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रोटी

रोटी से रोटी तक जिन्दगी की दौड़

डॉ. लता अग्रवाल

लघुकथा आज की समृध्द होती विधा है, जिसने अधिकांश लेखकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है | अपनी लघुता के साथ लघुकथा ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है | इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण है कि अलग-अलग विधाओं से लेखक इस विधा में आ रहे हैं |

इसी क्षेत्र में वरिष्ठ लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी का नाम नया नहीं है, साहित्य की कई विधाओं में आपका लेखन रहा है | इसके साथ ही संपादन के क्षेत्र में भी आप सक्रिय रही हैं जैसा कि उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा है वे 20-21 वर्ष की आयु से उन्होंने लघुकथा लिखना आरम्भ किया है इस दृष्टि से अनुमानत: लगभग 4 दशक से उनका साथ लघुकथा से रहा है | जैसा कि उन्होंने कहा कि 'हंस','सारिका', 'वागर्थ', कथाक्रम', 'वर्तमान साहित्य' 'सन्दर्भ' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी वे प्रकाशित होती रही हैं | प्रस्तुत संग्रह ‘रोटी’ उनका प्रथम लघुकथा संग्रह है जिसमें कुल 69 लघु कथाएं हैं समस्त लघुकथाएं जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से उपजी हैं | प्रस्तावना के रूप में आ० सुकेश साहनी जी की उपस्थिति इस संग्रह का मुख्य आकर्षण है |

जैसा कि संग्रह बात करता है, दुनिया में सारी जद्दोजहद उस गोल और छोटी सी चीज के लिए ही है जिसका ज़िक्र लेखिका अपनी लघुकथा ‘रोटी’ में करती हैं -- “जो महाराज की जेब में है और मंत्री महाराज की नजर से बचा कर थोड़ी सी उसमें से तोड़कर अपने कुर्ते की जेब में सरका लेता है|”

यह सरकाना संकेत है भ्रष्टाचार का; आज हर व्यक्ति एक दूसरे कि जेब से वाह छोटी, गोल वस्तु सरका रहा है | ‘गंवई शब्द चित्र परिशिष्ट’ में ‘एहसान’ और ‘पटकनी’ में लघुकथा के स्थान पर हास्य अधिक दिखाई देता है | ‘स्वार्थी’ लघुकथा की चौखट में आते-आते रह गई जिसमें लेखिका ने एक गंभीर विषय उठाया है कि आज संवेदनाएं भी बिकाऊ हो, बाज़ारवाद का हिस्सा हो गई है | अब तक जो दिखता है, वही बिकता है सुना किंतु जो दिखता है हमारी संवेदनाएं भी उन्हीं के साथ होती हैं जैसे मुंबई की एक अभिनेत्री के छत से गिर आत्महत्या करने पर उसकी चर्चा सारे देश में होती है जबकि एक गांव का गरीब युवा कोल्हू के पाटों के बीच आकर मर जाता है लेकिन उसकी मृत्यु गुमनाम ही रह जाती है |

आज देश में हिंसा का जो वातावरण है उसने हमारी आंखों पर संदेह का ऐसा चश्मा चढ़ा दिया है कि हम हर इंसान को संदेह की दृष्टि से देखते हैं | लघुकथा ‘आतंक’ व ‘अतिक्रमण’ ऐसे ही विषय पर प्रश्न उठाती है | संतान को जन्म देने के लिए माँ उसे 9 माह गर्भ में रखती है अपने आंचल का रसपान कराती है आज भी कई माताएं बच्चों के लिए अपना कैरियर दांव पर लगाती हैं, किंतु जब बच्चे के साथ नाम की बात आती है तो मां के स्थान पर पिता का नाम ही अंकित किया जाता है, क्यों...? युगों से उठता सवाल | हम जिस ‘परिवेश’ में रहते हैं हमारी दुनिया वैसे ही बन जाती है, जैसे बिट्टू की नजर घर की परिभाषा गढ़ती है, “घर गंदा होता है; इसमें ताला होता है; इसमें मम्मी नहीं होती |”

