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अय्याश--भाग(४)

दूसरे दिन विन्ध्वासिनी की विदाई थी और सत्यकाम अपने घर में उदास बैठा था,उसके मन का हाल केवल गंगाधर और श्रीधर ही समझ सकते थे,तब सत्यकाम की माँ वैजयन्ती घर के भीतर आई और सबसे बोली....
तुम सब यहाँ बैठो हो,वहाँ भाभी तुम सबको बुला रही है,
मन नही है मेरा वहाँ जाने का इसलिए नहीं गया,सत्यकाम बोला।।
ठीक है सत्या का मन नहीं था और तुम दोनों क्यों नहीं आएं? वैजयन्ती ने गंगाधर और श्रीधर से पूछा।
सत्या नहीं आया तो हम भी नहीं आएं,श्रीधर बोला।।
विन्ध्यवासिनी की विदाई होने वाली है,चलो वहाँ ,वो तुमलोगों को पूछ रही थी,वैजयन्ती बोली।।
ठीक है आप चलिए हम सब भी आते हैं,गंगाधर बोला।।
फिर वैजयन्ती चली गई और वैजयन्ती के जाने के बाद गंगाधर सत्यकाम से बोला....
सत्या! जा मिल ले बिन्दू से फिर ना जाने कब तेरा उससे मिलना हो?
मेरा मन नहीं है गंगा! मैं उसे जाते हुए नहीं देख पाऊँगा,सत्या बोला।।
लेकिन तू अगर उससे मिलने नहीं जाएगा तो उसे बहुत बुरा लगेगा,श्रीधर बोला।।
और फिर दोनों के कहने पर सत्या बिन्दू से मिलने पहुँचा,लेकिन तब तक विन्ध्यवासिनी डोली में बैठ चुकी थी और सत्या उसे एक ही झलक देख पाया था,तब गंगाधर ने सत्या का हाथ पकड़ा और उसे औरतों की भीड़ के साथ बिन्दू तक पहुँचा दिया,सत्या ने तब बिन्दू को जीभर के देखा और उसकी ओर इमलियों से भरी पोटली बढ़ा दी,पोटली लेते ही बिन्दू फूट फूटकर रो पड़ी ,उस समय सत्या ने भी अपने आँसुओं को बड़ी मुश्किल से सम्भाला,सत्या रोने को हो ही रहा था कि फिर गंगाधर उसका हाथ पकड़कर औरतों की भीड़ से वापस ले गया और सीधे घर जाकर ही रूका....
फिर गंगा ने सत्या को अपने सीने से लगाया और यूँ ही काफी देर तक लगाए रहा जब तक कि रोते रोते सत्या के मन का गुबार ना निकल गया।।
रात को सत्या खाना नहीं खा रहा था तब गंगाधर ने उसे जबरदस्ती खाना खिलाया और जब तक सत्या जागता रहा तो वो भी उसके साथ जागता रहा,जब गंगाधर ने देखा कि गाँव में सत्या का मन नहीं लग रहा है,तो वो उसे इलाहाबाद ले गया और वहाँ सत्या धीरे धीरे विन्ध्यवासिनी की यादों को अपने मन से निकालकर पढ़ाई में मन लगाने लगा।।
इसी बीच एक बार सत्या के छोटे मामा रामभक्त त्रिवेदी जी का गाँव आगमन हुआ,रामभक्त को देखते ही बड़े भाई दीनानाथ त्रिवेदी का पारा चढ़ गया और वे घरवालों से बोलें....
इस नालायक को अगर किसी ने घर में घुसने दिया तो मुझसे बुरा क्यों ना होगा?इस कुल-कलंकी ने अगर मेरे घर पर कदम भी रखें तो मैं उसी वक्त इसका पिण्डदान करवा दूँगा....
सावित्री अपने पति के क्रोध से भलीभाँति परिचित थी,इसलिए उसने अपने देवर को घर में घुसने नहीं दिया,उससे बाहर से ही माँफी माँग ली,रामभक्त भी अपनी भाभी की बात मानकर और हालात को समझते हुए घर से दूर चला गया और अपने किसी पुराने मित्र के घर में डेरा डाल दिया....
