Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 27 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 27

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यह है मेरे परदादा का हाथी

राजा कृष्णदेव राय के समय में विजयनगर की कार्ति-पताका दूर-दूर तक लहराने लगी थी। विजयनगर राज्य की कलाओं और धन-धान्य का कोई जवाब न था। इसलिए लोग ‘धरती की अमरावती’ कही जाने वाली विजयनगर की राजधानी को एक बार अपनी आँखों से देखने के लिए तरसते थे।

राजा कृष्णदेव राय भी चाहते थे कि लोग विजयनगर की समृद्धि और कलाओं के बारे में जानें। इसलिए हर साल विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। इस अवसर पर पूरे विजयनगर में भव्य समारोह मनाया जाता था, जिसमें कलाकार अपनी सुंदर कलाओं का प्रदर्शन करते थे। एक से एक सुंदर प्रदर्शनियाँ लगती थीं, जिनसे राज्य की समृद्धि का पता चलता था। देश-विदेश से आने वाले अतिथियों को इसका इंतजार रहता था। दूसरे राज्यों से बड़े-बड़े विद्वान और कलावंत इस अवसर पर राजधानी की अनुपम शोभा देखने आते, तो हर ओर इतनी चहल-पहल बढ़ जाती थी कि विजयनगर का रूप ही बदल जाता था।

राजा कृष्णदेव राय भव्य समारोह में कलाकारों को अपने हाथ से एक से एक सुंदर उपहार देते थे। फिर अपनी प्रजा का उद्बोधन करते हुए कहते थे, “मुझे इस बात का गर्व है कि विजयनगर कलाओं का स्वर्ग है और धरती पर सबसे समृद्ध राज्य है। मैं तो चाहता हूँ कि दूसरे राज्य भी इससे सीखें। हर राज्य विजयनगर की तरह खुशहाल हो। इसीलिए दूर-दूर से लोग यहाँ आते हैं तो उनका स्वागत कीजिए।”

विजयनगर की प्रजा भी इस अवसर पर दिल खोल देती। दूर-दूर से आए अतिथियों का आतिथ्य करने के लिए हर कोई उत्सुक था। सभी चाहते थे कि लोग राजा कृष्णदेव राय और विजयनगर राज्य के बारे में अच्छी छवि मन में लेकर जाएँ। इस बात से भी राज्य में बाहर से आने वाले अतिथि बहुत प्रभावित होते थे।

हमेशा की तरह इस बार भी विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस समारोह मनाने की योजना बनी, तो पूरे विजयनगर में उल्लास छा गया। सब ओर सुंदर फूलों के तोरण-द्वार बनाए गए। उन्हें रंग-बिरंगी झंडियों और केले के पत्तों से सजाया गया। साथ ही उन पर चाँदी के छोटे-छोटे नक्काशीदार कलश सजाकर रखे गए, जिनमें सुगंधित द्रव भरा हुआ था। विजयनगर में हर ओर उत्साह और उमंग नजर आती थी। प्रजा ने राजा कृष्णदेव राय के सम्मान में अपने-अपने घरों में सुंदर दीप-मालाएँ सजाईं।

राज उद्यान में शाम के समय मुख्य समारोह हुआ। पहले बच्चों ने राजा कृष्णदेव राय के सुंदर राज-काज की छवि प्रस्तुत करने के लिए, ‘नई सुबह का गीत नया’ नृत्य-नाटिका प्रस्तुत की। उसमें नई सुबह, नए विहान का दृश्य था। पक्षियों की चहचहाहट और नदियों का कल-कल संगीत भी। ऐसा लगता था मानो प्रातःकाल आकाश से उतरी सूर्य की किरणों राजा कृष्णदेव राय का वंदन कर रही हों।

फिर सितार, मृदंगम और दूसरे वाद्यों के साथ गीत-संगीत का बड़ा मनोहारी कार्यक्रम हुआ। इसमें बच्चों ने भी बाँसुरी की धुनें बजाकर सबका मन मोह लिया। आखिर में पीला अंगवस्त्र पहने एक छोटे से बच्चे ने, बड़े आत्मविश्वास के साथ विजयनगर का मंगलगान गाया—

विजयनगर की गाथा है यह, विजय नगर की गाथा!

