Aanshu Sukh Gaye - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

आंसू सूख गए - 1

बात 1920 के दशक की है । उस समय जहां देखो वहीं गरीबी का आलम था। बहुत ही ऐसे कम परिवार थे जहां पर दो समय की रोटी आराम से मिलती हो । अधिकतर गरीबी से जूझ रहे थे। मैं ऐसी ही परिस्थितियों में एक गरीब किसान के घर में पैदा हुआ, जहां पर कृषि योग्य भूमि तो थी परंतु कृषि उत्पाद बहुत कम था।
परिवार में अधिक लोग होने के कारण खाने पीने की समस्या भी थी। वर्षा ठीक समय पर हो गई तो कृषि ठीक हो जाती थी । परंतु वर्षा के अभाव में केवल भुखमरी ही थी। उस समय की परिस्थितियों का वर्णन करना बहुत ही कठिन है। परिवार में कुल मिलाकर 12 सदस्यय थे जिनमें 8 बहन तथा दो भाई। दोनों भाई सबसे छोटे थे। अधिकांशतः बहनों की शादी हो चुकी थी केवल एक या दो बची थी।
गांव निकटतम शहर से 6 किलोमीटर दूर था जहां आने जाने का कोई साधन नहीं था। गांव कस्बे से केवल एक पगडंडी द्वारा जुड़ा हुआ था। हां, बैलगाड़ी के लिए लीख अवश्य थी। कसबे में एक छोटा सा बस स्टैंड था जिसमें केवल दो बस आती थी एक सुबह तथा दूसरी शाम को ।
ऐसे कठिन समय में जहां पर गरीबी के अलावा कुछ नहीं था पिताजी ने मुझे शिक्षा देने का मन बना लिया। मुझे ज्ञात नहीं कि पिताजी को यह विचार कहां से आया। खास तौर पर जहां घर में खाने की समस्या हमेशा बनी रहती हो। ऐसे समय में वह मुझे कैसे पड़ा पाएंगे।
गांव में ना तो प्राइमरी विद्यालय था और ना ही मिडिल स्कूल । अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करने के लिए हजारों साल पुराने हजारों गुरुकुलो को तोड़ डाला था और उनके स्थान पर अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बनाए।
विद्यालय के अभाव में गांव के अधिकांश बच्चे अनपढ़ रह जाते थे। जो सामर्थवान थे वे गांव से दूर शहर में जाकर पढ़ते थे। परंतु ऐसे बच्चों की संख्या बहुत कम थी। पैसे के अभाव में पिताजी मुझे दूर शहर में नहीं भेज सकते थे।
गांव में कभी-कभी अंग्रेज साहेब आया करते थे, मेरे पिता उन्हें देखकर बहुत प्रभावित होते, उन गोरे साहिबों को देख कर पिता ने विचार बना लिया कि वह भी अपने बच्चे को अंग्रेजी शिक्षा देंगे तथा एक बड़ा बाबू बनाएंगे । परंतु यह इतना आसान नहीं था।
उन्होंने गहन विचार करने के पश्चात यह निर्णय लिया कि वह मुझे मेरी सबसे बड़ी बहन के पास पढ़ने भेजेंगे। मेरी बहन गांव से 200 किलोमीटर दूर रहती थी । उन दिनों आवागमन के साधन बहुत ही कम थे‌। अधिकांश लोग या तो पैदल चलते थे, अति आवश्यक हुआ तो बस का प्रयोग करते थे ।
अंततः वह समय आ गया जब मुझे मेरी बहन के पास पढ़ने के लिए भेजाना था । यह निर्णय पिता का था मां तो केवल चूल्हा चौके तक ही सीमित थी। संभवतः पिता ने माता से कभी मेरे बारे में कोई गहन चर्चा नहीं की होगी।
गर्मियां खत्म होने को थी और विद्यालय खुलने को थे। घर में कृषि कार्य भी है पूर्ण हो चुका था और मेरा विद्यालय जाने का समय निकट आ रहा था। गांव के मुक्त वातावरण से उछल कूद से तथा इधर-उधर दौड़-धूप करने का अंत आ चुका था। अब मुझे शहर के संकुचित वातावरण में जाने के लिए तैयार होना था। एक दिन मैंने देखा कि मेरे पिताजी मेरे बारे में मां से बात कर रहे हैं कि वे मुझे बहन के पास पढ़ने भेज रहे हैं। मां को यह सुनकर बहुत धक्का लगा, क्योंकि 8 बहनों के पश्चात में ही एक भाई था, दूसरा भाई मेरे से 2 साल छोटा था। पूरा परिवार मुझे बहुत प्यार करता था यहां तक कि एक बहन ने मेरा नाम अपने हाथ पर गुदवा रखा था।