उसने बनारस छोड़ दिया था क्योकिं अब थियेटर में उसे आनंद नहीं आ रहा था,वैसे भी वो एक हरफनमौला व्यक्ति था,एक जगह टिक ही नहीं पाता था,वो गाँव में अपने किसी पुराने मित्र के घर रहने तो लगा था लेकिन उसे अपने मित्र का घर भी रास ना आया क्योकिं रामभक्त की आदत थी कि वो रात-बिरात घर लौटता और कभी कभी तो शराब पीकर भी आता था,इससे उसके मित्र की पत्नी ने काफी़ एतराज जताया और फिर एक दिन उसके मित्र ने रामभक्त को अपना अलग ठिकाना ढूढ़ लेने का सुझाव देकर अपने घर से जाने को कह दिया।।
रामभक्त ने भी उसी वक्त मित्र का घर छोड़ दिया और एक पेड़ के नीचे आसरा लिया,तभी उसे दूर कुछ रोशनी दिखाई दी और कुछ संगीत सुनाई दिया,रामभक्त तो वैसे भी संगीतप्रेमी था इसलिए वो उस ओर चल दिया,वहाँ जाकर उसने देखा कि नौटंकी हो रही है....
वो ध्यानमग्न होकर नौटंकी देखने लगा,उसने देखा कि सत्रह-अठारह साल की एक नवयौवना किसी लोकगीत पर थिरक रही है वो उसे ध्यानमग्न होकर देखने लगा,जब उस नवयौवना का नृत्य समाप्त हुआ तो वो उसके पास पहुँचा और बोला....
बहुत अच्छा नाचती हो,बिल्कुल किसी थियेटर की एक्ट्रेस की तरह...
जी! धन्यवाद! लेकिन मैने आपको पहचाना नहीं,उस नृत्यांगना ने पूछा।।
जी! मैं रामभक्त! दीनानाथ त्रिवेदी जो कि मंदिर के पुजारी हैं,उनका सबसे छोटा भाई,रामभक्त ने अपना परिचय देते हुए कहा...
ओह...मैं हीराबाई! नौटंकी में नाचती हूँ,हीराबाई बोली।।
जैसा नाम है वैसा ही रूप पाया है,रामभक्त बोला।।
ये रूप ही तो मेरा दुश्मन बना बैठा है,नहीं तो नौटंकी में काम क्यों करती?हीराबाई बोली।।
क्यों क्या हुआ ? लगता है समाज की सताई हुई हो,रामभक्त ने पूछा....
ये समाज है त्रिवेदी जी! कुछ करो तो भी कहेगा,कुछ ना करो तो भी कहेगा,हीराबाई बोली।।
मैं भी इसी समाज का शिकार ना जाने कितने बार हुआ हूँ,रामभक्त बोला।।
वो क्यों भला? आप तो इतने ऊँचे खानदान से ताल्लुक रखते हैं तब भी,हीराबाई बोली।।
खानद़ान से ताल्लुकात रखने से कुछ नहीं होता,बस अपनी पसंद की हिसाब से जीने लगो तो तब भी समाज को उसमें बुराई नज़र आने लगती है,मैं अपने दोनों भाइयों की तरह धर्म को नहीं मानता मेरे लिए मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है और मैं कभी दूसरों के हिसाब से अपना जीवन नहीं जीता इसलिए जमाना मुझे समाज विरोधी कहता है,रामभक्त बोला।।
जी! मैं समझ सकती हूँ,क्योकिं मेरे माँ बाप नहीं है,मेरे दो छोटे भाई बहन हैं और एक बूढ़ी दादी है,घर चलाने के लिए मैं लोगों के पास काम माँगने गई तो लोगों की गंदी नजरों ने मुझे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा,काम देने के बदले वो लोंग कुछ और ही चाहते थे इसलिए फिर मैनें सोचा कि जब गंदी नजरों का शिकार होना ही है तो क्यों ना नाच गाकर ही अपने परिवार का पेट पालने लगूँ, लोंग दूर से मेरे तन को निहार पाएंगे,कम से कम कोई पास आकर तो मेरी बेइज्जती नहीं करेगा,अब अपने दम पर नाचती गाती हूँ किसी की भी अब मुझे हाथ लगाने की हिम्मत नहीं होती,हीराबाई बोली ।।
बहुत सही किया तुमने,रामभक्त बोला।।
सही हो या गलत ,लेकिन अब मेरा परिवार भूखों तो नहीं मर रहा,हीराबाई बोली।।
मैं भी अपनी शर्तों पर जिन्द़गी जीता हूँ तभी तो घर से निकाल दिया गया,रामभक्त बोला।।
