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स्त्री कोख की विवशता

स्त्री कोख की विवशता - नमिता सिंह जी की कहानी ‘कोख’

नीलम कुलश्रेष्ठ

महाभारत की पृष्ठभूमि पर आधारित नमिता जी की 'कोख 'कहानी 'को अपने द्वारा सम्पादित पुस्तक 'धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत 'में ले चुकीं हूँ व जब सन २०१६ में मैं बारह तेरह वर्ष पहले वनिका पब्लिकेशंस से प्रकाशित ' रिले रेस 'कहानी संग्रह सम्पादन की योजना बनाई तो नमिता जी ने आश्चर्य से पूछा था कि तुम स्त्री अंगों की कहानियां लेकर कैसे एक संग्रह सम्पादित करोगी ?"

मैंने उनसे कहा था, "आपकी भी तो एक कहानी 'कोख 'स्त्री अंग पर है, मुझे दोबारा चाहिए। "

मैंने इसे दो पुस्तकों में लिया और इतने वर्षों बाद इस को पढ़ रहीं हूँ, गुन रहीं हूँ। बहुत स्तब्ध हूँ कि ऐसी विलक्षण कहानी सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे आग्रह पर मेरी प्रथम पुस्तक के लिये आदरणीय नमिता जी ने लिखी थी ? कहानी पढ़ना और उसका मूल्यांकन करना दो अलग चीज़ें हैं ?

इतने बरस बाद नमिता जी ने फ़ोन पर बताया, "हमारा पारम्परिक, धार्मिक परिवार था तब भी मेरी घरेलु माँ कहती थी कि कैसा पाखंड फैला रक्खा है। कोई खीर या फल खाने से बच्चे पैदा होते हैं ? "

इसी कहानी से -' स्त्री और पुरुष --मात्र इसी में सृष्टि कर्ता का मंतव्य व निहित है। सभी दर्शन, चिंतन इसी शाश्वत क्षण की सार्थकता पर आधारित हैं। 'ये क्षण 'कोख 'से ही सम्पूर्णता पाता है और जिस कोख से सारी सृष्टि रची जाती है और प्राकृतिक रूप से जिसे कोख उपहार में मिली है वह ? उस स्त्री की समाज में स्थिति का आंकलन 'कोख 'का लक्ष्य है। आपको कैसा लगे कि आपके मकान के एक कमरे पर आपका हक़ ही नहीं है। चाहे जो कोई भी रह सकता, उसे चाहे तो कितना ही गंदा कर सकता है।

महाभारत की कथा हमें बताती है -महलों की रानियां भी सारे विलास के बीच एक उन्मुक्त जीवन जीने की चाह रखतीं हैं जैसे कि हस्तिनापुर के महाराजा विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बालिका जो छटपटा रही थी कि पति की मृत्यु के बाद किस तरह से उसकी सास महारानी सत्यवती ने एक जाल बुना था अपने बेटे की दोनों पत्नियों अम्बा और अम्बालिका, जो कि बहिनें भी थीं, को गर्भवती कराने का।

इससे पहले का षणयंत्र क्या क्षमा योग्य है ? भीष्म थोक के भाव में तीनों बहिनों अंबा, अंबिका व अम्बालिका स्वयंवर समारोह से अपहरण करके ले आये थे क्योंकि इन बहिनों के रूप व कमनीयता की चर्चा सुनी थी व इनके सौतेली माँ सत्यवती के बेटे को मात्र एक कन्या चाहिए थी विवाह के लिये। आज भी स्त्रियों के अपहरण या ज़बरदस्ती शादी के मण्डप में बिठा देना कहाँ बंद हुआ है ?

कल्पना में भी सोचना भी एक कष्ट है जिससे संतानोत्पत्ति करनी है वे भीमकाय, प्रकांड विद्वान, बलिष्ठ चेहरे की घनी सफ़ेद दाढ़ी मूंछों वाले अधिक आयु के ऋषि व्यास हैं। अम्बालिका हो या कोई आज की साधारण स्त्री। वो छटपटाने लगती है कि सत्ता के लोह कपाटों से कैसे निकल कर आज़ाद हो अपना मनपसंद जीवन जीए। इसी आज़ादी की कल्पना करता स्त्री मन चिड़िया बनकर गगन में उड़ना चाहता है। तभी हमें अक्सर स्त्री कविता में चिड़िया व पंखों के उल्लेख मिलते हैं .