फूलों जैसी खिली-खिली यह विजयनगर की गाथा,

अंबर से भी हिली-मिली यह विजयनगर की गाथा,

सबका ही है मन महकाती, विजयनगर की गाथा,

धरती को है स्वर्ग बनाती विजयनगर की गाथा।

सुनकर सबके चेहरे पर आनंद का भाव था। राजा कृष्णदेव राय भी प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने बच्चे को पास बुलाकर उसकी पीठ थपथपाई। फिर उसे अपने हाथों से सुच्चे मोतियों की लड़ी भेंट की।

इसके बाद राज्य के कलाकारों की बारी आई। सबने अपनी एक से एक उत्कृष्ट कलाकृतियाँ राजा कृष्णदेव राय को भेंट कीं। कुछ ने सुंदर चित्र भेंट किए, किसी ने काले पत्थर और कीमती धातु की मूर्तियाँ। राजा हर कलाकृति को खुद निरखते, फिर सभी आगंतुकों के सामने प्रदर्शन के लिए रख दिया जाता। कलाकारों को एक से एक सुंदर और बेशकीमती उपहार दिए जा रहे थे।

इसके बाद नगर के गणमान्य लोगों ने राजा को अपने उपहार भेंट किए। किसी कवि ने राजा कृष्णदेव राय की प्रशस्ति में पूरा ग्रंथ रच दिया था। उसने वह ग्रंथ भेंट करते हुए, राजा की प्रशंसा में रचे गए कुछ छंद पढ़े तो जोरदार तालियाँ बजने लगीं। राजा ने विनम्रता के साथ सिर झुकाकर सुकवि का अभिवादन किया।

दरबारी भी इस अवसर पर एक से एक कीमती उपहार लेकर आए थे। वे एक-एक कर राजा कृष्णदेव राय के पास जाते और अपना उपहार भेंट करते।

कार्यक्रम समाप्त होने पर था, तभी राजा का ध्यान गया। बोले, “तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा। जरा देखो तो, वह कहाँ अटक गया...?”

मंत्री को तो इसी अवसर की प्रतीक्षा थी। बोला, “महाराज, आप तो जानते ही हैं, तेनालीराम को तो बस लेने की आदत है, देने की नहीं। उपहार न देना पड़े, इसलिए आज वह आया ही नहीं।”

एक मुँहलगे दरबारी ने कहा, “रहने दीजिए महाराज। उस विदूषक के बिना क्या हमारे महान राज्य का महान स्थापना दिवस समारोह पूर्ण न होगा? वह अपने घर ही बैठा रहे तो अच्छा है। वैसे भी वह करता ही क्या है? दो-चार उलटी-सीधी बातें कहकर सबको मूर्ख बना देता है। आप इतनी तारीफ करते हैं, इसी से उसका दिमाग अब ठिकाने नहीं है...!”

पर उस मुँहलगे दरबारी की बात अभी पूरी भी न हुई थी कि सबका ध्यान प्रवेश-द्वार की ओर चला गया। वहाँ अजब दृश्य था। सिर पर लाल रंग की बड़ी सी पोटली लादे, तेनालीराम तेजी से चला आ रहा था। उसे देखकर दरबारी हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय की भी हँसी छूट गई। बड़ी कौतुक भरी नजरों से वे तेनालीराम की ओर देखने लगे।

विदेशों से आए सम्मानित अतिथि, विद्वान और कलावंत भी हैरान थे, “क्या यही वह तेनालीराम है, जिसकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते लोग नहीं थकते? पर यह तो पूरा औघड़ है। लगता ही नहीं कि...!”

