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अय्याश--भाग(१०)

विन्ध्यवासिनी अपने पति और सास की दशा देख देख कर परेशान हो रही थी और बराबर रोएं जा रही थी,उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि इतनी रात को वो ऐसा क्या करें कि दोनों के प्राण बच जाएं और दूसरी तरफ दुष्ट मलखान विन्ध्यवासिनी को रोता देख मंद मंद मुस्कुरा रहा था।।
और फिर कुछ ही देर में उसकी सास ने अपने प्राण त्याग दिए वो सास को लेकर रो ही रही थी कि इतने में उसके पति का दम भी निकल गया,पति को जाता देख वो खुद को रोक ना सकी और उसकी जोर से चीख निकल गई,वो उस समय निःसहाय और असमर्थ थी और इस बात का फायदा मलखान ने बखूबी निभाया,दोनों के मरते ही वो उसे पकड़कर दूसरी कोठरी में ले जाने लगा,
विन्ध्यवासिनी ने स्वयं को छुड़ाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वो नाकाम रही,उसने मलखान को दाँतों से भी काटा लेकिन मलखान ने उसके गालों पर थप्पड़ लगाएं और उसे बहुत पीटा फिर उसे दूसरी कोठरी में ले जाकर उसके सतीत्व को भंग कर दिया,विन्ध्यवासिनी चीखती रही...चिल्लाती रहीं लेकिन उसकी पुकार सुनने वाला वहाँ कोई भी नहीं था,उस पापी ने आखिर अपना बदला ले लिया और रातोंरात विन्ध्यवासिनी को वहीं उसी दशा में छोड़कर भाग गया।।
कुछ समय तक तो विन्ध्यवासिनी ऐसे ही पड़ी रही लेकिन फिर उसने स्वयं में हिम्मत जुटाई और वो मन्दिर के पीछे बनी बस्ती में जा पहुँची और वहाँ के लोगों के द्वार पर जाकर गुहार लगाई,कुछ औरतें निकलकर आई और विन्ध्यवासिनी ने अपनी कहानी उन सबको कह सुनाई,औरतों ने जब ये सुना तो अपने अपने घर के पुरूषों को मन्दिर के ऊपर जाने को कहा,फिर पुरूषों का झुण्ड मशाल जलाकर ऊपर गया और वे सब वहाँ से विन्ध्यवासिनी के पति और सास का मृत शरीर लेकर नीचे आएं।।
और सुबह होने तक उन दोनों के मृत शरीरों के पास सब दिया जलाकर बैठे रहें,सुबह हुई तो उन दोनों का अन्तिम संस्कार कर दिया गया,महिलाओं ने रोती हुई विन्ध्यवासिनी को सम्भाला और फिर उसे उसके गाँव भी छुड़वाया,गाँव पहुँचते ही विन्ध्यवासिनी सीधे जमींदार जी के घर पहुँची और उन्हें सब बता दिया,अब जमींदार साहब के गुस्से का पार ना था और वो मलखान को ढुढ़वाने लगे।।
विन्ध्यवासिनी दुखी मन से अपने घर पहुँची और रात को रोते रोते ही सो गई लेकिन मलखान का अभी भी जी नहीं भरा था,उसे ये पता चल गया था विन्ध्यवासिनी ने उसके पिता को सब बता दिया है इसलिए वो विन्ध्यवासिनी को रातोंरात उसके घर से उठवाकर शहर ले गया और उसे बदनाम गली में जाकर बेच दिया,जब विन्ध्यवासिनी को होश आया तो वो एक कोठे पर थी।।
और उधर जैसे ही जमींदार साहब को अपने बेटे मलखान का पता चल गया तो उन्होंने उस पर अपनी बन्दूक की सारी गोलियांँ दाग दी और खुद को पुलिस के हवाले कर दिया।।
इधर विन्ध्यवासिनी ने अपनी कहानी कोठे की मालकिन शरबती बाई को सुनाई और उससे कहा कि वो ये काम नहीं करना चाहती थी लेकिन कोठे की मालकिन शरबती बाई बोली....
बेटी! मैं तुझसे ये काम करने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं करूँगी,लेकिन तेरा पति नहीं है तेरी सास नहीं है तू अब कहाँ जाएगी? तेरी अस्मत को जार जार करने वाले यहाँ कई मिल जाऐगें लेकिन कोई ऐसा नहीं मिलेगा जो तुझे आसरा दे सकें,तुझे महफूज रख सकें,तेरे घर के दोनों लोंग तो ऊपरवाले के पास जा चुके हैं अब तुझे महफूज रखने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है।।
तो मर जाऊँगी लेकिन ये काम नहीं करूँगीं,तभी ये कहते हुए अचानक विन्ध्यवासिनी को अपने देवर रवीन्द्र की याद आ गई,तब उसने शरबती बाई से कहा....
