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THOUGHTS OF APR. 2022

22 FEB. 2022 AT 15:21

“मेरी अभिव्यक्ति केवल मेरे लियें हैं यानी मेरी जितनी समझ के स्तर के लियें और यह मेरे अतिरिक्त उनके लियें भी हो सकती हैं जो मुझ जितनी समझ वाले स्तर पर हों अतः यदि जो भी मुझें पढ़ रहा हैं वह मेरी अभिव्यक्ति को अपने अनुभव के आधार पर समझ पा रहा हैं तो ही मुझें पढ़े क्योंकि समझ के आधार पर मेरी ही तरह होने से वह मेरे यानी उसके ही समान हैं जिसके लियें मेरी अभिव्यक्ति हैं और यदि अपनें अनुभवों के आधार पर नहीं समझ पा रहा अर्थात् उसे वह अनुभव ही नहीं हैं जिनके आधार पर मैं व्यक्त कर रहा हूँ तो वह मेरे जितने समझ के स्तर पर नहीं हैं, मेरे यानी उसके जितनें समझ के स्तर पर जिसके लियें मेरी यह अभिव्यक्ति थी है और अनुकूल रहा तो भविष्य में भी रहेगी। मेरी अभिव्यक्ति के शब्द मेरी उंगलियाँ हैं जो मेरे उन अनुभवों की ओर इशारा कर रही हैं जिन अनुभवों के आधार पर मैं अभिव्यक्ति करता हूँ यदि पढ़ने वाले के पास या सुनने वालें के पास वह अनुभव ही नहीं हैं या उनकी पहचान ही नहीं हैं तो जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं तो वह खुद के अनुभवों से तुलना नहीं कर पायेगा जिनकी ओर मैंने इशारा किया हैं जिससें मेरी अभिव्यक्ति उसकी समझ से परें होगी नहीं तो फिर वह अनुभवों का ज्ञान नहीं होने से जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं वह उसके किन्ही अन्य अनुभव से तुलना कर वह ही समझ लेगा जिनकी ओर मैं इशारा ही नहीं कर रहा यानी मुझें गलत समझ लेगा।”


10 APR. 2022 AT 09:49

“हम अनंत हैं अतः अनंत काल के लियें हैं और इस हेतु हमें ऐसा मस्तिष्क अर्थात् ऐसी थाली भी प्रदान की गयी हैं जो हमारें समुचित अनंत अस्तित्व का हमें अनंत काल तक भान करवाते रहें; हमें इस हेतु ऊर्जा रूपी अन्न उससें मिलता रहें पर इस अनंत ऊर्जा या असीम काल के लियें प्राप्त अन्न को अज्ञानता वश कयी बार हम दूसरों को बांटने का प्रयत्न करतें रहते हैं और खुद खुदका नहीं खाने से स्वयं के ज्ञान या जानकारी के आभाव के परिणाम स्वरूप असंतुलन को आमंत्रण देते हैं, हमें इस बात का ज्ञान हों कि सभी की थाली में उनके स्वाद अनुसार भोजन हैं और हमारा सभी का स्वाद भिन्न-भिन्न हो सकता हैं अतः स्वयं की थाली के अन्न को स्वयं ग्रहण करनें में ध्यान दें; दूसरों के पास आप जैसी उनकी अलग थाली हैं; हाँ यदि कोई आपके समझ के स्तर का जान पड़ता हों यानी आपको उसका स्वाद अपनी तरह मालूम पड़ता हों तो उसे अपनी थाली से देने में और उसकी थाली से लेने में कोई समस्या नहीं हैं; भोजन बाटनें से कम नहीं होगा क्योंकि वहाँ पर्याप्त यानी अनंत हैं पर आपको अज्ञानता हों कि किसी का स्वाद आप जैसा हैं, आप अपनी थाली का उसे दे सकतें हैं और उसकी थाली से लें सकतें हैं तो उसके लियें आप और आपके लियें वह समस्या से अधिक कुछ नहीं होंगे।

अन्य शब्दों में कहूँ तो मन-मस्तिष्क सभी के पास हैं; अधिकतर समान नहीं हैं तो कृपया समान नहीं होने पर अपना-अपना ही काम में लें।”

