Anubhuti - Rita Saxena books and stories free download online pdf in Hindi

अनुभूति- रीटा सक्सेना

जीवन की आपाधापी से दूर जब भी कभी फुरसत के चंद लम्हों..क्षणों से हम रूबरू होते हैं तो अक्सर उन पुरानी मीठी यादों में खो जाते हैं जिनका कभी ना कभी..किसी ना किसी बहाने से हमारे जीवन से गहरा नाता रहा है। साथ ही कई बार ऐसा भी मन करता है कि हम उन अनुभवों..उन मीठी यादों से औरों को भी रूबरू करवाएँ। तो ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बातें..अपने विचार पहुँचाने के मकसद से ये लाज़मी हो जाता है कि हम इसके लिए किसी ऐसे सटीक माध्यम का चुनाव करें जो अन्य दृश्य/श्रव्य माध्यमों के मुक़ाबले थोड़ा किफ़ायती भी हो और उसकी पहुँच भी व्यापक हो। ऐसे में किसी संस्मरणात्मक किताब से भला और क्या बढ़िया हो सकता है?

दोस्तों..आज मैं आपका परिचय ऐसे ही संस्मरणों से सुसज्जित किताब से करवाने जा रहा हूँ जिसे 'अनुभूति (अनकही दास्ताँ) के नाम से लिखा है रीटा सक्सेना ने जो पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई क्षेत्र में दिव्यांगजनों के लिए एक स्पैशल स्कूल चलाती हैं और उन्हें उनके द्वारा किए गए सदकार्यों के लिए कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

इस किताब में कहीं लेखिका ने अपने बचपन से जुड़ी बातों को लिखा है तो कहीं माँ के साथ अपने सम्बन्धों को ले कर पुरानी यादों को फिर से याद किया है। इसी किताब में कहीं वे अपने लेखक/कवि पिता की बात करती हैं तो कहीं अपनी माँ के स्नेहमयी एवं कुशल गृहणी होने की। कहीं वे किताबों के प्रति अपनी माँ के शौक की बात करती नज़र आती हैं तो कहीं जीवन मूल्यों और जीवनदर्शन से जुड़ी बातों पर भी उनकी कलम चलती दिखाई देती है।

इस किताब के ज़रिए लेखिका ने अपनी माँ से जुड़ी हुई यादों..उनकी बातों के साथ साथ विभिन्न ऑपरेशनों के दौरान अस्पताल में उनके द्वारा झेले गए दुःखों..तकलीफ़ों की बात की है। इस किताब जहाँ एक तरफ़ लेखिका ने पीड़ा..दुःख.. दर्द..संताप से भरे उन गहन लम्हों को अपने पाठकों के समक्ष रखते हुए एक तरह से उन्हीं दुःखों और तकलीफों को स्वयं फिर से जिया है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में कहीं वे कोरोना काल में हुए अपने तजुर्बों के आधार पर मृत देहों और रोते बिलखते परिवारों और उनकी वेदना की बात करती नज़र आती हैं।

इसी किताब में जहाँ एक तरफ़ वे लचर सुविधाओं वाले उन महँगे अस्पतालों पर भी गहरे कटाक्ष करती नज़र आती हैं जो मरीज़ की मजबूरी और वक्त का फ़ायदा उठा आम नागरिकों को लूटने खसोटने में दिन रात लिप्त नज़र आते थे। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में वे कहीं विभिन्न कष्टों से जूझ रही अपनी माँ के साथ अस्पताल में बिताए दिनों को याद करती हुई नजर आती हैं कि किस तरह बेहद कष्ट में होने के बावजूद भी अंततः उन्होंने अपने दुःख.. अपनी तकलीफ़ पर काबू पा..उनके बारे में बात करना बंद कर दिया था।

इसी किताब में वे कहीं भारतीय व्यवस्था में रोगियों के अधिकारों के बारे में बताती नज़र आती हैं तो कहीं वे उपभोक्ता होने के नाते रोगियों के अधिकारों से अपने पाठकों को अवगत एवं जागरूक करती नज़र आती हैं। इसी किताब में कहीं वे आध्यात्मिकता से जुड़े अपने नज़रिए की बात करती दिखाई देती हैं। तो कहीं वे किशोरावस्था में उनके द्वारा लिखी गयी चंद रचनाओं को भी इस किताब में समेटती नज़र आती हैं।

धाराप्रवाह लेखन शैली में लिखी गयी इस किताब में इनके लेखन कौशल की परिपक्वता एवं समझ को देखते हुए सहजता से ये विश्वास नहीं होता कि यह इनकी पहली किताब है।

इस किताब में वर्तनी की कुछ त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर
68 पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी कसाई को देख लिया हो जो जानवर काटने जा रहा है।'

यहाँ इस वाक्य के संदर्भ में यह बात ग़ौरतलब है लेखिका ने अपनी सातवीं कक्षा की परीक्षा के दौरान अपनी एक सहपाठिनी को दुल्हन के वेश में परीक्षा देते हुए देखा। परीक्षा के बाद जब उसने बताया कि उसकी जबरन शादी कर दी गयी है। तो सब बच्चों को ऐसा महसूस हुआ जैसे कि उन्होंने एक जानवर को कसाई के पास कटने के लिए जाते हुए देखा। जबकि वाक्य स्वयं इससे उलट बात कह रहा है कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी कसाई को देख लिया हो जो जानवर काटने जा रहा है।'

इस वाक्य के हिसाब से बच्चों को ऐसा महसूस हुआ कि कोई कसाई(दूल्हा), जानवर(दुल्हन) काटने के लिए जा रहा है जबकि बच्चों को यहाँ जानवर कसाई के पास जाता दिख रहा है। अतः किताब में छपा वाक्य ग़लत है। सहो वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी जानवर को कसाई के पास कटने के लिए जाते हुए देख लिया हो।'

यूं तो यह किताब मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि सैल्फ़ पब्लिशिंग के ज़रिए छपी इस 80 पृष्ठीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण का मूल्य 199/- रुपए है और इससे प्राप्त होने वाली आय का इस्तेमाल दिव्यांगजनों के लाभार्थ किया जाएगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका को बहुत बहुत शुभकामनाएं।