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अय्याश--भाग(१)

अय्याश! ये ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने समाज में अच्छे कार्यों के बदले केवल बदनामी ही पाई,दिल से अच्छे और सच्चे इन्सान की ऐसी दशा कर दी समाज ने कि फिर वो समाज मे अय्याश के नाम से विख्यात हो गया,उसने मानवतावश ऐसे कार्य कर दिए जिससे समाज को लगा कि वें कार्य समाज के विरूद्ध हैं,यहाँ तक के उसके अपने सगे-सम्बन्धियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया।।
अन्त तक जो उसके साथ रही वो उसकी माँ थी,उसे जीवन में केवल तिरस्कार और अपमान के सिवाय कुछ ना मिला,वो अत्यन्त सत्यवादी था और कोई भी कार्य वो खुले मन से करता था,अगर वो तवायफ़ो के पास जाता तो वो रात को चोरी छुपे नहीं दिन के उजाले में वहाँ जाता था।।
उसके ऐसे खुले व्यक्तित्व और उसकी खुली विचारधारा को किसी ने भी पसंद नहीं किया,उसे व्यभिचारी,लम्पट,कामी और ना जाने कौन कौन से नाम से सम्बोधित किया,उसका सबसे चलतू नाम था अय्याश.....
इसी अय्याश व्यक्ति के इर्दगिर्द ही कहानी का ताना बाना बुना गया है,कहते हैं कि समाज में स्त्रियों को ही कष्ट मिलता है लेकिन कष्टो से पुरूष भी अछूता नहीं है,फर्क बस इतना है कि औरत के आँसू दिखाई देते हैं और पुरूष के दिखाई नहीं देते क्योकिं उसके आँसू बहते नहीं हैं,ताकि जमाना उसके पुरूषत्व पर प्रहार ना कर सकें....
तो कहानी शुरू होती है प्रयाग के पास के एक छोटे से गाँव से जहाँ भरतभूषण चतुर्वेदी अपने परिवार के साथ रहते हैं,परिवार में उनकी पत्नी वैजयन्ती चतुर्वेदी,बड़ी बेटी प्रयागी और छोटी बेटी त्रिशला,भरतभूषण जी अपने परिवार के साथ बहुत खुश हैं,वें गाँव की पाठशाला में हेडमास्टर हैं,कभी कभी पंडिताई भी कर लेते हैं,इसलिए उनके माथे पर चन्दन का लेप सदैव रहता है साथ में उनकी शिखा में लगी गाँठ जो केवल उनके स्नान के समय ही छूटती है।।
ज्यादा दौलतमंद तो नहीं है चतुर्वेदी जी के पास,बस थोड़ी जी जमीन है जो वो किसी ना किसी गरीब किसान को बँटिया में दे देते हैं,बाद में फसल हो जाने पर आधी आधी बाँट लेते हैं,बस एक ही बात के लिए उन्हें गाँववाले टोकते हैं कि एक बेटा हो जाता तो वंशबेल बढ़ जाती,लेकिन चतुर्वेदी जी को इस बात का कोई मलाल नहीं है,वें कहते हैं कि सन्तान तो दी है ना ईश्वर ने,जिनके घर सन्तान ही नहीं है उनसे जाकर कोई पूछे कि सन्तान ना होने का दुःख क्या होता है?
पंडित जी की ऐसे बातों से लोगों का मुँह बन्द हो जाता,पंडित जी को अपनी बेटियाँ बहुत प्यारी हैं और वें उन्हें घर के काम सिखाने के साथ साथ पढ़ाते भी हैं,उनका कहना है कि अगर मेरे मास्टर रहते मेरी बेटियाँ अनपढ़ रह जाएं तो लानत है मुझ पर।।
ऐसे ही दिन बीत रहे थे कि एक रोज़ वैजयन्ती गश़ खाकर जमीन पर गिर पड़ी,बड़ी बेटी प्रयागी ने देखा तो चीख पड़ी और बोली....
देखिए ना बाबूजी! माँ को क्या हो गया है?
पंडित जी फौरन भागकर आएँ और वैजयन्ती को बिस्तर पर लिटाया फिर बाहर जाते हुए बच्चों से बोले....