10 APR. 2022 AT 10:05

“संसार बंधन/माया/धारणा यानी स्वप्न हैं और वास्तविकता ध्यान/चेतना/होश यानी जागरूकता; मुक्ति की आवश्यकता संसार रूपी बंधन से होने वाली जकड़न से हैं; संसार से नहीं। संसार से बंधन हैं और ध्यान से मुक्ति पर बंधन से जकड़न धारणा या संसार द्वारा ध्यान यानी चेतना को अधीन कर लेने से हैं एवं मुक्ति ध्यान या चेतना द्वारा धारणा या माया यानी संसार को अधीन कर लेने से अतः ध्यान को प्रभावित न होने देना चाहियें वरन इसके ध्यान की प्रभावितता को बढ़ायें।”

10 APR. 2022 AT 19:16

“जिसे स्वयं को अपनी अहमियत, मायनों अर्थात् आवश्यकता के आधार पर दूसरों के लियें और स्वयं के लियें महत्वपूर्णता का ज्ञान नहीं होता उसी को भय होता हैं कि कोई उसका अपमान नहीं कर दें अन्यथा जिसकी सही मायनों में अहमियत या महत्व होता हैं उसका महत्व कोई अन्य के महत्व न देने से कम या खत्म भला होता हैं क्या? परमात्मा इस लियें महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अज्ञानी आत्मा भले ही उनका महत्व या मायनें नहीं जाननें के परिणाम स्वरूप उनसे मिलना व्यर्थ समझें परंतु फिर भी वह उसी आत्मा को सर्वदा स्विकारनें को आतुर हैं अब यदि परमात्मा इस भय से की आत्मा उनको महत्व नहीं दें आत्मा को नहीं स्विकारनें कि चाहत करें; यह सोच कर की आत्मा भी तो उनको नहीं चाह रही तो वह जिसके कारण महत्वपूर्ण थे; उसके न होने पर स्वयं के कारण महत्व हीन हो जायेंगे इसी तरह सूर्य के प्रकाश का यदि कोई महत्व नहीं समझें और उसके प्रकाश को त्याग कर रहें यानी उसका अपमान करें तो इसमें नुकसान सूर्य का हैं कि उसका जो सूर्य का महत्व नहीं समझ रहा; हाँ! यदि सूर्य भी कोई उसके प्रकाश को महत्वहीन बता कर उसका अपमान करें तो उसे प्रकाश देना बंद कर दें तो स्वयं उसको खत्म कर देगा जिसकें कारण वह महत्वपूर्ण हैं और अज्ञानतावश महत्वहीन हो जायेगा परंतु सूर्य इस लियें किसी को प्रकाश नहीं देता की कोई उसके प्रकाश को यानी उसको महत्व दें; कोई अज्ञानी ही ऐसा करेगा या करेंगें।”

10 APR. 2022 AT 22:23

“कोई बुरा नहीं हैं और कोई अच्छा भी नहीं हैं, कोई छोटा; कोई बड़ा भी नहीं हैं " सब समान हैं " क्योंकि जिसें आप बुरा या अच्छा कहते हों, बड़ा या छोटा (उम्र या मन से) उसके साथ यदि वही परिस्तिथियाँ और उनके परिणाम स्वरूप परिस्थितियों द्वारा दियें विकल्प और फिर जो चयन विकल्पों के आपने कियें वही चयन होते तो उसमें और आपमें या अच्छे और नहीं अच्छे में क्या अंतर रह जाता? कुछ भी नहीं! आप उस जैसे नहीं हो यह इससे केवल एक संयोग सिद्ध हो जाता हैं और वह आप जैसा नहीं यह भी संयोग ही... सत्य में समता ही अनंत की एकलौती और सुंदर वास्तविकता हैं।”

10 APR. 2022 AT 23:14

“हम अपने संबंध में जितना कम ज्ञान यानी अनुभव या जानकारी रखते हैं उतनी अधिक हमारें कारण हमसें दूसरों को और हमकों समस्यायें होती हैं।”