अंबालिका ही इस कहानी में नहीं सोच रही, अब भी बहुत सी स्त्रियों को इस पीड़ा से गुज़रना पड़ता है, सोचना पड़ता है, "हमारी देह पर क्या तनिक भी हमारा अधिकार नहीं है। देह धर्म की नीति और व्यवहार दूसरे तय करेंगे ?हम क्या निर्जीव भावशून्य पिंड भर हैं, जहाँ चाहा, जिसे चाहा परोस दिया ? "

इस कहानी का कलात्मक पक्ष और भी उभरता है जब अंबालिका अपनी बहिन अम्बिका से मिलने जाती है ----'अंबिका अपने कक्ष में वीणा के सुरों में खोई हुई थी। -----वे दोनों अब न पटरानीं थीं और न महारानी, न ही अब वे सौतें थीं --अब वहां सिर्फ़ दोनों बहिनें थीं --सिर्फ़ दो नारियां ----सम्पूर्ण नारी जाति के प्रतिनिधि के रूप में सिमट आईं थीं एक दूसरे के समीप। '

ये कहानी एक महत्वपूर्ण बात के लिए संकेत करती है कि संतानों पर उन मिलन के क्षणों, मिलन करने वालों के व्यक्तित्वों का भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है जैसे कि युवा सत्यवती को बूढ़े होते जा रहे उसके प्रेम में डूबे महाराजा शांतनु से जबरन विवाह करना पड़ा था. हठ में उसने मांग लिया था उसकी संतान ही हस्तिनापुर की राजगद्दी संभालेगी। उसे क्या पता था कि बड़ी उम्र के महाराजा उसे कैसे स्वस्थ संतान दे सकते हैं ?उसे संतान ऐसी मिली कि सारे भोग विलास में डूबकर सन्तानोत्पत्ति की क्षमता ही खो चुकी थी।

सत्यवती बहुत बुद्धिमत्ता से अपने विवाह की ग़लती को ऋषि व्यास से अपनी बहुओं का मिलन करके सुधारना चाहती है लेकिन स्त्री की मन;स्थिती भी कुछ होती है जो मिलन के क्षणों में क्या कुछ कर गुज़र जाती है। अम्बालिका ने पहले तो ऋषिवर को अपने शयनकक्ष में आने से प्रतिबंधित कर दिया था। उनके शयन कक्ष में जाने की बात मान ली थी। फिर बहुत चतुराई से उनकी सेवा में दासी भेज दी थी लेकिन बलि का बकरा कब तक ख़ैर मनाता ? कहानी अम्बा अम्बालिका के पुत्रों जैसे कि पांडु के बीमार रहने का या धृतराष्ट्र के अंधे हो जाने के तर्क को बहुत सशक्तता से अभिव्यक्त करती है।

अंबिका तो विशालकाय ऋषि को देखकर डर कर कांपने लगी थीं , पीली पड़ गई इसलिए उसके पीले पड़े बीमार रहने वाले पुत्र पांडु हुये।छोटी अंबालिका तो डरकर इतना भयभीत हुई कि उसने सारी रात अपनी ऑंखें नहीं खोलीं। उसे डर था कि यदि उसने ऋषि व्यास को देख लिया तो उसके प्राण निकल जाएंगे। इसीलिये धृतराष्ट्र अंधे पैदा हुये।

कुछ और पंक्तियाँ देखिये -'ऋशि श्रेष्ठ आतुर थे ---जैसे किसी रणस्थल की सेना के सम्मुख अपनी शक्ति प्रदर्शन करने के लिये तत्पर हों "----[न कि अभिसार के लिये आतुर व भावुक ].उस दासी की स्थिति ऐसी थी या अम्बालिका की ---'जैसे विशाल अजगर के मुंह में समाया कोई पशु '--यानि कि स्त्रियों को अक्सर एक पशु की तरह प्रयोग में लाया जाता है। कहानी हमें वर्तमान समय से जोड़ते हुये गाय का उदाहरण देकर 'कोख 'के सम्बन्ध में एक सार्वभौमिक कर्कश कानून प्रतिपादित करतीं हैं, "मनुष्य हो या जानवर !औरत की कोख अपनी नहीं होती और न ही अपनी मर्ज़ी से होती औरतज़ाद तो मादा होती है। चाहे अंबा, अम्बालिका हो या उन जैसी रहीं हों या हमारी गाय भैंसे। सब एक बराबर हैं। "

यही तो है स्त्री विमर्श या स्त्री सशक्तीकरण के लिए बिगुल बजाती स्त्रियों की करुण स्थिती दिखाता, गिनाता नमिता जी की लेखनी का चमत्कार। और चमत्कार को देखना हो तो ये कहानी पढ़नी पड़ेगी कि राजप्रासादों का राजसी माहौल या उनकी भाषा या उनके षणयंत्र क्या होते हैं। ग़नीमत है कि इस विमर्श से कुछ स्त्रियां अपनी स्थिति बदल रहीं हैं।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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