नहीं! शरबती बाई! मैं पति और सास के ग़म में भूल गई थी कि मेरा एक देवर भी है,मैं उसके लिए जिऊँगीं मैं उसे सम्भालूँगी ,मैं उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगी।।
तो फिर अपने घर लौट जा और अपना व्यापार सम्भाल लें,शरबती बाई बोली।।
हाँ! मैं यही करूँगी,विन्ध्यवासिनी बोली।।
और सुन जब कभी भी तुझे मेरी जरूरत हो तो इस कोठे के दरवाजे तेरे लिए हमेशा खुले हैं,शरबती बाई बोली...
और फिर विन्ध्यवासिनी अपने घर लौट आई,इसी बीच गाँव के लोगों ने रवीन्द्र को सब बता दिया था और कहा कि तेरी भाभी कु्ल्टा है,इस घर और इस व्यापार को हथियाने के लिए ही उसने ये खेल रचा तेरी माँ और बड़े भाई को मरवा दिया और यहाँ आकर जमींदार साहब के कान भरकर उनके बेटे को उन्हीं के हाथों मरवा दिया,फिर क्या था रवीन्द्र के मन में अपनी अपनी भाभी विन्ध्यवासिनी के लिए खोट पैदा हो गया और वो उसी वक्त अपने घर लौट आया, घर आकर उसने अपने व्यापार को सम्भाल लिया।।
जब विन्ध्यवासिनी अपने घर पहुँची तो रवीन्द्र ने उसे जलील करके घर से निकाल दिया और ना जाने उसे क्या क्या कहा,कुल्टा,कुलच्छनी,कुल-कलंकिनी,ये सुनकर विन्ध्यवासिनी ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और रोते हुए वो फिर से शरबतीबाई के कोठे पर पहुँच गई और उसे सब कह सुनाया,विन्ध्यवासिनी की बात सुनकर शरबती बाई बोली....
रो मत बेटी! मैनें तो पहले ही कहा था कि अकेली औरत को ये दुनिया जीने नहीं देती,कोई बात नहीं आज से तू यहीं रह गाने नाचने की तालीम लें,तू सिर्फ़ मुजरा करेगी और कुछ नहीं और आज से तेरा नाम बिन्दिया बाई है,जब कोठे में रह रही है तो इतना पवित्र नाम क्यों रखना क्योकिं विन्ध्यवासिनी तो दुर्गा माँ का नाम होता है और फिर उस दिन से विन्ध्यवासिनी बिन्दिया बन गई।।
बिन्दिया की कहानी सुनाते सुनाते मुरारी भी उदास हो गया और साथ में सत्यकाम की भी आँखें भर आईं,सत्यकाम की नम़ आँखें देखकर मुरारी ने कहा....
ब्राह्मण देवता! शायद आप का दिल बड़ा ही नरम है इसलिए दूसरों का दुख देखकर आपकी आँखें भर आईं,नहीं तो जिससे ना जान ना पहचान उसके लिए भी आपके मन में दर्द उठ गया,लगता है आप बहुत भावुक हृदय के व्यक्ति हैं।।
पता नहीं क्यों मेरा हृदय भावुक हो उठा?सत्यकाम बोला।।
निर्मल हृदय वाले ऐसे ही होते हैं,मुरारी बोला॥
और फिर रेलगाड़ी चल पड़ी और सफ़र के बीच यूँ हीं दोनों के बीच बातें चलतीं रहीं,शाम होने की थी और रेलगाड़ी कलकत्ता पहुँच चुकी थी,सब रेलगाड़ी से उतरे और स्टेशन के बाहर इकट्ठे हुए तब मुरारी ने सत्यकाम से पूछा....
ब्राह्मण देवता ! आप कहाँ ठहरेगें?
अभी तो कुछ सोचा ही नहीं,अन्जान जगह और जेब में उतने पैसे भी नहीं है,सत्यकाम बोला।।
तो आप हमारे साथ धर्मशाला में क्यों नहीं ठहर जाते? मुरारी बोली।।
मेरी वजह से आप लोंग खामख्वाह में क्यों परेशानी उठाते हैं? सत्यकाम बोला।।
इसमें परेशानी की क्या बात है? वैसे भी मुजरा तो परसों रात को है किसी जमींदार के बेटे का ब्याह है,दो दिन तो हम लोंग केवल आराम करने वाले हैं,आप भी साथ रहेगें तो अच्छा रहेगा,मुरारी बोला।।
ठीक है तो ऐसा ही सही और इतना कहकर सत्यकाम दोनों के साथ ताँगें पर सवार होकर धर्मशाला की ओर बढ़ चला,धर्मशाला पहुँचते पहुँचते अन्धेरा घिर आया था,सब धर्मशाला के द्वार पर पहुँचे और वहाँ के मालिक से कोठरी की चाबी ली कुछ पैसा जमा किया,तब कोठी के मालिक ने नौकर को पुकारा....