11 APR. 2022 AT 10:42

“संबंध दो शब्दों से मिल कर बना हैं सम् अर्थात् समान और बंध अर्थात् बंधन यानी ऐसी स्तथि जिसमें संबंधित समान रूप से बंधे हो वही संबंध हैं। यह वह बंधन होता हैं जिसका समानता ही यथा आधार हैं; जो भी इसमें स्वयं को बड़ा या छोटा समझता हैं उसमें या उसके अहंकार यानी अहं यानी मैं का आकार हो जाता हैं अर्थात् उसको अहंकार आ जाता हैं; जिसे आने देना संबंधित के लियें सभी से बड़े पाप के समान होता हैं क्योंकि यही अहंकार किसी भी संबंध के लियें सभी से बड़ी हानि हैं या सभी से ज्यादा हानिकारक हैं। अहंकार नामक विकार उन संबंधों में होता हैं या उन संबंधियों के परिणाम स्वरूप संबंध में होता हैं जो स्वयं को शरीर माननें के परिणाम स्वरूप उम्र के आधार पर स्वयं को बड़ा मानतें हैं परंतु वास्तविकता में कोई भी संबंध हों जिस तरह दौड़ दो वाहनों में नहीं होते हुयें उनके सवारों की होती हैं उसी भांति संबंधों में स्पर्धा शरीर रूपी बहनों में नहीं होती वरन इसके शरीर को चलाने वाली आत्मा यानी चेतना या होश में होती हैं। अब बड़ा छोटा शरीर के संबंधों में होता हैं परंतु संबंध तो मौलिक रूप से आत्मा से आत्मा का होता हैं; आत्माओं में कौन बड़ा कौन छोटा सभी समान रूप से परमात्मा के अंश होते हैं जिसके परिणाम स्वरूप समान होते हैं।”

11 APR. 2022 AT 21:19

“संन्यास की सार्थक दीक्षा योग्य जिज्ञासा से फलित आत्मज्ञान की प्राप्ति या उसकी प्राप्ति का निश्चय और उसके परिणाम में सुनिश्चित हो जाना हैं; जिस तरह साधक को योग्य हो जाने पर स्वतः ही फल की प्राप्ति हो जाती हैं उसी भांति जिस तरह दो में दो जुड़ जाने पर चार की प्राप्ति उसी तरह होती हैं जिस भांति पानी नीचे की और गड्ढे की तरफ होने पर स्वतः ही गिरता हैं उसी तरह आत्म ज्ञान भी जैसे स्वतः ही सही अर्थों में मिल जाता हैं सन्यास की भी प्राप्ति स्वतः ही हो जाती हैं; लेने या देने की आवश्यकता हेतु सन्यास की योग्यता प्राप्ति हेतु की चेष्ठा के अतिरिक्त चेष्ठा नहीं करनी होती।”

12 APR. 2022 AT 09:30

“हम धन के प्राप्ति कर्ता नहीं बजायें इसके उसकी प्राप्ति में एक माध्यम् हैं।

हम अर्थ अर्थात् धन स्वयं से प्राप्त नहीं करतें वरन इसके जो समय, होश या ध्यान परमात्मा द्वारा हमें दियें हैं उसे धन में परिवर्तित करने की योग्यता को प्राप्त करतें हैं जिस योग्यता की प्राप्ति तब होती हैं जब हमारी जरूरत या आवश्यकता उस योग्य हो जायें की परमात्मा द्वारा दियें समय या होश, चेतना यानी ध्यान को धन में परिवर्तित करवा दें।”

12 APR. 2022 AT 09:41

“मोह स्वार्थ हैं और प्रेम परमार्थ।

जहाँ मोह प्राथमिकता होती हैं वहाँ प्रेम हो जी नहीं सकता और जहाँ प्रेम प्राथमिकता होती हैं वहाँ मोह का कोई स्थान नहीं।

प्रेम यानी वह जिसमें जिससें प्रेम किया जा रहा हैं उसकी संतुष्टि यानी जो सुख का पर्याय हैं उसे प्राथमिकता दी जाती हैं और मोह यानी वह जिसमें जिससें मोह हैं उसकी अपने पास उपस्थिति को प्राथमिकता देने के लियें उसकी स्वतंत्रता, संतुष्टि, सुख के साथ समझौता कर लिया जाता हैं।”

12 APR. 2022 AT 10:02

“मोह कैसें जिससें उसे किया जा रहा हैं उसको फसा देता हैं?