मैं फौरन ही वैद्य जी को लेकर आता हूँ।।
और फिर कुछ देर बाद वें वैद्य जी को लेकर लौटे,तब तक वैजयन्ती होश में आ चुकी थी,वैद्य जी ने वैजयन्ती की नब्ज टटोली और बोले....
पंडित जी! शायद खुशखबरी है,पंडिताइन जी को मेरी नहीं दाई माँ की जरूरत है,आप फौरन ही उन्हें बुला लें।।
और इतना सुनते ही वैजयन्ती का चेहरा शर्म से लाल हो गया क्योकिं छोटी बेटी त्रिशला अब दस साल की हो चुकी थी और दस साल के बाद वैजयन्ती का खुशखबरी सुनाना,उसे थोड़ी शरम सी महसूस हो रही थी फिर दाईमाँ आई और उन्हें इस खुशखबरी पर पक्की मोहर लगा दी।
कुछ महीनों के बाद एक रात वैजयन्ती को प्रसवपीड़ा हुई और फिर दाईमाँ को बुलाया गया,पंडित जी हैरान परेशान से घर के आँगन में विचरण कर रहे थें,तभी कुछ समय पश्चात नन्हे शिशु की रोने की आवाज़ आई,तब जाकर पंडित जी को चैन पड़ा,दाई माँ फौरन कोठरी से बाहर आकर बोली....
बधाई..हो पंडित जी! बेटा हुआ है,तगड़ा नेग लूँगी,झुमके तो बनवाने ही पड़ेगें।।
पंडित जी बोले....
हाँ...हाँ...मनचाहा नेग ले लेना पहले ये बताओ कि वैजयन्ती कैसी है?
वो ठीक है और बच्चा भी स्वस्थ है,दाई माँ बोली।।
फिर दाई माँ को पंडित जी ने मनमाना नेग दिया फिर अपनी बड़ी बहन श्यामली को कुछ दिनों के लिए वैजयन्ती की देखभाल के लिए बुला लिया,बच्चे का नामकरण हुआ ,पूरे पास-पड़ोस और रिश्तेदारों को भोज कराया गया,बच्चे का नाम पंडित जी ने सत्यकाम रखा,जिसका अर्थ होता है सत्य की कामना करने वाला,पंडित जी का परिवार अब पूरा हो चुका था।।
दिन ऐसे ही खुशी खुशी बीत रहे थे,अब सत्यकाम पाँच साल का हो चुका था,पंडित जी उसे अब अपने साथ पाठशाला लेकर जाने लगे थे,सत्यकाम पढ़ने में बहुत होशियार और दयालु भी था,वो जब भी किसी को दुखी देखता तो उसकी मदद करने पहुँच जाता।।
एक बार ऐसे ही पाठशाला के रास्ते पर एक अछूत बुढ़िया पेड़ के नीचे भूखी बैठी थी,सत्यकाम ने उसे देखा और पूछा....
माई ! क्या हुआ बीमार हो?
तब बुढ़िया बोली,
नहीं ! बेटा! भूखी हूँ,कई दिनों से कुछ नहीं खाया।।
तब सत्यकाम घर भागकर गया और घर से सारी रोटियाँ और सारी तरकारी उठा लाया और बुढ़िया को अपने हाथों से खिलाने लगा,पड़ोस की एक औरत ने देख लिया और वैजयन्ती से चुगली कर दी,जब सत्यकाम घर लौटा तो वैजयन्ती बाल्टी में पानी लेकर खड़ी थी और फिर सत्यकाम नजदीक आया और उसने वो पानी सत्यकाम पर डाल दिया।।
और उसे बहुत डाँटा,जब पंडित जी घर लौटे तो उनसे उसकी शिकायत भी कर दी सत्यकाम को लगा कि बाबूजी भी गुस्सा करेगें लेकिन पंडित बोले....
शाबाश! मेरे बेटे! मैं तुझसे ऐसी ही उम्मीद रखता था,सत्य का साथ और दयालुता कभी मत छोड़ना,इन दोनों के बिना इन्सान पशु समान है।।
दिन बीत रहे थें अब सत्यकाम छः साल का हो चुका था,उसकी सबसे बड़ी बहन प्रयागी अठारह साल की हो चुकी थी और त्रिशला सोलह साल की,पंडित जी की आमदनी कम थी और दो दो सयानी बेटियाँ हो चुकीं थीं,तब पंडित जी ने सोचा क्यों ना कुछ ट्यूशन करके आमदनी में बढ़ोत्तरी कर ली जाए और वें गाँव के कुछ बच्चों को घर जाकर ही ट्यूशन देने लगे।।
ये बात गाँव के सेठ दौलतराम ने सुनी तो बोले....