हजारी....ओ हजारी....जरा इन लोगों को इनकी कोठरी तक पहुँचा दो।।
हजारी कंधे पर गमछा डाले भागते हुए आया और बोला...
हाँ! मालिक !कछु कही का आपने, हम कुछ काम रहे थे,सुन नई पाए आपकी बात।।
हाँ! मैनें कहा इन लोगों को इनकी कोठरी तक पहुँचा दो,धर्मशाला का मालिक बोला।।
लेव अबई पहुँचाएं दे रहे इन लोगन को,चलो भइया हमाएं पछाएं पछाएं चले आओ....हजारी बोला।।
सत्यकाम को हजारी की बातें अच्छी लगीं और उसने पूछा....
कहाँ से हो भाई?तुम्हारी बोली तो बड़ी अच्छी है॥
हम....हमसे पूछ रहे का भइया? हजारी ने पूछा।।
हाँ! भाई तुम्ही से पूछ रहा हूँ,सत्यकाम बोला।।
हम तो झाँसी जिला के हैं ,बुदेलखण्डी है हमाई बोली का नाम,हजारी बोला।।
तब तो बहुत बढ़िया,आल्हा-वाल्हा गा पाते हो कि नहीं, सत्यकाम ने पूछा।।
और का,बुन्देलखण्डी बढ़िया बढ़िया कजरी,रई और दादरे भी गा पाते हैं हम तो,हजारी बोला।।
मौका मिला तो जरुर सुनूँगा,सत्यकाम बोला।।
और फिर हजारी बोला....
ये रही कोठरी वो बीच वाली चार नम्बर वाली खाली है,उसी में जाके डेरा डाल लो,ये रहा कुआँ और वो रहें साथ में दो तीन स्नानघर वहीं बाल्टियाँ रखीं हैं,कुआँ से पानी भरिओ और नहा लइओ,तो अब हम जाते हैं।।
सत्यकाम बोला,ठीक है जाओ।।
धर्मशाला बहुत ही बढ़िया थी ,बीच में आँगन और आँगन में कुआँ,आँगन के चारों ओर गोलाकार में कोठरियाँ बनी थीं और सभी कोठरियों के बाहर खाना बनाने के लिए चूल्हें भी बने थे, वहीं आँगन में रस्सियांँ बँधीं थीं कपड़े सुखाने के लिए और खूब फूल फुलवारी भी लगी थी साथ में दो अमरूद के पेड़ ,एक आम का पेड़ और एक हरसिंगार का पेड़ लगा था,मुख्य द्वार पर मधुमाल्ती की बेल फैली थी,जिसके फूलों से भीनी भीनी खुशबू आ रही थी,धर्मशाला का नजारा देखकर सबका जी खुश हो गया।।
सुनो भइया! एक कोस पैदल चल के बाजार है जरूरत का सब समान मिल जाता है,जाते हुए हजारी बोला।।
ठीक है,सत्यकाम बोला।।।
तब मुरारी बोला....
आप दोनों भीतर जाकर आराम करो ,मैं तब तक रात का खाना ले आता हूँ और सुबह के लिए कुछ आटा और सब्जी ले आता हूँ दो तीन दिन रहना है यहाँ ,बाहर का रोज रोज खाकर कहीं पेट ना खराब हो जाएं।।
ठीक है तो तुम जाओं मुरारी भइया! विन्ध्यवासिनी इतनी देर बाद बोली।
और हाँ ये कुछ रूपए हैं मेरे लिए एक बना बनाया कुर्ता और धोती लेते आना,कल से स्नान नहीं किया,सत्यकाम बोला।।
जी! ठीक है! लेकिन आप ये रूपए रख लें ,मैं सब लेता आऊँगा,मुरारी बोला।।
लेकिन आप क्यों खर्च करते हैं? सत्यकाम बोला।।
तो क्या हुआ? अब आप मेरे मित्र जो बन गए हैं और अपने मित्र के लिए मैं इतना भी नहीं कर सकता,मुरारी बोला।।
ठीक है अगर आप नहीं मानते तो यही सही,सत्या बोला।।
और फिर मुरारी बाजार चला गया,फिर सत्यकाम ने साथ में लाई हुई सुराही से पानी निकाला और पी लिया उसने विन्ध्यवासिनी से पूछा....
पानी पिओगी बिन्दू!
इतने सालों बाद सत्या के मुँह से अपना नाम सुनकर विन्ध्यवासिनी की आँखें छलछला आईं वो अपना सारा दुख सत्या को बताना चाहती थी,अपने मन के सारें भावों को वो सत्या के सामने उड़ेलना चाहती थी,उससे कहना चाहती थी कि सत्या मैं तुम्हें कभी भूल ही नहीं पाई,लेकिन विन्ध्यवासिनी ने ऐसा कुछ नहीं कहा अपने भावों को उसने अपने तक ही सीमित रखा।।

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....