प्रेम अर्थात् किये जाने के बाद जिसमें जिसके लियें किया जा रहा हैं उसकी संतुष्टि या सुख को प्राथमिकता दी जाती हैं जो उस पर से अपने ध्यान को हटाकर मोह को अपना लेता हैं अर्थात् अपने ध्यान को उसे समर्पित कर देता हैं वह क्योंकि उसकी प्राथमिकता हैं वह जिसके मोह में हैं उसके पास रहें चाहें संतुष्ट या असंतुष्ट यानी उसके मन से या बिना उसका मन हुयें इसके लियें वह उसकी स्वतंत्रता को पूर्णतः छीन लेना चाहता हैं यानी उसे स्वयं के मस्तिष्क को, मन को कभी उपयोग नहीं करने देना चाहता और यदि वह कर भी लें तो उसके मन-मस्तिष्क की कभी चलने नहीं देता; इस भय से की कही उसने उसका मन-मस्तिष्क उपयोग किया तो मेरी तरह मेरे मन को प्राथमिकता देने बंद नहीं कर दें, वह उसे उस मादा चिड़िया की तरह चाहता हैं जो अपने बच्चें को ऊँचाई से धकेलती नहीं इस डर यानी मोह से कि कही यह गिर गया तो मुझसें दूर हो जायेगा या कही यह गिरने की जगह उड़ना सिख गया तो इसे मेरी जरूरत नहीं होगी और यह मुझसें दूर हो सकता हैं।”

12 APR. 2022 AT 11:51

“गलती व्यक्ति की होती ही नहीं विकार को स्वयं पर हावी कोने देने के बाद; क्योंकि फिर तो कर्ता वह रह ही नहीं जाता, कर्ता तो उसका विकार जैसे कि क्रोध, मोह, भय आदि में से कोई या सभी हो जाते हैं।”

14 APR. 2022 AT 00:11

“मेरी समझ में प्रेम के सही अर्थों को जानना यानी समझना ही प्रेम करना और इसकी समझ के बारें में किसी को बताना ही उसके लियें अपना प्रेम जताना हैं।”

14 APR. 2022 AT 19:34

“हम जिसकी भी तरह बनना चाहतें हैं वैसा उसका अनुगमन करनें से नहीं बनतें; उसका अनुगमन यानी जो उसनें व्यक्त किया उसका अनुगमन होगा; हो सकता हैं कि हम उसके शब्दों के यथा अर्थों को नहीं समझ सकें यानी शब्दों के माध्यम् से वह जिन अनुभवों की ओर इशारा कियें हैं उनके नहीं होने से हम उसकी अभिव्यक्ति की यथावत्ता से वंचित रह जायें या फिर उसके व्यक्त करनें यानी जो उसनें कहा हैं आप तक पहुँचने में और इस तरह आपको प्राप्त होने में पहुचाने वाले माध्यम् द्वारा अभिव्यक्ति की यथावत्ता यानी कि ज्यों की त्योंता के साथ समझौता कर लिया जायें यानी उसके द्वारा जाने-अन्जाने भ्रष्टाचार हो जाया जा सकता हैं। हम जिसकी या जिनकी भी तरह बनना चाहतें हैं वैसा या उन सभी के जैसा जो उसकी ही तरह हैं पूरी तरह तब बनते हैं जब हम उसका अनुगमन यानी उसको फॉलो करनें हैं जिन्हें उनने या उन जैसों ने किया यानी " खुदको "। हाँ आप जिनकी भी तरह बनना चाहतें हैं यदि उन्होंने भी उनको फॉलो किया; जिन्हें उन्होंने किया यानी " स्वयं को " तो उनकी अपने आदर्श की तरह पूर्णतः हो जाने की संभावना कम हुयी होगी।”

23 APR. 2022 AT 15:50

“अनुकूलता का भान ही हैं,
यथा अर्थों की पहचान ...
तो क्या?
विकार और उनसे यंत्रवत्ता,
परिणाम स्वरूप;
यथा अर्थी की योग्यता सें वंचितता की फलितता,
अर्थात् समस्या!!!
खैर!
तिमिर की गहरायी,
पर ..
आस भी विश्वास भी
यानि,
घोर अंधकार में उपस्तिथि प्रकाश की!!!
पर्याप्त हैं;
आस हैं विश्वास हैं ....
चैतन्य हैं तो,
समस्या से समाधान भी हैं।”

23 APR. 2022 AT 19:59

“जो मीठा हों, वह ज़हर नहीं हों और जो कड़वा हो वह ज़हर ही हों ऐसा जरूरी तो नहीं पर यदि समय, स्थान और उचितता के आधार पर आवश्यकता हों तो कोई सी भी भोजन संबंधी सामग्री गृहणानुकूल होती हैं, उदाहरण के लियें ज़हर भी कयी बार औसधी हेतु उपयोग होकर गृहण योग्य सिद्ध हो जाता है अतः भोजन का त्याग अनुचित्ता होगी; हमारा स्वाद के लियें ही त्याग को स्वीकार कर लेना सही समझ आता हैं।”