पर तेनालीराम का ध्यान तो कहीं और था। उसने पास आकर राजा कृष्णदेव राय को प्रणाम किया और आराम से बैठकर पोटली खोलने लगा। बड़ी सी लाल रंग की पोटली। भला उसमें से कौन सा जादू का पिटारा निकलने वाला था? राजा समेत सभी उत्सुकता से देख रहे थे कि तेनालीराम अब कौन सा कमाल दिखाने वाला है? पोटली खोलते ही उसमें से काले रंग का एक खूबसूरत हाथी दिखाई दिया। सूँड़ उठाए लकड़ी का वह हाथी इतना सुंदर था कि राजा समेत सभी उसकी प्रशंसा करने लगे।

“ठहरिए महाराज, अभी प्रशंसा बाद में कीजिए।” कहकर तेनालीराम ने हाथी के पैरों के पास कुछ फूल रख दिए। फिर कहा, “भई हाथीराम, हमारे दयानिधान राजा कृष्णदेव राय का अभिवादन करो।”

सुनते ही हाथी ने अपनी सूँड़ हिलाई और नीचे रखा एक फूल उठाया। फिर सूँड़ उठाकर उसे राजा कृष्णदेव राय की ओर उछाल दिया।

देखते ही पूरा सभामंडप तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। राजा कृष्णदेव राय भी प्रफुल्ल थे। उन्होंने पूछा, “यह इतना सुंदर हाथी तुम्हें मिला कहाँ से तेनालीराम?”

तेनालीराम बोला, “महाराज, मेरे परदादा बहुत अच्छे काष्ठ शिल्पकार थे। उनकी बनाई हुई यह दुर्लभ कलाकृति है। जन्मदिन पर आपको भेंट देने के लिए मैं गाँव गया और बरसों से सँभालकर रखी हुई कलाकृति ले आया। इसमें मेरे परदादा की यादें भी बसी हैं। इसलिए सोचा, आपको भेंट देने के लिए इससे ज्यादा कीमती वस्तु मेरे पास कोई और नहीं है।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय की आँखें खुशी से चमक उठीं। बोले, “आज का सबसे अच्छा उपहार यही है। तेनालीराम का यह बेशकीमती उपहार महल के मेरे निजी कक्ष में रखा जाए, जिससे मैं रोज इसे देख सकूँ। क्योंकि इसे देखकर लगता है, हमारे राज्य में गाँवों में भी कितनी ऊँची कला है। मैं चाहता हूँ, हमारे कलाकारों की नौजवान पीढ़ी इस कला को आगे बढ़ाए, ताकि दूर-दूर तक लोग हमारी कला और कलाकृतियों की प्रशंसा करें!”

राजा एक क्षण के लिए रुके। फिर प्यार से तेनालीराम की ओर देखकर बोले, “और हाँ, सभा में उपस्थित सज्जनो! तेनालीराम की बुद्धिमत्ता का नमूना तो आपने देख ही लिया, जिसने बिना कुछ कहे, कितनी अच्छी बात सुझा दी।...अब आप समझ गए होंगे, तेनालीराम मुझे इतना अधिक क्यों प्रिय है।”

कहते-कहते राजा कृष्णदेव राय ने अपने गले से मोतियों का हार उतारकर तेनालीराम को पहना दिया।

यह देख, खूब सज-धजकर आए चाटुकार दरबारियों के चेहरों का रंग उड़ गया। बेचारे समझ नहीं पा रहे थे कि हर बार वे नया जाल बुनते हैं, पर तेनालीराम उसमें फँसने के बजाय उलटा उन्हें पटकनी कैसे दे देता है!

समारोह से लौटते हुए विजयनगर की प्रजा ही नहीं, बाहर से आए अतिथियों के मुख पर भी बस, तेनालीराम के अनोखे उपहार की ही चर्चा थी।