था। कल डॉक्टर दवा भी दे गया था, मगर कुछ आराम नहीं मिला। आज सुबह से तो मैंने भी नहीं देखा। ऐसा करो, दीवार कूद कर अंदर से दरवाजा खोल लो। हो सकता है, बुखार के कारण वो उठे ही न हों।"

शिवम ने दीवार फांद कर अंदर से गेट खोला। शैली, सुंदरम और शर्मा जी भी अंदर आ गए। दरवाजा खोल कर अंदर गए तो देखा कि सत्यम बाबू जमीन पर औंधे मुंह गिरे हुए थे। सत्यम ने बैग नीचे रख दौड़कर उन्हें उठाया। शरीर बुखार से बहुत तप रहा था।

अपने पिता को इस हालत में देख शिवम की रुलाई फूट गई। शैली सामने रसोई से थोड़ा सा पानी ले आई। शिवम ने पानी पिता के होंठों से लगाया। शर्मा जी ने डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर जल्दी ही पहुंच गया। डॉक्टर ने उन्हें एक इंजेक्शन दिया और उनके कुछ टेस्ट लिखे। जिन्हें जल्दी करवाने के लिए कहा। इतने में सत्यम बाबू की आंखें खुल गई। अपने सामने शिवम को देख उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

"बेटा शिवम! तुम……..तुम….आ गए बेटा। ...अब मैं चैन से मर सकूंगा।"

" नहीं पापा! मैं आपके साथ रहने आया हूं।अब मैं कहीं नहीं जाने वाला। यह शैली आपकी बहू और वह सुंदरम आपका पोता। ये सब भी यहीं रहेंगे आपके साथ। अभी तो आपको सुंदरम को एक अच्छा इंसान बनाने के सभी गुण देने हैं।"


" लेकिन बेटा तुम्हारे सपने?"


" मैं वो अभागा बेटा हूं, जो दुनिया में होते हुए भी अपनी मां को मुखाग्नि नहीं दे सका। जो मां के अंतिम समय में न उनकी सेवा कर सका और न दर्शन। वो सपने भी क्या सपने पापा, जो मां बाप की सेवा का हक बच्चों से छीन लें। अपने देश में बेशक कमाई कम होगी परंतु अपनों के प्यार की छत्रछाया तो होगी न पापा।"


"आज मेरे प्रवासी पुत्र को जिंदगी का असली सबक समझ में आ गया। खुश रहो बेटा।" कह कर सत्यम बाबू ने शिवम को अपनी बांहों में भर लिया।


पिता पुत्र का प्यार देखकर शैली की आँखों की कोरें भी भीग गई। उसने निश्चय कर लिया कि वह यहीं रहकर अपने ससुर की सेवा करेगी। सुंदरम भी आगे बढ़कर अपने दद्दू की गोदी चढ़ गया।

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बलदेव राज भारतीय

असगरपुर (यमुनानगर)

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