24 APR. 2022 AT 19:23

“एक समय आता हैं; जब उन पक्षियों की तरह अभिभावकों को हो जाना चाहियें जो अपनें बच्चों को ऊँचाई से धकेल देते हैं; ऐसा नहीं कि उन्हें उनके बच्चों से प्रेम नहीं; हाँ! मोह नहीं जिसके कारण ही वह सही अर्थों का प्रेम या स्वतंत्रता उन्हें दें सकते हैं; उन्हें धकेल देकर दोनों विकल्पों को देकर यानि कि या तो वह उड़ने में पूरी तरह सही तरीके से अपने होश का उपयोग करें नहीं तो सदैव के लियें उन्हें उनका होश खोना होगा। जब करों या मरों की स्तथि उनके समक्ष आती हैं उस समय की तरह जब उनके जन्म लेते समय आयी थी और वह यह कि यदि बाहर निकलने में जाने-अनजानें होश नहीं लगाया तो माँ की कोख से इस दुनिया में प्रवेश करतें समय ही मृत्यु से आलिंगन करना होगा तो वह सफलता पूर्वक जैसे तब कोख से बाहर निकल पायें थें और जीवन लेने में सफल हो गयें थें वैसे ही अब भी उड़ने और जीवित रहने में सफल हो पाते हैं विपरीत इसके मोह से ग्रसित जो अभिभावक यदि हों तो वह इस भय से कि कही उनकी संतान उनसे दूर नहीं हो जायें उन्हें हर उनके करने योग्य काम स्वयं से नहीं करने देते जिनमें जोखिम हों संतान के दूर जाने का, अपने पैरों पर खड़ने का विकल्प ही नहीं देना चाहते है और आ जीवन संतान को स्वयं पर निर्भर रखते हैं; उन्हें आत्म निर्भर नहीं होने पर कोसते हैं; जिससे उन पर संतान की निर्भरता का उसे याद रहें और इस भय से वह उनसे दूर जाने की सोचें भी नहीं।”

25 APR. 2022 AT 21:55

“मुझें अनुमान नहीं यथावत्ता चाहियें यही कारण हैं कि जितना मैं अनुमान को महत्व देता हूँ उतना ही उनकी सटीकता से भी समझौता नहीं कर सकता।”

26 APR. 2022 AT 9:35

“वैसे तो हो सकें तो स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य से अपेक्षा रखनी ही नहि चाहियें और यदि समय और स्तिथि की अनुकूलता होने पर रखना पड़ भी जायें तो इस बात की अपेक्षा कि वह हमारी अपेक्षा को अपनी स्वयं की इच्छा जितने मायनें देगा ही ऐसी भी चाह करना अज्ञानता का ही परिणाम होगा यानी अपेक्षा रख ली ठीक पर वह अपेक्षा उसके द्वारा पूरी की ही जायें इसकी इच्छा नहीं रखना चाहियें और किसी भी अन्य से हो सकें तो तब ही सहयोग की अपेक्षा करनी चाहियें या उसके देने की इक्छुकया होने पर लेना चाहियें जब जो हमें चाहियें उसे उन्हें देने में उसके कर्म में थोड़ी सी भी बाधा नहीं हों और यदि समय स्तिथि और उचितता की आवश्यकता होने पर यदि उसके अपने कर्म को बाधित करनें के पश्चात भी यदि उससें लेना पड़ जायें तो उसके कर्म की महत्वपूर्णता या मायनें भी हमारें लियें भी ठीक वैसे ही होने चाहियें जैसे कि जितना उसका उतना हमारा भी कर्म या कर्तव्य हों। )”

26 APR. 2022 AT 9:41

“योग्यता में सही अर्थों में यथावत्ता होती हैं तो सफलता ऐसे प्राप्त होती हैं जैसे दो में चार जोड़ने पर छः की स्वतः ही प्राप्ति हो जाती हैं।”

26 APR. 2022 AT 9:45

“परमात्मा की यथा अर्थों की भक्ति और ज्ञान उसी की प्रेम पूर्ण अनुकंपा से फलित हो सकती हैं।”

29 APR. 2022 AT 21:50

“दूसरों के लियें ऐसे बनों जैसा तुम्हारें लियें तुम दूसरों को चाहतें हों।”

29 APR. 2022 AT 21:53

“अनंत और शून्य महत्वाकांक्षी और योग्यता पूर्ति कर्ता भी वही मेरा; मैं! ही ...”

- रुद्र एस. शर्मा (aslirss)