यह है बिट्टू का आक्रोश, आज अधिकतर घरों में माता-पिता दोनों कमाने के लिए निकल पड़े हैं ऐसे में बच्चों का अकेलेपन की पीड़ा को दर्शाती लघुकथा | ‘नया अर्थ’ बच्चों की सोच कहाँ –कहाँ जाती है ,हम सोच भी नहीं पाते हैं कैसे वह शब्दों के अर्थ निकाल लेते हैं यथा –“मछली जल की रानी है, बच्चे ने जल का अर्थ लगाया बहु का जल जाना |” बालक का अपना अनुभव उससे कहला गया | यद्यपि बात में वह धार नहीं बन पाई है

‘सहयात्री’ भी ऐसे ही संदेह भरे चश्मे की कथा है, आज किसी का सामान सहेजने में भी हमें सोचने की आवश्यकता है; जैसे बालक कहता है, “क्या पता इस ब्रीफ़केस में बम रखा हो ?”

वर्तमान राजनीति का चित्र प्रस्तुत करती लघुकथा ‘मोहरे’ कैसे इस्तेमाल किए जाते हैं; दूसरी ओर चरित्र को रेखांकित करती लघुकथा , “मेरी पहुंच प्रिंसिपल तक है अपने स्कूल के प्रिंसिपल शराब पीने तो मेरे पापा की फैक्ट्री में ही आते हैं | उफ़! दुखद है यह स्थिति | ऐसे ही राजनीति पर व्यंग है नेतागिरी | आज के हिंसक यथार्थ को बयान करती लघुकथा ‘अख़बार कैसे आज अख़बार केवल ख़ून रंग उड़ेल रहे हैं | रेगिंग के विरोध में सचेत करती ‘प्रशिक्षण’, मासूम मन की कामना है ‘लालसा’, कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को कभी गलत ‘सीख’ देना नहीं चाहते, परिवेश में भ्रष्टाचार इस तरह समय है कि ना चाहते हुए भी बच्चे उसका हिस्सा बन जाते हैं |

गॉसिप की दुनिया से ही लेखन की सामग्री उपलब्ध है, ऐसा लेखिका मानती हैं इसलिए अपनी लघुकथा ‘तुम सलामत रहो’ में कहती हैं, “कैंची सी चलती हुई जुबान सलामत रहे, वरना हम जैसे घर में बंद कलम घिसने वाली और दुनिया के बीच में खुलने वाली ऐसी चटपटी खिड़कियां कौन खोलेगा कौन हमारे लिए लिखने का मसाला जुटाएगा ?”

लघुकथा ‘उत्खनन’, ‘छुट्टी’ बताती है, स्त्री और पुरुष गृहस्थी के दो पहिए हैं किंतु हमेशा स्त्री की उपेक्षा होती है जो कि उचित नहीं है, आज की नारी शिक्षित है इसका विरोध करती है | पत्नी का करारा जवाब, “तुम सिर्फ़ रुपए कमा रहे हो घर को नहीं चला रहे सुबह से शाम तक तुम्हारी देखभाल करते हैं जिससे तुम निश्चित रुपए कमा सको |”

एक बढ़िया लघुकथा ‘विस्थापन’ सच है, विस्थापन का दर्द स्त्री के अलावा कौन समझ सकता है| वहीं लेखक द्वारा यह कहना कि, “पुस्तक को विस्थापितों को समर्पित करेंगे तब, कोने में बैठी स्त्री की आवाज आती है तब तो यह समर्पण दुनिया की स्त्री जाति के लिए होना चाहिए |”

‘नारी और साड़ी’ गहरा रिश्ता है | स्त्री की छोटी-छोटी खुशी छोटे-छोटे उपहारों में बसी होती है जैसे एक नई साड़ी मिलने पर उसका प्रभाव/ख़ुशी उसके व्यवहार में झलक उठती है | ‘रचना प्रक्रिया’ स्त्री में ही वह गुण है जो कुर्बानी देकर ही संतुष्ट रहती है, फिर केवल कविता रचना ही रचनात्मकता नहीं अपनी संतानों की परवरिश व उनका व्यक्तित्व गढ़ना रचनात्मकता है |”

‘पक्षपात’ एक बेटी द्वारा उठाया बड़ा सवाल, “मां जिस सत्ता में तुम घुट- घुट कर दम तोड़ती रहती हो उसी सत्ता को ताकतवर बनाने के लिए मन्नत मांगती रहती हो तुमने मेरे लिए व्रत रखकर मेरे लिए कभी क्यों नहीं कुछ मांगा...?”

