Apanag - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

अपंग - 14

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रिचार्ड चला गया था वह जैसे बैठी थी, वैसे ही बैठी रह गई थी | आख़िर ये हो क्या रहा था ? उसे सचमुच लगा, वह एक अनजाने देश में, अनजानों के बीच कितनी अकेली खड़ी है | उसे लगा, वह किसी समुद्र में है और न जाने कितने समुद्री जीव उसके चारों और घूम रहे हैं, वे उसको चीर-फाड़ देना चाहते हैं | अभी और क्या- क्या देखना, सहना होगा| ऐसे भयंकर, गहन, बहावदार समुद्र में से वह कैसे निकलेगी ? उसको तो तैरना भी नहीं आता ठीक से !

उसने रिचार्ड को कभी भी ख़राब इंसान के रूप में नहीं देखा था | वैसे तो वह अच्छा आदमी था लेकिन उसको उसकी अच्छाई-बुराई से लेना भी क्या था ? मन था कि उसके बारे में सोच रहा था, मस्तिष्क था कि उसे झटककर फेंकना चाहता था | उसने भानु से आखिर माँगा क्या था ? दोस्ती का हाथ ही न ? इसमें क्या बुराई थी ? भानु मन ही मन अपने पति और रिचार्ड की तुलना करने लगी थी | आख़िर क्यों सोच रही थी रिचार्ड के बारे में ? शायद किसी संबल की तलाश में " किसी के कंधे पर सर रखकर रोना चाहती थी वह ! लेकिन उसके पास कोई कन्धा न था | उसने अपने गर्भ के बच्चे के बारे में सोचा और कुछ हुए उठकर घर का काम समेटना शुरू किया और फिर आकर अपने बैड-रूम में आराम करने चली गई |

उसकी आँखें लग गईं जो रात-रात भर रतजगा करती रहती थीं लेकिन उनींदी आँखों में भी रिचार्ड का चेहरा उभर आया | वह रिचार्ड के सरल और सहज स्वभाव से प्रभावित हो गई थी लेकिन सच तो यह था कि उसे अपने आप से डर लगने लगा था | कहीं कोई गलत क़दम न उठा बैठे ! वैसे उसे पहले सही और गलत की परिभाषा तय करनी थी !

एक भारतीय सभ्यता में जन्म लेकर बेशर्मी को जेब में रखे घूम रहा था तो एक ने उसे ऐसे समय सहानुभूति दिखाकर उससे मित्रता का हाथ माँगा था जब वह बिलकुल एकाकी थी | राज तो उसे कूड़े-कचरे के ढेर की तरह ट्रीट कर ही रहा था | कोई भी इंसान एकाकी नहीं रह सकता | वह भी ऎसी स्थिति में जिसमें से भानु गुज़र रही थी !उस का मन भी अपने एकाकीपन में शामिल करने के लिए किसी को तलाश कर रहा था | इतने अभद्र व्यवहार के साथ उसका राज के साथ निभना अब बहुत मुश्किल था ! तब ? क्या छोड़कर चली जाए राज को ? अपने माँ-बाबा के पास ? विकट प्रश्न था लेकिन था अहं प्रश्न !

वह शरीर व मन दोनों से ही थक गई थी | करे क्या वह? उसके सामने के सभी रास्ते धुंधले होते जा रहे थे | इस अंतिम एपीसोड के बाद राज के वापिस वैसा ही बनकर लौटने की कोई संभावना उसके दिल में नहीं रह गई थी |

पलँग से उठकर अपनी डायरी खोलकर वह कुछ शब्द कलमबद्ध करने लगी | उसकी वास्तविक मित्र तो माँ शारदा ही थीं जो जब भी आवश्यकता पड़ती, उसकी कलम की नोंक पर आकर विराजमान हो जातीं और उसे संभाल लेतीं ---

सबको जीतने की कल्पना करने वाला मेरा मन

क्यों कभी-कभी स्वयं हार जाता है---?

कोई पल --

कोई घड़ी --

हर के अहसास से घिरा

त्रासदी को समेटे

मेरा मन --

दूर कहीं उजास में लिपटे अँधेरे में खो जाता है --

हर दुःख अपना लगता है

हर सूखा पराया --

क्यों ---?

ऐसा क्यों है कि खुश होते हुए तुम

कुछ यादों के धुंधलके को चीरकर

अचानक ही रो पड़ते हो --

और ---

फेंक देते हो

एक सर्द आह --

जिसमें सारा संसार सिमट जाता है ---!!