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साहब का कुत्ता

व्यंग्य                   

साहब का कुत्ता 

-यशवन्त कोठारी

                मेरे एक साहब हैं। आपके भी होंगे! नहीं हैं तो बना लीजिए। साहब के बिना आपका जीवन सूना हैं। हमारे साहब के पास एक कुत्ता हैं। आपके साहब के पास भी होगा। नहीं है तो आप भेंट में दीजिए, और फिर देखिये खानदान का कमाल! आप जिस तेजी के साथ दफ्तर में प्रगति की सीढ़ियां चढ़ने लगेंगे, क्या खाकर बेचार कुत्ता चढ़ेगा!

                खैर तो साहब, हमारे साहब के कुत्ते की बात चल रही थी। मेरे साहब का यह कुत्ता अलसेशियन है या बुलडॉग या देशी, इस झगड़े में न पड़कर मैं आपको इस कुत्ते का नाम बताता हूंॅ। साहब इसे प्यार से ‘मिकी’ कहकर पुकारते हैं, मेमसाहब उसे ‘टिकू’ कहती हैं और साहब के साहबजादे इसे ‘रिकू’ समझते हैं। अलबत्ता ऐसा वफादार कुत्ता मैंने अपनी जिन्दगी में नहीं देखा! यह साहब, मेमसाहब और साहबजादे, सभी की सेवा में तत्पर रहता है।

                साहब के कुत्ते में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण गुण हैं, जो आम कुत्ते या आम आदमी में नहीं पाये जाते। इनमें से एक गुण है, आदमी की पहचान। साहब की कोठी के दरवाजे पर जो भी व्यक्ति आता है, उसका स्वागत यही करता है, और इसी पहली मुलाकात में पहचान जाता है कि यह आदमी कैसा हैं! वह ठेकेदारों, मातहत अफसरों और चमचों को विशेप रूप से पहचानता हैं। इनको देखकर वह इनके स्वागत में बिगुल बजाता है, और साहब समझ जाते हैं कि कोई मोटी ‘मुर्गी’ या ‘मुर्गा’ आज फंसा हैं। ठेकेदार के आने पर यह कुत्ता कुछ इस तरह से बिगुल बजाता हैं कि बस, मत पूछिये! मुझे भी एक-दो बार यह बिगुल सुनने का सौभाग्य मिला हैं। बिगुल के बाद साहब ‘मिकी’ को चुप कराते हैं, ठेकेदार को ड्ाइंग-रूम में बैठाते हैं, उसे कॉफी पिलाते हैं, कल उसका बिल पास कराने का वादा करते हैं और मुस्करा देते हैं। ठेकेदार समझदार है, वह बाहर आ जाता हैं, कुत्ता उसे दरवाजे तक छोड़ आता है। दूसरे दिन कुत्ते के लिए ठेकेदार बिस्कुट लाता है, और साहब के लिए डाली।

                साहब का कुत्ता बड़ा समझदार है, मुफ्तियों को वह अपने पास भी नहीं फटकने देता। दफ्तर के बड़े बाबू की तरह, उन पर हर वक्त हमला करने को तैयार रहता हैं। एक बार तो मैं स्वयं इसके चुंगल में फंस गया, और मैंने कान पकड़कर तोबा कर ली। अब जब भी जाता हं, पहले ‘मिकी’ का सत्कार करता हंू और बाद में साहब के दर्शन।

                मेमसाहब का ‘टिकू’ से विशेप प्रेम हैं। वे इसे अपने साथ क्लब, सभा, तथा सिनेमा ले जाती हैं। कभी-कभी जब यह भैरव-वाहन गुस्सा होकर सिनेमा में श्वान-संगीत छेड़ देता है, तब दर्शकों को दोहरा तमाशा देखने का अवसर मिलता है, साथ ही पास की सीटें हर वक्त खाली रहती हैं, जिसके कारण मेमसाहब आराम से, बेखौफ सिनेमा का आनन्द उठाती है। क्लब में जब कभी मेमसाहब को ज्यादा ‘चढ़’ जाती है, तब उनका वफादार ‘टिकू’ इन्हें घर तक लाने में मदद करता हैं। जब से टिकू को ‘टाइफाइड’ हुआ है, मेमसाहब इसका विशेप ध्यान रखती है। और साहब के कमिश्नर बनने के बाद तो मेमसाहब इसे अपने ही कमरे में सुलाती हैं। कहते हैं, इससे उन्हें नींद की गोलियां नहीं खानी पड़तीं और वे आराम से सोती हैं।

                साहबजादे के लिए रिंकू का बड़ा महत्व हैं। ये इनके एकमात्र दोस्त, दुश्मन, चाहने वाले और न जाने क्या-क्या हैं! सहबजादे क्रिकेट के मैदान से लगाकर अपनी ‘गर्ल-फ्रेण्ड’ तक इसे घुमाते हैं और साहब, मजा यह कि इनकी ‘गर्ल-फ्रेण्ड’ को भी ‘रिकू’ से बड़ा लगाव हैं। कल ही वह कह रही थी-‘‘आह, क्या मुलायम बाल हैं, आंखें कितनी खूबसूरत हैं, कितना प्यारा चेहरा है, नन्हीं-नन्हीं टांगें ़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़ ़ ़ ़ ़बस रिंकू, मजा आ गया!’’ ; आप कहीं यह न समझें कि यह सब ‘रिंकू-दी डाग’ याने हमारे किस्से के हीरो श्वान की शान में कसीदा पढ़ा जा रहा हैं।  द्ध

                हमारे साहब के कुत्ते का किस्सा अधुरा ही रह जाएगा, अगर साहब के पड़ौसी डॉ ़‘क’ की कुतिया, याने मिस लुई के साथ चले प्रेम-प्रसंग का हवाला न दिया जाए। आप तो जानते ही हैं, बडे़ लोगों की बड़ी बातें होती है। डॉ ़ ‘क’ का लगाव मिसेज शर्मा से है, मिस्टर शर्मा मिसेज वर्मा से लगे हैं, और मिस्टर वर्मा किसी और से ; और यह कभी न खत्म होने वाली श्रृंखला हैं। खैर तो साहब, उसी क्रम में मिस लुई ने पहले तो दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिसे मेमसाहब के ‘टिकू’ ने स्वीकार नहीं किया। लुई ने थक हारकर एकतरफा प्यार शुरू कर दिया। गाहे-बगाहे वह हमारे साहब की कोठी में चली आती और जाने क्या सूंघती फिरती। साहब को अपनी जवानी, साहबजादे को अपनी दीवानगी और मेमसाहब को अपना रोमांस, लुई की इस हरकत को देखकर याद आ जाता है।

                धीरे-धीरे टिंकू ने लुई से दोस्ती कर ली। बात बढ़ी, पड़ोस में चर्चे हुए; इसी खातिर डॉ ़ ‘क’ ने साहब से दोस्ती की। ‘लुई-टिंकू’ के प्यार ने इन्सानों के दिलों में प्यार पैदा किया। और प्यार की कहानी रंग लायी, याने मिस ‘क’ साहबजादे के साथ शतरंज खेलने लगीं। हमारे श्वान-परिवार में भी वृद्धि हुई।

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-यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2,