औरत कई स्तर पर स्वयं को जीती है, बताती ‘मन की औरत’, ‘समाधान’ सबके अपने-अपने समाधान हैं | ‘स्थगन’ हो या ‘संतुलन’ लघुकथा स्त्री के संघर्ष को दर्शाती है कि किस तरह वह अपने कार्य और अपने बीच संतुलन कायम रखती है तो स्त्री के दूसरे रूप पर चोट करती लघुकथा ‘ममता’ है जो कैरियर के चक्कर में अपने मातृत्व का गला घोंटती स्त्रियों पर बात करती है |

भारतीय समाज में ही यह संभव है कि यहां सात फेरों का बंधन इतना मज़बूत होता है. नोंक झोंक के साथ ये नाज़ुक़ धागे बंधे रहते हैं | लघुकथा ‘शादी तो है’ गूढ़ विषय उठाती है कि “हर पति- पत्नी के बीच प्यार नहीं है तो क्या हुआ शादी तो है |”

यही वो बातें हैं जो हमारी संस्कृति को अनुपम बनती हैं | आज रिश्ते किस तरह बाजारवाद में तब्दील हो रहे हैं बताती लघुकथा, ‘गुमशुदा क्रेडिट कार्ड’ | नारी शक्ति पर गंभीर विषय उठाया है लघुकथा ‘श्राप मुक्ति’ के माध्यम से किंतु लघुकथा के प्रस्तुतीकरण का उतना ही गम्भीर निर्वाह होता तो कथा और भी सार्थक होती | किन्तु कथा का यह वाक्य बहुत कुछ कहता है -- “ईश्वर की अनुकम्पा पर गिरजा घरों में कुंवारी माँ मरियम मेरी पूजनीय बना दी गई व कंसाड्रा श्रापग्रस्त|” इसे समझने की आवश्यकता है |

‘आधारशिला’ मैं यदि भूमिका को हटा दिया जाए तो यह एक गंभीर लघुकथा बन सकती है भूमिका कुछ लंबी हो गई है जबकि लघुकथा भूमिका को स्वीकार नहीं करती | धर्म के आधुनिक स्वरूप से रूबरू कराती लघुकथा ‘धर्म’, ”उस कमाई का कुछ प्रतिशत हमारे आश्रम में दान कर दिया करना तेरे सब पाप नष्ट हो जाएंगे कह कर गुरुदेव डनलप के गद्दे पर ध्यान मग्न हो गए |” यह है आज के धर्म का मखौल उड़ाते गुरु घंटाल जिन पर लघुकथा तंज कसती है |

‘ लाल होली’ दंगों ने पीड़ितों ने खून की लाल होली देखी है वह कटुता उनके मन में भरी ही रहेगी यही कारण है कथा का पात्र कहता है, “मैडम !में इस अकरम को टीका क्यों लगाऊं यह मुसलमान है|”

सवाल उठाता है ‘विभाजन’ का बीज मासूमों के मन में कौन बोता है कथा चिंतन बीज उत्पन्न करती है |

“ हमारे क्लास की रज़िया भी मेरे पीछे पड़ रही थी, मैं भी राखी बांधूंगी मैंने उसे डांट दिया कि हम गुजराती हैं, गुजराती लोग मुसलमानों से राखी नहीं बंधवाते |”

बात कटु है किन्तु इंकार नहीं कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिनका सदियों तक आतंक मन में बना रहता है |‘जुड़वा बहने’ कथनी और करनी का अंतर ही देश में स्वराज की स्थापना को मुकम्मल नहीं होने दे पा रहा | माइक पर स्वदेशी होने का लंबा चौड़ा भाषण देते नेता का सच देखें, “लो तुम्हारे छोटे बेटे की चिंता भी दूर हो गई उसे अमेरिकन एम एन सी में नौकरी मिल गई है और अपने पोते को सुपर -डुपर इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन |”