ओह....तो आपके पास रहने का अब कोई ठिकाना नहीं,हीराबाई ने पूछा।।
जी! नहीं! एक पेड़ के तले आसरा लिया था और फिर आपका गाना सुनकर यहाँ आ पहुँचा,रामभक्त बोला।।
ओह...तो आप ऐसा कीजिए मेरे घर क्यों नहीं चलते? मेरा परिवार भी आपको देखकर खुश हो जाएगा,हीराबाई बोली।।
ना जाने आपकी दादी क्या समझें? रामभक्त बोला।।
कुछ नहीं समझेगीं,आप चलिए तो,हीराबाई बोली।।
और फिर हीराबाई के कहने पर रामभक्त उसके घर चला आया और उसके परिवार के साथ रहने लगा,अब वो उसकी नौटंकी के लिए गीत लिखता भी और गाता भी,रामभक्त के गीतों से हीराबाई की नौटंकी में चार चाँद लग जाते,ये ख़बर जब दीनानाथ तक पहुँची तो उनके क्रोध की सीमा ना रही और एक दिन उन्होंने अपना सिर मुँडा़ कर रामभक्त का पिण्डदान कर दिया और सारे गाँव में ये ख़बर फैला दी कि अब से मेरा छोटा भाई मर चुका है,पैतृक सम्पत्ति पर भी उसका कोई अधिकार ना होगा।।
रामभक्त ने सुना तो हीराबाई से कहा कि मुझे बड़े भाईसाहब से यही उम्मीद थी,उनके आदर्शों के सामने और कोई चीज मायने नहीं रखती,यहाँ तक कि मानवता भी नहीं और फिर एक दिन दीनानाथ जी को पता चला कि रामभक्त ने हीराबाई से ब्याह कर लिया तो रामभक्त और हीराबाई का पूरे गाँव ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया,एक नाचने वाली और ब्राह्मण लड़के का मेल गाँव बरदाश्त ना कर सका।।
तब तक सत्यकाम बारहवीं पास कर चुका था अब वो सोलह का पूरा हो चुका था और छुट्टियों में अपने भाइयों गंगाधर और श्रीधर के साथ गाँव आया था,तब उसे अपने छोटे मामा रामभक्त के बारें में पता चला और वो एक दिन यूँ ही उनसे मिलने चला गया,चूँकि रामभक्त का सामाजिक बहिष्कार हो चुका था इसलिए गाँव के बनिए ने उसे राशन देने से मना कर दिया था इसलिए वो दूसरे गाँव से राशन लेकर आता था,अब तो उसके कमाई का जरिया भी खतम हो चुका था क्योकिं दोनों की नौटंकी भी गाँववालों ने बंद करवा दी थी,
जब सत्या रामभक्त से मिलने जाने वाला था तो उसने ये बात अपनी बड़ी मामी सावित्री से बताई,सावित्री वैसे तो बहुत दयालु थी लेकिन अपने पति दीनानाथ से डरती थी,इसलिए चाहते हुए भी वो रामभक्त की मदद नहीं कर पाती थी,उसके मन में रामभक्त के लिए बहुत ममता थी क्योकिं जब वो इस घर में ब्याहकर आई थी तो रामभक्त बहुत छोटा था,उसे भाभी माँ कहता था,इसलिए सावित्री ने सत्यकाम के हाथों रामभक्त के लिए कुछ रूपए भिवजाएं साथ में छोटी बहु के लिए एक सोने की कंठी भी भेज दी।।
और फिर सत्यकाम को किसी गाँव वाले ने रामभक्त और हीराबाई के घर से निकलते देख लिया ,उसने ये बात दीनानाथ जी से कह दी,दीनानाथ ने सुना तो क्रोध की सीमा लाँघ बैठे,उस रात उन्होंने एक छड़ी से सत्यकाम को बहुत पीटा और कहा कि अगर तूने दोबारा ऐसी हिमाकत की तो तेरे लिए अच्छा ना होगा और फिर दीनानाथ जी उस दिन से रामभक्त को उस गाँव से निकालने का उपाय सोचने लगे,
फिर उन्होंने कुछ लठैतों को रूपए देकर कहा कि कैसे भी डरा धमका कर रामभक्त और उसकी पत्नी को इस गाँव से निकाल बाहर करो,चाहे इसके लिए तुम्हें उस पर कोई भी झूठा इल्जाम क्यों ना लगाना पड़े,गाँव वालों को ही क्यों ना शामिल करना पड़े?

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....