मां नहीं चाहती थी कि मैं उसकी आंखों से ओझल रहूं । परंतु मेरे भाग्य में कुछ और ही लिखा था। पिता ने मां को बहुत समझाया कि बालक को अंग्रेजी शिक्षा देनी है । अंततः मां ने पिता की बात को स्वीकार करनि पडा ,और एक दिन वह आया कि मुझे गांव छोड़ना पड़ा। जाने से 1 दिन पूर्व घर में सब कुछ सामान्य था परंतु रात को एक अजीब प्रकार की शांति थी। मैंने मां को रोते हुए देखा । उसका लाडला सुबह होते ही 200 किलोमीटर दूर पढ़ने जाएगा। रात को मैंने मां को करवट बदलते ही देखा। संभवतः वह मेरी चिंता में सो नहीं पा रही थी ।
सुबह होते ही मा ने हमारे लिए खाना बनाय । मेंने मां को खाना बनाते समय रोते हुए देखा । वेे प्यार के आंसू थे, संभवतः एक मांं के ही हो सकते हैं । आज जब मैं यह कहानी लिख रहा हूं तो मां का वही प्यार मेरी आंखों से आंसू बनकर बह रहा हे । हैं
मां ने खाना बना लिया और मुझे गांव के अंतिम छोर तक विदा करने के लिए चल दीं । मां ने मेरा हाथ बहुत कस के पकड़ा हुआ था उनको लग रहा था कि मैं कहीं उनसे दूर ना चला जाऊं परंतु मेरा रुक पाना संभव नहीं था।
ज्येेष्ठ की तपती हुई गर्मी में उसने मुझे अपने साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था, कि कहीं उनके लाडले को लूू ना लग जाए । थोड़ी ही देर में गांव का अंतिम छोर आ गया । यह वह छोर था जहां से मां को अपने घर लौटना था और मुझे अपनी पढ़ाई की यात्रा के लिए आगे बढ़ना था। पिता के आग्रह पर मां घर लौटने लगी लौटते लौटते पीछे मुझे देखती जाती थी। अब हम बहुत दूर निकल चुके थे जहां से एक दूसरे को देखना संभव नहीं था। पिताजी ने कस्बे की ओर आधा रास्ता तय कर लिया था। पिता ने मुझे थका हुआ देखकर अपने कंधे पर बैठा लिया और रास्ते में चलते चलते मुझे बहुत सारी शिक्षा देने लगे। उनकी शिक्षा आज भी मुझे याद है। उन्होंने कहा कि जब तुम पढ़ लिख जाओगे तो घर का एक बहुत बड़ा सहारा बन जाओगे इसलिए तुम ध्यान लगाकर पढ़ना और किसी के लड़ाई झगड़े में न पड़ना। जहां पर तुम जा रहे हो वह तुम्हारा घर नहीं है, वो तुम्हारी बहन का घर है जहां पर तुम्हें बहुत ही सावधानी से रहना है। सबका कहना मानना और यदि बहन कोई काम करने के लिए कहे तो मना मत करना। मैं तुम्हारी बहन को हर साल खाने-पीने की सामग्री पहुंचाता रहूंगा। तुम केवल पढ़ना। पिता के भोले भाले और सरल वाक्य आज भी मेरे कानों गूं गूंज रहे हैं।
हम सुबह के चले हुए हम शाम को अपनी बहन के घर पहुंच गए।
उस समय की सामाजिक मान्यताएं अलग थी । पिता ने बहन के घर कोई खाना पीना नहीं खाया और जो अपने साथ बांध कर लाए थे उसी मैं पेट भरा। इतना करने के पश्चात मेरे पिता सुबह ही अपने गांव की ओर चल दिए। पिता को मैंने गांव की तरफ जाते हुए नहीं देखा था । वह मुझे गौतम बुध की तरह सोता हुआ छोड़ कर चले गए। उठते ही मैंने पिता को पूरे घर में ढूंढा परंतु वह नहीं मिले। अबोधता के कारण रोने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था । मेरी बहन ने मुझे समझाया कि पिता जल्दी तुमसे मिलने आएंगे। इस आश्वासन से मुझे थोड़ी सी प्रसन्नता हुई परंतु पिताजी उसके पश्चात नहीं आए।