हम जानते हैं कि लघुकथा एक क्षण की कथा है, उस दृष्टि से ‘बेबसी’ लघुकथा की धार बन नहीं पाई | यह लघुकथा का विषय नहीं लग रहा | इसे हम लघु कहानी की श्रेणी में रख सकते हैं | ‘दूरदर्शन’ घटना है लघुकथा नहीं | यद्यपि कथा अंबानी के यहां शादी के आमंत्रण पत्र का स्मरण कराती है | ‘हेरिटेज वीक’ कथा को लघुकथा के सांचे में किया जा सकता है, प्रयास की आवश्यकता है | परिणाम विषय अच्छा है किंतु वह बात नहीं बन पाई, यद्यपि संवाद बड़े सजीव हैं, ‘व्हाट इज योर प्रॉब्लम’ , ‘माइंड योर ओन बिजनेस’, ‘किसी से कोई समस पूछो तो चिल्लाएगी आर यू डफर’|”

लघुकथा ‘मिशन मंगल’ कई प्रश्न उठाती है सरकारी योजनाओं पर, देश एक और गरीबी से जूझ रहा है, दूसरी ओर हम मंगल पर यान भेजने की बात करते हैं | हाँलाँकि विकास की दृष्टि से यह भी अनुचित नहीं किन्तु ... इतना खर्च, अगर एक ओर भूख से पीड़ित लोग हैं तो प्राथमिकता क्या होना चाहिए ? यह बात एक अनपढ़ कचरा बीनने वाले बच्चे को समझ आती है किंतु देश के कर्णधारों को नहीं |

लघुकथा महज घटना नहीं है, उसका अपना एक रचना विधान होता है, भले ही लघुकथा का लिखित कोई स्वरूप न रहा हो किन्तु फिर भी इन 40 वर्षों में जो आधार लेकर लघुकथा चली है उससे एक चौखट तो लघुकथा ने अपनी बनाई है जिसमें लघुकथा का फिट होना मैं समझती हूं बहुत आवश्यक है | जिसके अनुसार अगर कहूँ कि ‘आखिर कब तक ?’, ‘छटपटाहट’, ’दुनिया’,स्वार्थी’, ‘तनी नाक’ ,’रूदन’, ‘आरोहण’, ‘जिम्मेदारी’, ‘अनेकता में एकता’, ‘गतांक’, ‘कोई तो नहीं देख रहा’ ,’दिल’ लघुकथा बन नहीं पाई | जैसा कि लघुकथा भूमिका रहित विधा है, तथा नरेशन की लघुकथा में अधिक गुंजाइश नहीं है, फिर लघुकथा का शीर्षक ही सारा भेद खोल दे यह भी लघुकथा में उचित नहीं | ‘और मानव धर्म बन न सका’ गंभीर विषय था अगर इसका निर्वाहन भी उतना ही गंभीर होता तो यह श्रेष्ठ लघुकथा में शामिल होती | ‘मौसेरे भाई’ लघुकथा में कच्चापन है|

इस तरह इस संग्रह का आरंभ रोटी से और अंत भी रोटी से ...अगर कहूं कि इसके माध्यम से लेखिका ने जीवन दर्शन को प्रस्तुत किया है कि इस संसार में इंसान की सारी भागम -भाग इस रोटी के लिए ही है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी | नीलम जी का कहानी और उपन्यास के साथ इस लघुकथा संग्रह के आगमन का स्वागत करती हूँ | यद्यपि अभी इन लघुकथाओं में कच्चेपन की गंध है और मुझे पूरा विश्वास है कि उनके अगले लघुकथा संग्रह में हमें कालजयी लघुकथाओं के दर्शन होंगे |

मैं उन्हें पुन: बधाई देती हूँ

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पुस्तक शीर्षक : रोटी

विधा : लघुकथा

लघुकथाकार : सु श्री नीलम कुलश्रेष्ठ जी

समीक्षक – डॉ. लता अग्रवाल

प्रकाशक : वनिका पब्लिकेशन

मूल्य : 190 /-

पृष्ठ :119