मास्टर जी! क्या आप मेरी बेटी को मेरे घर आकर पढ़ा सकते हैं।।
पंडित ने सेठ जी से ट्यूशन के लिए हाँ बोल दी....
पंडित जी सेठ जी के घर बेटी को पढ़ाने जाने लगे,सेठ जी की बेटी भी सोलह साल की थी और सेठानी का देहान्त हो चुका था,सेठ जी का बड़ा बेटा था जो कि शहर में पढ़ता था,सेठ जी रोज अपने नियमित समय पर कालिन्दी को पढ़ाने जाने लगें।।
उनका एक निर्धारित समय था सेठ जी के घर जाने का,रोज शाम को कालिन्दी उनका इन्तजार करती,इसलिए नौकर भी शाम को मकान के द्वार खुले रखता और फिर पंडित जी सीधे कालिन्दी के कमरें में उसे पढ़ाने के लिए चले जाया करते.....
उस रोज भी यही हुआ और पंडित जी सीधे कालिन्दी के कमरें के किवाड़ खोलकर भीतर चले गए लेकिन वहाँ का दृश्य देखकर वें ठिठक गए,कालिन्दी निर्वस्त्र अवस्था में किसी परपुरुष के साथ थी,पंडित जी ने शरम से अपनी आँखें बंद कर लीं और फौरन ही बाहर चले गए.....
अब कालिन्दी डर गई,उसे लगा कि ऐसा ना हो कि पंडित जी सबकुछ उसके पिता से कह दें,उस लड़के को उसने कमरे की खिड़की के रास्ते बाहर भेज दिया और फिर वो आधे-अधूरे ही वस्त्र डालकर बाहर आई और चीख चीखकर रोने लगी,उसकी चीख पुकार सुनकर सभी नौकर इकट्ठे हो गए...
और उसने नौकरों से कहना शुरु कर दिया कि मास्टर जी ने मेरे साथ बदसलूकी करने की कोश़िश की है ये देखिए मेरी दशा,अब मैं दुनिया को क्या मुँह दिखाऊँगी?
कालिन्दी की बात सुनकर सभी नौकर बाहर भागें,पंडित जी तब तक ज्यादा दूर नही जा पाएं थे और सभी नौकरों ने पंडित जी को पकड़कर उनकी पिटाई शुरु कर दी.....
फिर पंडित जी को सारे गाँव में बेइज्जत किया गया,बिना कुसूर की ऐसी सजा पाकर पंडित जी को स्वयं पर बहुत ग्लानि महसूस हुई,उन्होंने वैजयन्ती के सामने अपनी सफाई पेश की लेकिन औरत का मन तो पति पर भरोसा कर रहा था लेकिन मस्तिष्क भरोसा नहीं कर रहा था,उस दिन पंडित जी बहुत रोए और उस रात किसी से बिना कुछ बताएं ही घर छोड़कर चले गए....
पति की बदनामी और ऐसे घर छोड़कर जाना वैजयन्ती के लिए असहनीय था ऊपर से तीन तीन बच्चों की जिम्मेदारी,बेचारी कैसे क्या करें उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.....
तभी एक दिन पता चला कि सेठ जी को अपनी बेटी कालिन्दी के बारें में सब कुछ पता चल गया है,सेठ जी ने भी कालिन्दी को उस लड़के के साथ देख लिया था,कालिन्दी गर्भवती थी और वो लड़का उसे अपनाने से इनकार कर रहा था,हालातों से मजबूर होकर कालिन्दी ने कुएँ में डूबकर आत्महत्या कर ली लेकिन मरते वक्त उसने चिट्ठी लिखकर मास्टर जी को निर्दोष साबित कर दिया और खुद को कुसूरवार बताया....
जब वैजयन्ती को पता चला तो वो बहुत पछताई.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....


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