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया मैं अपनी पढ़ाई में एक मध्यम वर्गीय विद्यार्थी रहा इसका मुख्य कारण मां बाप के प्यार से वंचित होना था तथा दूसरी ओर घर में मेरी बहन के द्वारा छोटे-मोटे कार्य करवाना था। दूसरे के घर में रहना बहुत ही अत्यधिक कठिन है। घर में कोई पानी की व्यवस्था नहीं थी और मेरी बहन मुझे पास के कुये से पानी लेने भेज देती थी और भी छोटे-मोटे कार्य करने होते थे जिन्हें मैं अपनी पढ़ाई छोड़कर करता था। घर में मेरी उम्र के और दो तीन बच्चे थे परंतु उनसे इतना काम नहीं करवाया जाता था जितना मुझसे कभी कभी खाने में भी भेदभाव हो जाता था, मैं देखता था कि उन बच्चों को दूध मिल जाता था परंतु मुझे दूध हफ्ते में एक दो दफे ही मिलता था । इस भेदभाव को मैं बड़ी विनम्रता से स्वीकार कर लेता क्योंकि मेरे पिता ने मुझे सिखाया था कि वह घर तुम्हारा नहीं, तुम्हारी बहन का है , अपने घर में और दूसरे के घर में रहने में काफी अंतर होता है। कहने को बहन थी परंतु काम के समय कोई दया नहीं । कभी-कभी काम समय पर ना होने के कारण मेरी पिटाई भी लग जाती थी। मैं इस पिटाई को सहर्ष स्वीकार कर लेता था क्योंकि मुझे मालूम था कि यह मेरा घर नहीं है, और मेरे पिता ने मुझे 200 किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए भेजा है ‌‌ मुझे अपने पिता की आज्ञा का पालन करना है।
हर साल गांव से मेरे पिता खाने पीने की काफी सामग्री बहन के यहां पहुंचा देते थे। समय बीतता गया खट्टी मीठी स्मृतियां बनती चली गई और 1 दिन ऐसा आया कि मैंने अपनी 12वीं की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से पास कर ली। न जाने समय कब बीत गया। मुझे मेरी मां की याद बहुत आती थी परंतु इसका कोई विकल्प नहीं था । क्योंकि मां मुझसे 200 किलोमीटर दूर थी और ना ही मेरे पास और न ही मेरी मां के पास इतने पैसे थे कि हम मिल सकें।
मेरी मां मेरी देखरेख के लिए केवल प्रभु से प्रार्थना करती रहती थी। जब कभी गर्मियों की छुट्टियों में मैं घर जाता था तो वह मुझसे लिपटकर बहुत रोती उसके आंसूओ में ही प्यार था ।
बहन के यहां मुझे दोनों प्रकार का अनुभव हुआ प्यार का भी और पिटाई का भी। परंतु मैं भाग्यशाली था कि मैंने 12वीं कक्षा पास कर ली थी। बाहरवी कक्षा पास करने के पश्चात मेरी मां और पिता की उम्मीदें बहुत बढ़ गई थी। अब उन्हें यह उम्मीद थी कि उनका लाडला एक बहुत बड़ा बाबू बन जाएगा ‌‌।
कहते हैं जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है। मेरे जीवन का पहला संघर्ष समाप्त हो गया था अब मैं जीवन के दूसरे संघर्ष की ओर बढ़ रहा था । ‌
अब मैं संसार में प्रवेश कर रहा था । अब तक तो मेरी देखभाल मेरे माता पिता ने की परंतु संसार किसी की देखभाल नहीं करता है । यहां पर अपना स्थान अपने आप बनाना पड़ता है। कोई भी गलती होने पर मां-बाप प्यार से समझाते हैं , परंतु संसार में जब कोई गलती करता है तो पहले उसे ठोकर मारी जाती है फिर सिखाया जाता है । संसार केवल ठोकर मार कर ही सिखाता है । यह मैंने संसार में आने के बाद में सिखा ।
शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात मेंने अनेक प्रयास किए परंतु मुझे नौकरी नहीं मिली। अपने निर्वह के लिए मेंने टूयशन भी किये। अब मैं किसी योग्य नहीं था । न घर में जाकर कृषि कार्य कर सकता था, अब मुझे केवल नौकरी ही करनी थी ।
अब मैं 19/20 साल का हो गया था इसी समय संसार में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था । अंग्रेजी शासन ने फौज में सैनिकों की मात्रा बढ़ाने के लिए सेना में भर्ती करना शुरू कर दिया। मैं भी भर्ती की लाइन में लग गया और ईश्वर की कृपा से मेरा चयन कर लिया गया। यह वह समय था जब ब्राह्मणों को सेना में अंग्रेजी शासन भर्ती नहीं करता था । अंग्रेजी शासन केवल क्षत्रिय लोगों को प्राथमिकता देता था। परंतु सैनिकों की अधिक आवशयकता होने के कारण अब ब्राह्मणों को भी भर्ती करना प्रारंभ कर दिया । मैं भाग्यशाली था कि मेरा भी सेना में सिलेक्शन हो गया।
सेना में भर्ती होने के पश्चात मुझे तुरंत ही ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया जहां पर मुझे मुश्किल से बंदूक तथा छोटे हथियार चलाना सिखाया गया था । यह ट्रेनिंग केवल 6 महीने की थी इस ट्रेनिंग का मुख्य उद्देश केवल बंदूक तथा मध्यम तोप चलाना सिखाना था । 6 महीने की ट्रेनिंग के पश्चात मुझे मेसोपोटामिया भेज दिया गया। ट्रेनिंग में जाने से पहले मैं अपनी मां और पिताजी से मिलने गांव गया तथा उनका आशीर्वाद लिया ‌। मैंने मां और पिता को यह नहीं बताय कि मैं युद्ध में जा रहा हूं । मैंने केवल इतना बताया था कि मेरा सेना में सिलेक्शन हो गया है और मुझे प्रतिमह ₹50 मिलेंगे । मेरी मां और पिता को यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि उनके लाड़ले को ₹50 मिलेंगे।
मेरे जितने साथी सेना में भर्ती हुए थे वह या तो अनपढ़ थे या मुश्किल से 5 मी या छठी कक्षा पास थे । केवल मैं ही 12वीं पास था। मेरी शिक्षा को देखकर अफसरों ने मुझे सिपाही ना बनाकर एक जे सी ओ बना दिया जो कि एक बहुत बड़ा रेंक था । युद्ध में बहादुरी के लिए मुझे अनेक मेेंडल मिले। बहादुरी के कारण मुझे अगला प्रमोशन मिल गया और मुझे एक लेफ्टिनेंट बना दिया गया यह और भी ऊंचा रेेंक था ।
धीरे-धीरे मैं और प्रमोशन पता गया और अब मैं लेफ्टिनेंट कर्नल बन गया था। घर में मैं प्रतिमाह अपनी मां और पिता के लिए एक निर्धारित धनराशि भेजता गया इससे मेरी मां और पिता का बुढ़ापा बहुत अच्छा व्यतीत हो गया। मेरी मां मुझे बहुत आशीर्वाद देती थी तथा जब मैं दूसरे महायुद्ध में दूसरे देशों में था वह केवल मेरी रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती रहती थी ‌‌। उसकी प्रार्थना तथा आशीर्वाद में बहुत बल था । मां के आशीर्वाद से ही मैं युद्ध में सुरक्षित रहा ‌‌ उसका यह आशीर्वाद ही था कि मैं एक बहुत ऊंचे पद पर पहुंच गया। जीवन के प्रारंभिक सालों में बहुत संघर्ष होते हुए भी आज मैं बहुत प्रसन्न हूं और जीवन की सफलता का अनुभव कर रहा हूं।
आज मैं राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की इन पंक्तियों की सत्यता का अनुभव कर पा रहा हूं
जितने कष्ट कंण्टको मैं है
जिनका जीवन सुमन खिला
गौरव गंध उन्हें उतना ही
यत्र तत्र सर्वत्र मिला

LMSharma